विकृत (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की इक्कीसवीं/अन्तिम कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की इक्कीसवीं/अन्तिम कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



विकृत

शालाएँ खुल गईं, विद्यालयों के कमरे बच्चों से लबरेज हो गए, जन-जीवन की चहल-पहल में एक सात्विक बदलाव आ गया। जिम्मेदार शिक्षकों ने पढ़ाई शरु कर दी। एकाध सप्ताह पाठ्य पुस्तकों का हो-हल्ला मचा और फिर गाड़ी पटरी पर आ गई। दो-ढाई हजार की आबादीवाले इस छोटे से गाँव में सरकार ने मिडिल स्कूल दे रखा था। जैसा कि आम वतीरा है, यहाँ भी कमरे कम थे और बच्चे अधिक। परिवार नियोजन की विफलता और नागरिक भावना में देश के प्रति अवमानना का सीधा प्रभाव यह पड़ा कि छठवीं, सातवीं और आठवीं कक्षा के दो-दो सेक्शन करने की नौबत आ गई। हेडमास्टर श्री मसर्रत खान अपने घिचपिच ऑफिस में साल भर तक पेश आनेवाली दुश्चिन्ताओं से घिरे बैठे अपने भृत्य पन्नालाल से कुछ कहने ही वाले थे कि पदक बाबू, उनके कमरे में बिना किसी पूछताछ, बिना किसी पूर्वाज्ञा और बिना किसी औपचारिक परवानगी के घुस आए। आए वहाँ तक तो ठीक है, पर वे बिना पूछे ही सामनेवाली अकेली कुरसी पर बैठ भी गए और हेडमास्टर साहब से उन्होंने शुद्ध अंग्रेजी में पूछा, ‘मे आई कम इन सर?’ मसर्रत साहब का मुँह फटा-का-फटा रह गया। उनके दिमाग में न जाने क्या-क्या कौंध गया। पन्नालाल का मन हुआ कि वह जोर से खिलखिलाए, पर अपनी हँसी दबाकर वह खान साहब की तरफ आदेश के लिए देखने लगा।

खान साहब ने पदक बाबू से पूछा, ‘फरमाइए! क्या बात है?’ हालाँकि वे जानते थे कि बात क्या हो सकती है।

पदक बाबू ने पहले कुरसी पर खुद को बिलकुल सीधा किया, रीढ़ की कमान को ताना और बोले, ‘मिस्टर खान! अहं ब्रह्मास्मि। मैं कल विवेकानन्द था, आज वशिष्ठ नारायण सिंह हूँ, कल सुकरात होऊँगा और फिर अरस्तू। कहिए, आपकी तत्काल जिज्ञासा क्या है? आपकी जन्म-जन्मान्तरों की कोई तपस्या फलीभूत हुई है जो मुझ जैसा अप्रतिम ऋषि, मार्ग प्रदर्शन और आशीर्वचन के लिए आपको उपलब्ध है। मैं इस विश्व को प्रभु का दिया हुआ पदक हूँ। स्पीक ऑन, बोलो, मैं सन्नद्ध हूँ, उपलब्ध हूँ।’

मसर्रत साहब ने अपनी दोनों कुहनियाँ मेज पर टिकाकर ‘हे भगवान!!’ की सिसकारी भरते हुए अपना माथा दोनों हथेलियों में दबाकर अन्ततः मेज पर रख दिया। पन्नालाल के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। मसर्रत खान सहज होते, तब तक पदक बाबू फिर बोले, ‘इतनी ग्लानियुक्त मानसिकता से आप प्रधानाध्यापकी किस तरह कर सकेंगे, मिस्टर खान? वैसे मैं प्रकटतः यह कहने आया हूँ कि इस विद्यालय का प्रधानाध्यापक मुझे होना था और आपको होना था मेरा सहायक। मेरा सहायक क्या, आपको तो पन्नालाल का सहायक होना था। पर मैं एक ‘अस्तु’ लगाकर आपसे कहना चाहता हूँ कि आप अपनी समस्याओं का समाधान मुझसे प्राप्त कर सकते हैं, अहं ब्रह्मास्मि। यदा-यदा हि धर्मस्य.....’

