बन्द करो



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की सत्ताईसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


बन्द करो

हो गया क्रान्ति का पटाक्षेप
तुम और नहीं छलछन्द करो
इस नाटक में क्या रक्खा है
यह खेल-तमाशा बन्द करो।

सचमुच में तुम खलनायक थे
नायक का सिर्फ मुखौटा था
अभिनय में महा छलावा था
उद्देश्य बहुत ही छोटा था।

नुच गई नकाबें शनैः-शनैः
जो भीतर था अब बाहर है
तुम लाख मुखौटे लटकाओ
नीयत का स्वगत उजागर है।

अच्छा है, मध्यान्तर करके
रोटी का अन्य प्रबन्ध करो
इस नाटक में क्या रक्खा है
यह खेल तमाशा बन्द करो
हो गया क्रान्ति का पटाक्षेप।

सम्वाद सभी बेमानी हैं
सब बक-बक है, लफ्फाजी है
मक्कार मंच पर चढ़ बैठे
धूर्तों की धोखेबाजी है

नेपथ्य भरा कोलाहल से
हर सूत्रधार चिल्लाता है
जो नायक है वह रोता है
और सिर्फ विदूषक गाता है

हर दर्शक का दम घुटता है
अब बन्द वाद्य और वृन्द करो
इस नाटक में क्या रक्खा है
यह खेल तमाशा बन्द करो
हो गया क्रान्ति का पटाक्षेप।

तुम जब तक थे चौराहों पर
बस क्रान्ति-क्रान्ति चिल्लाते थे
जो बैठे थे सिंहासन पर
उनको बदमाश बताते थे

पर सिंहासन पर जाते ही
तुम उनसे ज्यादा मरते हो
वे भी बदमाशी करते थे
तुम भी बदमाशी करते हो।

मेरे आंगन को छोड़ो भी
तुम और कहीं आनन्द करो
इस नाटक में क्या रक्खा है
यह खेल तमाशा बन्द करो
हो गया क्रान्ति का पटाक्षेप।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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