अन्तराल
यों तो भैया के पत्र प्रायः आया करते थे और अपनी आदत के मुताबिक मैं उनके हर पत्र का उत्तर भी देता रहता था, पर इधर उनके पत्र कुछ अधिक मनुहार भरे आने लगे। हालाँकि मैंने भैया से कभी कहा नहीं पर मेरा मन करता है कि मैं उनसे किसी अवसर पर खुलकर कह दूँगा कि आप मुझे खत लिखना ही, चाहते हैं तो मेहरबानी करके ये नंगें पोस्टकार्ड न लिखा करें। अगर एक रुपए का लिफाफा नहीं मिलता हो तो पचहत्तर पैसेवाला अन्तर्देशीय पत्र ही, सही, पर लिखें मुझे बन्द लिफाफे में। अपने नाम पर आया हुआ पत्र मैं खुद खोलकर पढ़ूँ तो मुझे ज्यादा अच्छा लगता है। लगता है कि यह खत मेरा अपना है और निजी है। पर भैया हैं कि इस बात को समझते ही नहीं। जब देखो तब बस खुला और नंगा पोस्टकार्ड। केवल पन्द्रह पैसे का एक पोस्टकार्ड और उसे भी चित्राम् की तरह लिख-लिखकर बिलकुल ऐसा कर देंगे कि चारों तरफ घुमा-फिराकर पढ़ो, तब कहीं जाकर सारी बात समझ में आए। सच बात तो यह है कि खुला पोस्टकार्ड मुझे पोस्टमैन द्वारा पढ़ लिया गया, बासी मालूम देता है। पर मैं अपने संकोच और भैया के लिहाज के मारे कभी यह बात कह नहीं पाया।
आज फिर भैया का खुला पोस्टकार्ड मिला और मैं हमेशा की तरह झल्ला गया। उन्होंने लिखा था, ‘इस बार तुम्हें आए लम्बा समय बीत गया है। इतना अन्तराल अच्छा नहीं लगता। अपने काम से आते-जाते रहो। अगर आने का समय नहीं मिल पा रहा हो तो एकाध बार यों ही मिलने के लिए ही जाओ। तुम्हें देखे कितना समय हो गया! अगर आओगे तो देखोगे कि यहाँ भी कितना कुछ बदल गया है।’ बस, एक-दो वाक्य और इसी आशय के थे। पोस्टकार्ड पर लिखो भी तो कितना। भैया का उलाहना बिलकुल सच था। एक समय. था, जब मैं अपने काम से आते-जाते भैया के शहर पर अपनी रेल यात्रा को विराम दे देता था और दो-चार घण्टे ठहरकर दूसरी ट्रेन पकड़ लिया करता था। उनके साथ कुछ घर-परिवार की बात कर लेता। और भाभी के हाथ का हलका-फुलका खाना खा लेता था। कभी चाय-पकौड़े तो कभी खारा-नमकीन, कभी शक्करपारे तो कभी आपड़-पापड़। भाभी का अन्नपूर्णा स्वरूप हमेशा मुझे एक चुम्बक की तरह भैया के आस-पास चिपकाए रखता। वे अपना लिखना-पढ़ना करते रहते और हम लोग मिल-जुलकर यहाँ-वहाँ की बातें करते। मेरे अगले आगमन का गणित भिड़ाते। पर वाकई इस बार लम्बा अस्सा हो गया था। मैं भैया के शहर की तरफ से निकला ही नहीं। मन-ही-मन में सोचता रहा कि भैया को खत का उत्तर दूँ या एकाएक उनके सामने जाकर खड़ा हो जाऊँ और सारे घर को चौंका दूँ। एक सरप्राइज दे दूँ।
इसी ऊहापोह में तीन-चार दिन बीत गए और एक दिन मैं सन्न रह गया, जब डाकिया मुझे एक अन्तर्देशीय पत्र थमाकर चलता बना। बन्द पत्र मुझे अच्छे लगते हैं। उस पत्र को खोलने से पहले मैंने चारों ओर से देखा। पहले उसे दोनों छोरों से दबाव देकर फुलाया और भीतर के समाचारों की टोह लेने की कोशिश की, फिर उसे खोला। सर्वथा अपरिचित लिपि थी। पत्र था भैया के ही अपने घर से। लिखनेवाली पीनू थी। एक तरह से यह पीनू का मेरे नाम पहला खत था। पढ़ते-पढ़ते मैं चिन्तित हो गया। बिना किसी लाग-लपेट के पीनू ने लिखा था कि ‘अंकल! अब मैं आपको कभी पत्र नहीं लिखूँगी। लिख दिया सो लिख दिया। बस, पापा और मम्मी रोज दिन में एकाध बार आपकी चर्चा बराबर करते हैं। उन्हें इस बात की पीड़ा है कि आप इतने बरसों से उनकी सुध लेने नहीं