इससे आगे मसर्रत खान के लिए सुनना कठिन था। उनका मन हुआ कि चीखें और पन्नालाल से कह कर पदक बाबू को अपने कक्ष से बाहर फिंकवा दें। पर तभी परिवेश में बढ़ती हुई धर्मान्धता का जहर उनके आड़े आ गया। वे सोच बैठे कि बिना किसी बात के गाँव में न जाने कैसा तनाव हो जाएगा। लोग अपने मतलब निकालेंगे और.....।

पदक बाबू उठे और अभय मुद्रा में हाथ फैलाकर बुद्ध की मुद्रा में तर्जनी को अंगूठे से मिलाकर वर्तुल बना कर बोले, आपकी सुविधा के लिए मैं आपके कक्ष से बहिर्गमन करता हूँ। हमारी याद जब आए तो आँसू बहा लेना। विदा दो मेरे महबूब! मैं जा रहा हूँ। कल पुनः प्रविष्ट होकर आपका स्वास्थ्य परीक्षण करूँगा। ओ. के.। पुनरपि, पुनरपि, थैंक्यू मिस्टर ग्लॉड!’ और पदक बाबू कमरे से बाहर हो गए।

मसर्रत खान कातर दृष्टि से सामने लगा अपने प्रदेश का नक्शा देखते रह गए। पन्नालाल फर्नीचर की धूल पोंछने का बहाना करके दीवार की तरफ मुह करके हँसता रहा। तटस्थ होने की कोशिश में उसे कुछ नहीं सूझा तो मसर्रत साहब से पूछ बैठा, ‘किसी को बुलाऊँ, सर?’

मसर्रत साहब खीझकर बोले, ‘अब और किसको बुलवाना चाहता है? साल भर तक अब इस कमरे में किसी के आने की जरूरत नहीं है। जो भी आए, उसे धक्के.....।’  कहकर अपनी कुरसी से वे खड़े हुए। गाँधीजी के फोटो को देखकर उन्होंने तौबा की मुद्रा में दोनों कान पकड़े। अपने ही गालों पर दो तमाचे जड़े, बालों को नोचा, दीवारों को सुनाकर बोले, ‘या अल्लाह! तौबा! लानत है इस नौकरी पर। कैसे-कैसे जाहिल मेरी किस्मत में लिख दिए हैं तूने?’ और फिर धम्म से अपनी कुरसी में धँस गए।

वे इतने हताश हो चुके थे कि चपरासी पन्नालाल से ही कह बैठे, ‘तबादलों पर वापस बेन लगने वाला है, सरकार में किसी की सुनी जाती हो तो भाग-दौड़ करके इस पागल को यहाँ से कहीं बदलवाओ। पचास बार लिख चुका हूँ कि यह आदमी पागल हो चुका है। इससे मेरी जान छुड़ाओ, पर कोई सुनता ही नहीं है। अपनी रंगबाजी के लिए दूसरे मास्टर आए दिन इस पागल को मेरे कमरे में दाखिल कर देते हैं । कुछ कमजर्फ चाहते हैं कि इस बस्ती में किसी-न-किसी तौर पर हिन्दू-मुस्लिमवाला कमीना फसाद हो जाए। पन्नालाल! तुम मेरी क्या मदद कर सकते हो? कुछ करो, भाई!’

पन्नालाल बेचारा क्या करता? वह अपनी हस्ती को बढ़ता देखकर पल-दो पल के लिए फूलकर कुप्पा हो लेता। यह वैसा ही अवसर था।

पदक बाबू को लेकर मसर्रत खान साहब के सामने नई-नई मुसीबतें पेश आने लगीं। एक तो पदक बाबू इस बस्ती और शाला में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे आदमी। तीन-चार डिग्रियाँ उनके पास अलग-अलग विश्वविद्यालयों की, फिर वे खुद भी नहीं जानते हैं कि किस क्षण कौन सी भाषा बोलने लग जाएँगे, भाषाओं के विविध योग-प्रयोग करें, वहाँ तक तो ठीक है, पर न जाने कहाँ-कहाँ के श्लोक, कविताएँ, वाक्यांश, सूत्र संगत-असंगत न जाने कहाँ से कहाँ फिट कर दें, यह उनको भी पता नहीं रहता था। अर्थ के अनर्थ हो जाते और गलियों में झगड़े होते-होते समझदार लोगों के बीच-बचाव के कारण रह जाते।

