फिर चुपचाप अँधेरा



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की अट्ठाईसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


फिर चुपचाप अँधेरा

आँगन-आँगन फैल रहा है, फिर चुपचाप अँधेरा
उदयाचल पर अस्त पड़ा है, मरणासन्न सवेरा।
खुद सूरज के वंशज ही जब, उम्र बढ़ा दे अँधियारों की
या तो वो सूरज अन्धा है, या फिर किरणें आवारा हैं।

युग सूरज का इससे ज्यादा, और भला क्या अपयश होगा
किरणें हों यदि शीलवती तो, मावस का क्या साहस होगा
(यह) माना उन भँवरों का कुछ, दीन नहीं, ईमान नहीं था
लेकिन ये भी वैसे होंगे, ऐसा तो अनुमान नहीं था

खुद मधुकर ही मधु के मद में नोचे फूलों की पंखुरियाँ
या तो ये भँवरे कपटी हैं, या फिर मौसम हत्यारा है।
खुद सूरज के वंशज ही जब......।

तितली बैठे इन्द्र-धनुष पर, इन्द्र-धनुष टेढ़ा हो जाये
एक टिटहरी के क्रन्दन में, सारा ही अम्बर खो जाये
जिस अम्बर में आँख मूँद ले, अपमानित होकर ध्रुव तारा
उस अम्बर पर धरती कैसे, कर लेगी विश्वास दुबारा?

अपने हाथों आप पोंछ ले, जब अपना सिन्दूर दिशाएँ
या तो वो कुंकुम काला है या फिर दर्पण दुखियारा है।
खुद सूरज के वंशज ही जब.....।

पचरंग चूनर बुनती बेला, सूत परख यदि लेते साँई
चूनरिया को बदरंग कैसे कर देती कोई परछाई
अपने पौरुष को गाली है, सतवन्ती को बाँझ बताना
भाँवर लेना बहुत सरल है, बड़ा कठिन है वंश चलाना।

जब चूनर के पाँच रंगों में, सतरंगा संग्राम मचा हो
या तो सब रंगरेज कुटिल हैं, या फिर जुलहा बेचारा है।
खुद सूरज के वंशज ही जब.....।

जिन पाँखों में उड़न नहीं हो, उन पाँखों का मतलब क्या है
जिन आँखों में सपन नहीं हों, उन आँखों का मतलब क्या है
निर्जन में भी फूल खिले तो, गन्ध गगन तक छा जाती है
सौरभ की यह आत्माहुति ही, युग की कविता कहलाती है।

जब कविता ही पाँव पकड़ कर चरणामृत को हाथ पसारे
या तो ये हिमगिरि गूँगा है या फिर गंगाजल खारा है।
खुद सूरज के वंशज ही जब.....।

बीते कल को अच्छा कहना, जिस जीवन की लाचारी हो
पतझारों का बन्दी रहना, जिस उपवन की बीमारी हो
उस जीवन में, उस उपवन में, ऋतु की रानी क्यों आयेगी? 
आई भी तो दिन-दो दिन से, ज्यादा कैसे रह पायेगी?

जन्म-दिवस पर जब आँगन में, यमदूतों की भीड़ लगी हो
या तो शिशु में साँस नहीं है, या फिर ऑगन अँधियारा है।
खुद सूरज के वंशज ही जब.....।
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संग्रह के ब्यौरे
कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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