आए। आपको पता है कि पापा रिटायर हो गए हैं। वे लिखने-पढ़नेवाले व्यक्ति हैं, सो समय काटना उनके लिए बोझ नहीं है, पर आखिर कोई किताबों में भी कब तक माथा दिए बैठा रहे! फिर उनके पाँव में जो पुराना दर्द था, वह शिद्दत से गम्भीर होता चला जा रहा है। डॉक्ट थक गए हैं, इलाज हार गया है। दवाइयाँ उलट-पलटकर देख-दाख लीं। लगता है, पापा खीझ गए हैं इस बीमारी से। आपको पता है ही कि अनुराग भैया के जाने से मम्मी कितनी टूट चुकी हैं। उसकी मौत ने हम सभी को झकझोर दिया था। मामला दुनियादारी का था, सो पापा-मम्मी ने बड़ी दीदी की शादी करके अपना ऋण चुकाया। फिर आशु की शादी हुई। वह भाभी को लेकर अपनी नौकरी करता-कराता आज इस शहर तो कल उस शहर बराबर घूम रहा है। घर में अब अकेली मैं हूँ। पापा-मम्मी समझते हैं कि मैं उनके बीच होनेवाली बातचीत से अनभिज्ञ हूँ। अंकल! आखिर मैं एम. ए. करके अपना जॉब कर रही हूँ। बेटी भी उन्हीं की हूँ। मुझे मालूम है कि उनकी चिन्ता के केन्द्र में कौन है। आज उनकी सारी चिन्ताओं का कारण बस मैं हूँ। आपकी इस भतीजी के कारण पापा रात-दिन घुलते जा रहे हैं। मम्मी परेशान होकर चिन्ताओं में करीब-करीब बुझ-सी गई है। पापा-मम्मी के आशीर्वाद का दिया इस घर में सब कुछ है, पर एक बार आप आ जाओ और पापा-मम्मी से मिल जाओ तो शायद उनका मन हलका हो जाए। वे आपसे कुछ-न-कुछ कहना चाहते हैं। अपना तो आपके पास यह फर्स्ट और लास्ट खत है। आप मुझे भी देखेंगे तो पहचान नहीं पाएँगे। मैं भी पूरा पहाड़ हो गई हूँ। आप कोई अवाब-जवाब मत दीजिए। बस, आ जाइए।’ और इस इबारत के नीचे पीनू ने अपना गहरा दस्तखत कर दिया था। मुझे-लगा कि लड़की ठीक ही लिख रही है।
और मैं भैया को सरप्राइज देने के लिहाज से, बिना किसी सूचना के चल पड़ा। भैया के शहर जाकर स्टेशन से मैंने ऑटो रिक्शा किया। रात गहरा चुकी थी। ऑटोवाले ने भैया के घर के ठीक सामने ऑटो रोका। उसने ऑटो का इंजन बन्द किया। और मैं बिना बोले ही जेब से पर्स निकालने लगा। भैया के कमरे की बत्ती जल रही थी। वे जाग रहे थे। शायद लिख या पढ़ रहे होंगे। पर मैं भीतर-ही-भीतर बह निकला, जब मैंने भैया की आवाज सुनी। वे भाभी से कह रहे थे, ‘प्रभु! देख तो, शायद ननका आ गया है। वह ऑटोेवाले को पैसा नहीं दे दे। गैलरी में से आवाज लगाकर उसे रोक और किराया चुका आ।’
और भाभी सचमुच गैलरी में आकर खड़ी हो गई। उस झुटपुट अँधेरे में मैं भाभी को देख तो नहीं पाया, पर ऑटेवाले को मैंने पैसा देकर फौरन रवाना कर दिया। सीढ़ियाँ चढ़कर मैं ऊपर पहुँचा। भैया को प्रणाम किया, भाभी के चरण छुए। सच्चाई यह थी कि एकबारगी न मैं भैया को पहचान पाया, न भाभी को। कमरे का सन्नाटा भैया ने ही तोड़ा। सफर का हाल पूछा, मेरे अपने परिवार के समाचार लिये। सभी का कुशलक्षेम पूछ कर वे भाभी से मुखातिब हुए। भाभी के चेहरे पर मेरी नजर न पहले की तरह जमी, न टिकी। परिवार की समस्याओं और भैया की बीमारी की चिन्ताओं ने उनका रूप-रंग सारा-का-सारा तहस-नहस कर दिया था। सिवाय उनकी आवाज और उनके लहजे के भाभी के पास अपना पुराना कुछ भी नहीं बचा था। अनुराग के जाने के बाद से वे जिस तरह मन-ही-मन टूट रही थीं, बच्चों को जिस तरह तरस रही थीं, शायद उसी दीमक ने उनका सारा रूप-महल खोखला कर दिया था। न उनकी वह चुहल बची थी, न चलती बात को मुँह से छीनकर पहल करने की