रोज सवेरे स्नान- ध्यान तिलक-चन्दन के बाद पदक बाबू अपनी कपिला गाय को लेकर चराई के लिए चौंपे में छोड़ने जाते। अपने घर से गाँव के अन्तिम छोर तक चलते-चलते वे अपनी गाय से हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, गुजराती, मराठी, न जाने कौन-कौन सी भाषाओं में बातें करते। सामान्य लोगों का अनुमान था कि रात में सोते वक्त से लेकर प्रभात में उठते वक्त तक, और खासकर स्नान-ध्यान के समय तक पदक बाबू सामान्य ही रहते थे, पर ज्यों ही अपनी धोती पहनते, कुरता डालते, उसके ऊपर जैकेट पहनते और फिर नुकीली टोपी लगाकर आईने के सामने खड़े होते वैसे ही उनके भीतर विद्या का उफान उफन पड़ता। वे वहीं से बुदबुदाना, फिर बड़बड़ाना और आखिरकार ऊल-जुलूल बोलना शुरु कर देते थे। रास्ते भर मुहल्लों के लोग उनकी इस वाणी का आनन्द उठाते। ज्यों ही पता चलता कि पदक बाबू गाय लेकर आ रहे हैं त्यों ही मनचले लोग अपना काम छोड़-छाड़कर चबूतरियों पर आ जाते और कान लगाकर सुनते कि पदक बाबू गाय से क्या बातें कर रहे हैं। पदक बाबू गाय के पीछे से एकाएक उछलकर सामने आ जाते। गाय ठिठककर खड़ी हो जाती। वे घुटनों के बल गाय के सामने बैठ जाते, फिर प्रार्थना के स्वर में कहते, ‘हैलो मदर काऊ! आप सृष्टि-माता हैं। मैं आपका वत्स हूँ। सन्ध्या को यथासमय लौटने की कृपा करना। दिन भर कोई आवारागर्दी मत करना, अन्यथा आपकी सन्तति का अपयश होगा।’ और गाने लग जाते, ‘जाओ, पर सन्ध्या के संग लौट आना तुम, चाँद की किरन निहारते न बीत जाए रात’। फिर कहते, ‘ओ होली मदर! यू आर लवली। हूँ तमारे माटे प्रणय निवेदन करूँ छुँ, सेज की शिकन सँवारते न बीत जाए रात। लौट आओ माँग के सिन्दूर की सौगन्ध तुमको।’

लड़के-बच्चे खिलखिलाते, बहुएँ लम्बे घूँघटों को छोटा करतीं और बेतहाशा हँस पड़तीं। पदक बाबू की भाषा न गाय समझती, न बहू-बेटियाँ; पर एक दृश्य तो वैसा बन ही जाता था कि गलियों का सवेरा सही हो जाए।

एक दिन तो गजब हो गया। पदक बाबू स्कूल जाने के लिए घर से निकले, मुख्य मार्ग से गली में मुड़े। मन-ही-मन बुदबुदाते जा रहे थे कि सामने से पानी भरे बेवड़े माथों पर लिये घूँघटवाली तीन-चार बहुएँ उन्हें आती दिखाई दीं। पदक बाबू पर अपनी विद्या का दौरा पड़ गया। वह बीच रास्ते में घुटनों के बल उनके सामने बैठ गए। फिर हाथ पसारकर थिएटर की मुद्रा में शुरु हो गए, ‘किस पिपासु की पिपासा शान्त करने के लिए यह उपक्रम कर रही हो, सुभगे! तृषित को पहचानो। वह आपके समक्ष याचक मुद्रा में प्रस्तुत है।’ और दोनों हाथों की ओक माँडकर पानी पिलाने का आग्रह करने लगे।

