एक गीत ज्वाला का



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की पैंतीसवी कविता  

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


एक गीत ज्वाला का

बीज हुआ तैयार फसल कल, अनुशासन की आयेगी
शायद अब भँवरों की पीढ़ी, पूरे सुर में गायेगी
यह सच है सपनों का सिंचन, खून पसीना करता है
यह सच है शीतल बादल, मिट्टी को मीना करता है
पर आग और पानीवाला ही, बादल बादल कहलाता है
महाप्रलय और महासृजन का ऐसा ही कुछ नाता है
तो
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी
मर नहीं जाये पानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला
जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

यह कैसी चुप्पी है बोलो, यह कैसा सन्नाटा है
अन्तर में सरगम है लेकिन, कण्ठ नहीं गा पाता है
कब तुम तोड़ोगे यह चुप्पी, कब तुम खुलकर गाओगे
कब तक इन ज्वालामुखियों को, अन्तर में हुलराओगे
कब तक तुम स्वीकार करोगे, मौसम की मनमानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

तुम ही तो लाये हो नवयुग, तुम ही इसे सम्हालोगे
है मुझको विश्वास निरन्तर, इसको और उजालोगे
(पर) याद रखो शोणित का लावा, जब ठण्डा पड़ जाता है
(तो) जीवन का सब दर्प हवा में, बन कपूर उड़ जाता है
पौरुष रहे प्रचण्ड तुम्हारा, ऊष्मा रहे सयानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

पश्चिम का कायर बेटा ही, अँधियारा कहलाता है
जो उससे डरता है उसको, ज्यादा और डराता है
ओ प्राची के किरन-कुमारों, अँधियारे से नहीं डरो
आत्मघात कर लेगा कल यह, मत ऐसी उम्मीद करो
तुम सुलगो तो सुलगे इसकी, नालायक रजधानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

बाग हमारा, फूल हमारे, हम ही इसके माली हैं
(पर) कोयल भी चुप, कौए भी चुप, यह कैसी रखवाली है
काँटों के नाखून अभी भी, पैने हैं और पूरे हैं
फागुन की राहों में अब भी, हँसते लाख धतूरे हैं
सम्भवतः कुछ और लगेगी फूलों की कुर्बानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

रहे खौलता खून निरन्तर, शिरा-शिरा में आग रहे
साँसों में संकल्प घुले हों, आँखों में सौभाग्य रहे
युद्ध तुम्हारा चले बराबर, चुप्पी और अँधियारों से
इससे ज्यादा और कहूँ क्या, इन गुमसुम अंगारों से
जीवन का मतलब है जलना, बुझना है बेईमानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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