श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की उनतीसवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की उनतीसवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
ओ दिनकरों के वंशधर!
जब अँधेरा मुँह चिढ़ाये
दिल जलाये दीप का
और घोंघे कर उठें
उपहास उजली सीप का,
तब बताओ
मोतियों के वंशधर! हम क्या करें?
और दिनकर के
दहकते वंशधर! हम क्या करें?
अंश उजले वंश का जब
तिलमिला कर जल उठे
और उसकी लौ लपट बन
तम जलाने को जुटे
उस समूचे रोष का ही
पुण्य यह उजियार है
मन्युमय उस दीप का
शायद यही आधार है।
मीत!
इस आधार को
इस मन्यु को आकाश दो।
युद्धरत हो तुम सतत्
ऐसा प्रबल आभास दो।
तुम विजेता हो, अजित हो, इष्ट हो
ऐसा कहो ललकार कर।
लिख चुका जय-गीत,
अब तुम
आ न जाना हार कर।
-----
रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
-----
जब अँधेरा मुँह चिढ़ाये
ReplyDeleteदिल जलाये दीप का
और घोंघे कर उठें
उपहास उजली सीप का,
तब बताओ
मोतियों के वंशधर! हम क्या करें?
और दिनकर के
दहकते वंशधर! हम क्या करें?
वाह..क्या कविता है बहुत ही उम्दा!
आपकी टिप्पणियॉं,अपने काम पर मेरा हौसला और भरोसा बढाती हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteचयन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteतुम विजेता हो, अजित हो, इष्ट हो
ReplyDeleteऐसा कहो ललकार कर।
लिख चुका जय-गीत,
अब तुम
आ न जाना हार कर।---गहन सृजन
ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढा।
Delete