बेचारी लड़कियों के होश उड़ गए, लाज-मर्यादा भूलकर एक चिल्लाई, ‘कमीने! बेवड़ा जो माथे पर मार दिया तो भेजा बाहर आ जाएगा।’ पर बात इतनी ही नहीं रही, अनायास बैठे-ही-बैठे पदक बाबू की नजर पड़ गई गली के मन्दिर के शिखर पर, जहाँ शिखर कलश के पास ही ध्वज-स्तम्भ पर एक मोर पक्षी बैठा-बैठा कूक रहा था। पनिहारिन रास्ता बनाएँ तब तक पदक बाबू ने अपने जीवन का अभी तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर दिया। उन्होंने आव देखा न ताव, अपनी धोती की काँछ पीछे से खोली। खुली काँछ को पीठ पर पूरा-का-पूरा सिर से ऊपर तक खींचा, धोती के उस पल्लू को दोनों हाथों से पीठ पर चौड़ाई में फैलाया और नर्तन करने लग गए घरों से पचासों नर-नारी निकलकर गली में एकत्र हो गए। बच्चे किलकारी भरकर तालियाँ बजा रहे थे। पदक बाबू बोले, “दूर हटो, मेरा मन-मयूर नाच रहा है। मैं नर्तन कर रहा हूँ। आषाढ़स्य प्रथम दिवसे-‘मेघदूतम्’ में यही हुआ था। मेरा यह कटिवस्त्र मयूर पंखों का पुंज है, राशि है। मयूर पंख फैल गए हैं।” बड़ी मुश्किल से सयानों ने उन्हें फिर से धोती पहनाई और स्कूल की तरफ चलता किया।

बात मसर्रत साहब तक भी पहुँची। उन्होंने लिपिक से कहकर तत्काल सारा मामला लिखकर वरिष्ठ कार्यालय तक लिखकर भेजा। पर दोपहर ढलते-ढलते मसर्रत साहब के सामने गाँव के नवयुवकों का एक शिष्टमण्डल आ धमका। वातावरण से डरे-सहमे मसर्रत साहब खौफ खा गए कि अब होगी तोड़-फोड़। पर उनके दीदे फटे रह गए, जब उस शिष्टमण्डल में शामिल कई नवयुवकों ने उनसे निवेदन किया, ‘मसर्रत साहब! कुछ ऐसी व्यवस्था कर दें कि पदक बाबू अपनी गाय छोड़ते समय और स्कूल आते-जाते समय प्रतिदिन एक ही गली से नहीं निकलें। वे रोज अलग-अलग गलियों से गुजरें, ताकि उनकी प्रबल मेधा का प्रदर्शन सारे गाँव में समान रूप से देखने को मिल सके।’

यह माँग सुनते ही मसर्रत खान बदहवास होकर खड़े हो गए। उन्होंने गाँधी बाबा की तसवीर के सामने हाथ जोड़े, अपने दोनों कान पकड़े, गालों पर तमाचे मारे और चीखे, ‘या अल्लाह! तौबा, रहम कर, हे भगवान। तुम कहीं हो भी या......। क्या हो गया है इस गाँव को?’ और सारा शिष्टमण्डल खिलखिलाता-हुआ बाहर निकल गया।

शिष्टाचार के नाते मसर्रत साहब उस शिष्टमण्डल को विदाई देने पीछे-के-पीछे बाहर आए तो देखते क्या हैं कि अपने बस्ते ले-लेकर बच्चे घर की ओर भाग रहे है। शोर उठ रहा था, ‘छुट्टी! छुट्टी!!’ वे लपककर बच्चों के आगे खड़े हो गए। उनको रोका। पूछा, ‘कहाँ हुई छुट्टी? चलो जाओ, अपनी क्लास में बैठो।’ बात की तह में जाने पर पता चला कि पदक बाबू ने क्लास में जाते ही बच्चों से कहा, “मेरे प्रिय बटुकों! हे मेरे शिष्यवृन्द! उच्चारित करो कि तुम आज मुझसे क्या पढ़ना चाहते हो? आज मैं तुम्हें धन्य कर दूँगा, निहाल कर दूँगा, मालामाल कर दूँगा। मैं कुबेर हूँ, मैं वृहस्पति हूँ, मैं गरुड़ हूँ, मैं परमहंस हूँ। ओ मानस के राजहंस! तुम भूल न जाना आने को। इस महान् विश्व में आज के ही दिन क्रूड आइल का आविष्कार हुआ था। जाओ सभी, ‘क्रूड आइल डे’ मनाओ! जाओ! छुट्टी।” और बच्चे ‘क्रूड आइल डे’ मनाने को भाग निकले।

