श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’
की छत्तीसवी कविता
‘कोई तो समझे’
की छत्तीसवी कविता
यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को
समर्पित किया गया है।
मेघ मल्हारें बन्द करो
ऋतु-चक्र बराबर चला नहीं
अंकुर को अम्बर मिला नहीं
सपना फूला या फला नहीं
दुर्भाग्य देश का टला नहीं
लगता है सपना टूट गया
इन शोलों और शरारों का
ये मेघ मल्हारें बन्द करो।
मौसम है रक्त मल्हारों का।।
जो नहीं किया है अब तक, वो कर दिखलाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको, अब खून बहाना होगा।।
सूरज जब स्याही उगले और, चन्दा उगने काजल
हर तारा हो आवारा, हर दीप-शिखा हो पागल
ऊषा जब संयम खो दे और, किरनें सँवला जायें
जब सारी सूरजमुखियाँ, अकुला कर कुम्हला जायें
जब शर्त बदे अँधियारा, साँसों में समा जाने की
तो साँसों को सुलगा कर, उजियारा लाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
कजरारे मेघ हटाओ, रतनारे मेघ बुलाओ
अब जल-तरंग को छोड़ो, और ज्वाल-तरंग बजाओ
ओ कोमल सुर के गायक, अब तीव्र स्वरों में गाओ
अवरोह अभी तक गाया, अब आरोहों पर आओ
हर सुर हो जाय बजारू और आरतियाँ ही गावे
(तो) बेशक वर्जित हो लेकिन धैवत धधकाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
कुछ लोग क्रान्ति को बन्ध्या, कुछ बाँदी मान रहे हैं
कुछ रक्तपात की अन्धी, आजादी मान रहे हैं
यह शैली है जीवन की, यह चपला का चिन्तन है
यह इज्जत है यौवन की, यह शोणित का दर्शन है
जब सारा गणित गलत हो, हर समीकरण विचलित हो
तो अग्नि गणित का अभिनव अभियान चलाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
यूँ ऊसर में क्या मरना, यूँ दलदल में क्या जीना
यूँ भूख-गरीबी सहकर, क्या शोषण का विष पीना
ओ सोये ज्वालामुखियों! ओ बुझते हुए अँगारों!
ओ ठण्डे-ठार अलावों! ओ आहत क्रान्ति-कुमारों!
जब आग, आग को तरसे और आश्वासन ही बरसे
(तो) बेशक अपना ही घर हो, लावा बरसाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
आसन्न क्रान्ति के रोड़े, हट जायें बहुत अच्छा है
ये पीढ़ीखोर कुहासे, छँट जायें बहुत अच्छा है
कुछ पाषाण-कलेजे, फट जायें बहुत अच्छा है
दस-पाँच करोड़ निकम्मे, कट जायें बहुत अच्छा है
जब कुर्सी करे दलाली, हो जाय छिनाल व्यवस्था
तो सारे वेश्यालय को, फिर देश बनाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
-----
संग्रह के ब्यौरे
कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५ -१०-२०२१) को
'जन नायक श्री राम'(चर्चा अंक-४२१८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चयन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteहमेशा की तरह बहुत ही उम्दा और शानदार
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढा।
Deleteवाह!बहुत खूब 👌साँझा करने के लिए धन्यवाद .
ReplyDeleteयूँ ऊसर में क्या मरना, यूँ दलदल में क्या जीना
ReplyDeleteयूँ भूख-गरीबी सहकर, क्या शोषण का विष पीना
ओ सोये ज्वालामुखियों! ओ बुझते हुए अँगारों!
ओ ठण्डे-ठार अलावों! ओ आहत क्रान्ति-कुमारों!
जब आग, आग को तरसे और आश्वासन ही बरसे
(तो) बेशक अपना ही घर हो, लावा बरसाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
रग-रग में जोश जगाती बहुत ही प्रेरक लाजवाब कृति
वाह!!!!
🙏🙏🙏🙏🙏
ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढा।
Delete