श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की इक्कीसवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की इक्कीसवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
रेत के रिश्ते
कुछ ने खींचा
कुछ ने धकेला
अन्ततोगत्वा भीड़ का यह रेला
ले ही आया मुझे यहाँ तक।
कोई कहता है इसे सुवर्णगिरि
कोई कहता है इसे कजलीवन
अब मैं और मेरा बैरागी मन
पड़ गया है नितान्त अकेला ।
वापस लौट गया है
सारा का सारा मेला।
पोंछ रहा हूँ गुलाल,
निकाल रहा हूँ मालाएँ,
सोच रहा हूँ
कहाँ रखूँ हाथ के नारियल?
ऊपर देखता हूँ तो
आकांक्षाओं की आकाश-गंगा,
नीचे देखूँ तो
अपेक्षाओं का अथाह सागर,
सामने हैं
समस्याओं के सर्पिल संशय वन।
और पीछे?
साहस नहीं रहा पीछे देखने का।
कितना कठिन है
दायित्वों की ऊँचाई पर जीना?
बातों ही बातों में
आ जाएगा साठवाँ महीना।
तब फिर वे
या तो मुझे और ऊपर धकेल देंगे
या खींच कर पटक देंगे
जमीन पर
यहाँ बैठूँ भी तो बैठूँ
किसके यकीन पर?
कुर्सी पर रोप दिया है
उन्होंने मुझे मेरी जमीन से उखाड़ कर
कुंकुम की हथेली
छाप दी है उन्होंने
मेरे दिल के दाहिने किवाड़ पर।
अभ्यस्त भी हूँ
व्यस्त भी हूँ
और मस्त भी हूँ
पर इस बिन्दु से नीचे की नीचाई
जीने नहीं देती
और ऊँचाई मरने नहीं देती
जैसा कि चाहते हैं वे,
जो कि मुझे यहाँ छोड़ गये हैं
उखाड़ कर अपनी मिट्टी से
रेत से मेरा रिश्ता जोड़ गये हैं ।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०२-१०-२०२१) को
'रेत के रिश्ते' (चर्चा अंक-४२०५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सार्थक और सुंदर पंक्तियाँ आदरणीय ।
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteवहा!बहुत ही उम्दा रचना
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteसुंदर अति सुंदर सत्य है ये उन विधायकों का जो सिर्फ अपने नाम और भलमानसता के कारण इस दल-दल में खींच लिए जाते हैं ।
ReplyDeleteअसमंजस में फंसे मन की शानदार अभिव्यक्ति।
इस अप्रतिम सृजन को पढ़वाने का हृदय से आभार।
पढ कर मन को अच्छा लगा। वाकई रिश्तों का बहुत खूबी से बखान किया है आपने
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढ़ा।
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