थक-हारकर आखिर एक दिन मसर्रत खान ने गाँव के समझदार लोगों की बैठक बुलाई। उनसे निवेदन किया कि ‘बदनामी आपके गाँव की हो रही आपसे कुछ हो सकता हो तो आप करें, वरना आप लोग तुझे एक ज्ञापन दे दें ताकि मैं सारा मामला पुलिस को देकर पदक महाशय को मेडिकल के लिए भिजवा दूँ और चाहे इन्दौर बाण गंगा, चाहे जयपुर, चाहे बरेली चाहे आगरा, कहीं-न-कहीं इनका इलाज हो सके। भविष्य बिगड़ रहा है तो आपके बच्चों का बिगड़ रहा है। मैं सीधे-सीधे लिख दूँगा तो आप कहेंगे कि खान साहब से एक पागल भी नहीं पचा।’

बड़ी अवहेलना के भाव से गाँववालों ने कहा, ‘वो तो ठीक है, सर! पर पड़ा रहने दो। एक पागल के कारण गाँव में रौनक है। आपका क्या लेता है? क्यों परेशानी में पड़ते हैं आप? छोड़िए भी!’

मसर्रत खान के लिए यह उदासीनता नया झटका था। वे हतप्रभ थे। क्या हो गया है इस गाँव को? न अपने बच्चों की चिन्ता, न अपनी बहू-बेटियों की परवाह। एक पूरा गाँव तबाह हो रहा है और यारों को मनोरंजन की पड़ी है। वे बुरी तरह खीझ गए। वक्त की नजाकत को देखते हुए बोले कुछ नहीं और यह विचार-बैठक उठने को ही थी कि पदक बाबू आ धमके।

आते ही उन्होंने समवेत बैठक को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘इफ यू मीट ए फेअरी, डोण्ट रन अवे। शी विल नॉट वाण्ट टू हर्ट यू। शी विल वाण्ट टू ओनली प्ले विद यू।’ फिर पूछा, ‘समझे? नहीं समझे न? इस महान् कविता का अर्थ है-अगर कहीं तुम्हारी भेंट किसी परी से हो जाए तो उससे दूर मत भागो। डोण्ट रन अवे। वो तुम्हें कष्ट नहीं देना चाहेगी। वह केवल तुम्हारे साथ। खेलना चाहेगी।’ और आँखें मूँदकर बोलते चले गए, ‘मैं एक परी हूँ। मुझसे दूर मत भागो, प्यारे बच्चों! मैं तुम्हारे साथ खेलना चाहती हूँ।’ कहकर पदक बाबू फटाक से मुड़े और ‘ओ. के., टा-टा’ कहते हुए परिदृश्य से दूर हो गए।

मसर्रत साहब के लिए यह पराकाष्ठा थी। उनका बस चलता तो वे चीख-चीखकर रोते। पर हालात की मजबूरी थी। तब भी उनकी आँखों में आँसू छलछला आए। विचार-सभा कनखियों से एक-दूसरे को देखती हुआ खिसक ली। पर इस सबका चरम यह रहा कि तबादलों पर बेन लगने से पहले एक दिन की डाक में लिपिक ने जब डाक खोलकर मर्सरत खान साहब के सामने फैलाई तो वे पचास-साठ बार अपनी आँखों को मसलकर एक कागज को देखते रह गए। सचमुच यह तबादला आदेश ही था। विभाग ने तो उनकी नहीं सुनी, पर शायद भगवान ने उनकी सुन ली थी। यह तबादला आदेश खुद मसर्रत खान साहब के लिए था। इस गाँव से उनको कहीं दूसरे मिडिल स्कूल में रख दिया गया था।

उन्होंने गाँधीजी के फोटो को फिर से देखा। एक हलकी सी मुसकान उनके चेहरे पर खिल आई। उन्होंने पन्नालाल से कहा, ‘जाओ पन्नालाल! पदक बाबू को बुला लाओ।’

पन्नालाल चौंका, ‘क्या हो गया, सर? कोई खास बात?’

