श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’
की सैंतीसवी/अन्तिम कविता
‘कोई तो समझे’
की सैंतीसवी/अन्तिम कविता
यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को
समर्पित किया गया है।
उमड़-घुमड़ कर आओ रे
लगता है नादान पड़ौसी, फिर से हिम सुलगायेगा
लगता है मेरे उपवन से, फिर पतझर टकरायेगा
लगता है फिर बलिदानों की, महा दिवाली जागेगी
लगता है फिर घायल झेलम, ताजा लोहू माँगेगी
लगता है ये पेकिंगवाला दुनिया को मिटवायेगा
लगता है दिल्ली के हाथों, पिण्डी को पिटवायेगा
उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे!
और
आनन गरजो, फानन बरसो, फिर तूफान उठाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
आओ रे! आओ रे! आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।
सूख नहीं पायी है स्याही, ताशकन्द के वादों की
देखो बदल गई है नीयत, बेगैरत जल्लादों की
भूल गये हैं इतनी जल्दी, वे वामन के वारों को
छेड़ रहे हैं इसीलिये फिर, चेरी और चिनारों को
ललिता का सिन्दूर पुँछा पर, पिण्डी का मन भरा नहीं
(तो) साबित कर दो अभी हमारा, लाल बहादुर मरा नहीं।
लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!
ललिता की बेंदी का सपना, सच करके दिखलाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-उमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।
बजें नगाड़े एक बार फिर, राख झड़े अंगारों की
इच्छोगिल में एक बार फिर, प्यास बुझे तलवारों की
कान लगाकर सुनो तुम्हें फिर, हाजीपीर बुलाता है
फिर दयाल का स्वागत करने, वो बाँहे फैलाता है
वो भूपेन्दर भटक रहा है, सरहद के गलियारों में
हाँक हमीदा मार रहा है, पेटन के अम्बारों में
लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!
उनने सींच दिया है लोहू, फसलें हमें उगाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-घुमड़ कर जाओ रे!
महाकाल बन आओ रे!
प्रलप-घटा-से छाओ रे।।
अभी अधूरा रक्त-यज्ञ है, आहुति अभी अधूरी है
अभी विजय से वीर जुझारों, एक चरण भर दूरी है
अभी-अभी तो शुरु हुआ है, रण-ऋतु का बलि-मेला रे
अरे! अभी तो खर्च हुआ है, अपना एक अधेला रे
कोरे बहुत पड़े हैं शूरों! पृष्ठ अभी इतिहासों के
वक्त इन्हें लिख लेगा तुम तो, ढेर लगा दो लाशों के।
लो आओ रे! आओ रे! आओ रे!
सूख रहा है यश का सागर, उसमें ज्वार उठाना हे
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।
कैसे सहती हैं सन्तानें, उफ्! बन्दा बैरागी की
रीती माँग लिये बैठी है, गुमसुम कविता ‘त्यागी’ की
हाय! शहीदों की सौगातें, सौदों में जब बँटती हैं
लाल किले की लाली घटती, माँ की छाती फटती है
जिस दिन अपना पावन नेजा, पिण्डी पर पहरायेगा
विजयघाट का अमर विजेता, चैन उसी दिन पायेगा।
लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!
एक चरण पूजा बैरी ने, दूजा भी पुजवाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-घमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय घटा-से छाओ रे।।
क्यों इतने गुमधुम बैठे हो, क्यों इतने अकुलाये हो
आसमान पर तुम लोहू से, हस्ताक्षर कर आये हो
तुमने जेट मसल डाले हैं, तुमने पेटन फाड़े हैं
बाँहों से ही जकड़-पकड़ कर, परबत-राज उखाड़े हैं
तुमने लावा मथ डाला है, इन फौलादी हाथों से
तुमने सूरज चबा लिया है, दो दुधियाले दाँतों से
आसमान पर तुम लोहू से, हस्ताक्षर कर आये हो
तुमने जेट मसल डाले हैं, तुमने पेटन फाड़े हैं
बाँहों से ही जकड़-पकड़ कर, परबत-राज उखाड़े हैं
तुमने लावा मथ डाला है, इन फौलादी हाथों से
तुमने सूरज चबा लिया है, दो दुधियाले दाँतों से
लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!
रंग बदल दो फिर अम्बर का, फिर से भूमि कँपाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।
राजघाट को राजी कर लो, शान्ति घाट को समझा दो
बुझने आये हैं जो शोले, आज उन्हें फिर भड़का दो
ऐसे घुटन-भरे मौसम में, तुम कैसे जी लेते हो
नीलकण्ठ हो फिर भी इतना, विष कैसे पी लेते हो
कोई माँ को गाली दे और, पालो भाई-चारा तुम
(तो) फिर कैसे इस धरती पर, लोगे जनम दुबारा तुम।
लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!
गाली का बदला गोली से, लेकर के दिखलाना हैं
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओे रे।।
जिस दिन ये कमला की जायी, अम्बर भर हुँकारेगी
लाल किले से बिफर-बिफर कर, नागिन-सी फुँकारेगी
जिस दिन ये भौंहें तानेगी, जिस दिन तेवर बदलेगी
फेंक चूड़ियाँ, लेकर खाँडा, रणचण्डी बन मचलेगी
जिस दिन ये ऋतुराज-दुलारी, खुद बारूद बिखेरेगी
जिस दिन ये दुश्मन को उसके, घर में जाकर घेरेगी
जिस दिन खुद ‘राजू-संजू’ को, केसरिया पहिनायेगी
तिलक लगाकर सिर चूमेगी, औ’ ममता बिसरायेगी
एक पड़ेगा जब पिण्डी पर, इक पेकिंग पर छायेगा
कौन बचायेगा दुनिया को, कौन सामने आयेगा
जिस दिन इसका एक इशारा, ये यौवन पा जायेगा
जिस दिन सारा देश तड़प कर, अपनी पर आ जायेगा
उस दिन दुनिया खूब सोच ले, जो भी होगा कम होगा
मानवता भी मिटी अगर तो, हमें न कुछ भी गम होगा।
लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!
अरि-शोणित की गढ़-गंगा में जननी को नहलाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।
आनन गरजो, फानन बरसो.....।।
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संग्रह के ब्यौरे
कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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