वे हँसे। बोले, ‘जाओ, जितना कहें उतना करो।’

पदक बाबू कमरे में आए। मसर्रत खान ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया, सामनेवाली कुरसी दी। बोले, ‘पदक बाबू! पहले मैं बोल लूँ, फिर आप बोलना। सरकार ने ऐसी व्यवस्था कर दी है कि मैं अब आपके सत्संग से वंचित रहूँगा। मेरा तबादला कर दिया गया है। इस स्कूल को आप सँभालना। सीनियरिटी के लिहाज से इस अमले में मेरे बाद अब आप ही यहाँ का चार्ज लेंगे।’ और लिपिक को देखकर बोले, ‘बड़े बाबू! चार्ज देने की सारी तैयारी कर लो।’

पदक बाबू न पहले कुछ समझते थे, न अब कुछ समझे । अपनी रौ में कहने लगे, ‘हे पार्थ! इस तरह शस्त्र मत फेंक। तू यह धर्मयुद्ध लड़। यह मेरा आदेश है।’ और बोले, ‘माननीय प्रधानाध्यापक महोदय! तब कृष्ण ने अर्जुन से कहा-त्वया चा पि मया चा पि। आप इसका मतलब समझे? जब भगवान कृष्ण ने देखा कि अर्जुन पर मानसिक कायरता का दौरा पड़ गय्ा है तो उन्होंने अर्जुन को ढाढस देते हुए कहा-‘हे अर्जुन! त्वया चा पि अर्थात् तू भी चाय पी ले और मया चा पि, मैं भी चाय पी लूँ। यानी खूब सोच ले, खूब समझ ले, चाहे तो कुछ उत्तेजक औषधि ले ले, पर यह युद्ध तो तुझे करना ही पड़ेगा। तू लड़, उठ, खड़ा हो जा।

मसर्रत खान ने दाँत पीसे, मन-ही-मन कुछ बुदबुदाए, फिर बोले, ‘मिस्टर पदक! तुम्हारे कारण शास्त्रों का मखौल हो रहा है। तुम्हारे कारण पीढ़ियाँ बरबाद हो रही हैं। तुम्हारे कारण सरकार, शासन, यह गाँव, बस्ती सब-के-सब बदनाम हो रहे हैं। तुम अपना उपचार क्यों नहीं करवाते? तुम्हारे घरवाले तुम्हें किस तरह बरदाश्त कर रहे हैं? मेस बस चलता तो....’

पदक बाबू एक क्षण भी विचलित नहीं हुए। कड़क आवाज में बोले, “मिस्टर खान! मुझसे बराबरी का व्यवहार करो। महाराजाधिराज पुरु की जगह मैं हूँ। आप इस समय वक्त के सिकन्दर हैं। आप भी हेडमास्टर और अब मैं भी हेडमास्टर।’ और उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के गाना शुरु कर दिया, ’ओ जानेवाले, हो सके तो लौट के आना।’ फिर कहा, ‘यह संसार असार है, बच्चा! न यहाँ कोई आता है, न यहाँ से कोई जाता है। सब लीलाधर की लीला है।’

पन्नालाल आज परेशान था। जब तक नया हेडमास्टर नहीं आए तब तक उसे पदक बाबू के मातहत ही काम करना है, यह सोचकर वह चुपचाप खड़ा रहा। पदक बाबू ने कमरे से निकलने के पहले आज की तारीख में

अपना अन्तिम वाक्य कहा, ‘पन्नालाल! राम झरोखे बैठकर सबका मुजरा लेत, जैसी जाकी चाकरी तैसा ताको देत।’ और मसर्रत खान की तरफ देखकर कह बैठे, ‘जाओ रानी! याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, तेरा यह बलिदान लाएगा स्वतन्त्रता अविनाशी।’

पदक बाबू कमरे से बाहर निकल रहे हैं। मसर्रत खान कुरसी छोड़ने के लिए कुरसी पर बैठ रहे हैं और पन्नालाल कभी इधर देख रहा है तो कभी उधर। 

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‘बिजूका बाबू’ की बीसवी कहानी ‘छात्र’ यहाँ पढिए।  


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 

 


 

 

 

 

 

 


  


 


 

 

  

 

  

 


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