शक्ति ही शेष रही थी। भाभी वही भाभी थीं, पर भाभी शायद वह भाभी नहीं भी थीं। उनकी तरफ देखने की मेरी हिम्मत भी नहीं हो रही थी। वे थीं कि कभी मुझे देख रही थीं तो कभी भैया को। उनकी नजरों में तैरती कातरता आँखों की कोरों तक छलक-छलक आती थी। वे पल्लू को बार-बार आँखों तक ले जाती थीं और फिर उसे काठ की तरह सूखी अपनी अँगुलियों से लपेट-लपेटकर कसने की कोशिश कर रहीं थीं। तभी भैया को लगा कि मैं पीनू को आवाज लगाने वाला हूँ। भैया ने बहुत कोशिश की कि वे अपनी बरसों पुरानी हँसी को एक बार फिर सजीव करके वैसा ही हँसते हुए मुझे उत्तर दें, पर वह हँसी उनके चेहरे पर आ नहीं सकी। इतना ही बोले, ‘वह आशु और उसकी बिटिया से मिलने वहाँ गई है। बहू का मीठा सा पत्र आया था सो चली गई। परसों तक वापस आ जाएगी। उसके पास भी छुट्टियाँ कहाँ हैं?’ और भाभी को झिड़कते हुए बोले? ‘आज ननके की अन्नपूर्णा को क्या हो गया है? इतने लम्बे सफर से आया है, इसे कुछ खिलाओ-पिलाओ।’ मैंने देखा कि भाभी ने उसी ताजगी और ताकत से उठने की कोशिश की, पर वे वैसा कर नहीं सकीं। तब भी वे उठीं और रसोई में चली गईं।
कुल मिलाकर वातावरण इतना अनमना और बोझिल कि मेरे लिए सहन करना कठिन हो गया। न मैं भैया को टूटता देख सकता था, न भाभी को सूखते सह सकता था। पीनू थी नहीं। जब घर से चला था तो कहकर चला था कि कम-से-कम पूरा एक दिन भैया- भाभी के साथ गुजारने के बाद ही वापस होऊँगा। पर यहाँ तो हम तीनों लोग अलग-अलग साँसें ले रहे थे।
हममें से हर एक अपनी-अपनी साँस गिन रहा था और महसूस कर रहा था कि यह अमुक की साँस है। भाभी तले हुए पापड़ और चाय लेकर कमरे में आ गईं, तब तक भैया और मैं बिलकुल चुप बैठे साँसें गिनते रहे।
मैंने भाभी से पूछने की कोशिश की, ‘भाभी, क्या इस तरह अनुराग वापस आ जाएगा? क्या इन चिन्ताओं से भैया अच्छे हो जाएँगे? क्या बड़की अपने बाल-बच्चे लेकर यहाँ रहना शुरू कर देगी? क्या आशु और उसकी पत्नीं अपनी बेटी सहित अपनी नौकरी-चाकरी छोड़-छाड़कर आपके आँचल में लिपटने चले आएँगे? आखिर आप लोगों को हो क्या गया है? कल को पीनू के भी हाथ पीले होने ही हैं।’
और भाभी की बड़ी-बड़ी आँखों में समन्दर के समन्दर लहरा पड़े। भैया ने मेज पर पड़ा अखबार उठाया और उससे, अपना मुँह ढाँप लिया। कमरा एक बार फिर सन्नाटों से भर गया।
चाय समाप्त करते-करते मैंने भाभी से कहा, ‘आप भैया के इलाज की सोचिए। उपचार, आराम, पथ्य, ऑपरेशन जो कुछ भी करना-करवाना हो, उसका फैसला कीजिए। पीनू ने खुद अपने लिए कोई लड़का देख रखा हो तो उससे बात कीजिए और इन दीवारों पर चस्पा उदासी को नोच फेंकिए। क्या हाल बना रखा है आप लोगों ने! आपके बस का आप करें, मेरे लायक मुझे बता दें। अपने आपको इतना अकेला क्यों मान रहे हैं? आशु, बड़की, पीनू, मै हम सभी तो आपके हैं। आप लोगों ने दुनिया देखी है। अब क्या दुनियादारी भी हम लोग आपको सिखाएँगे? क्या लोग रिटायर नहीं होते हैं? क्या बेटियाँ बिदा नहीं होती हैं? क्या जवान बेटे अपना घर-संसार लेकर अपनी जिन्दगी नहीं जीते हैं? क्या लोग बीमार नहीं होते हैं? क्या कोई घर ऐसा भी है, जिसमें मौत का पग फेरा नहीं हुआ हो? आप दोनों एक-दूसरे को देख-देखकर रात-दिन इस तरह घुलते, जान देने पर क्यों तुले हुए हैं? आपके सामने कोई समस्या है कि नहीं?’
मैं और भी बोलने के लिए शब्द ढूँढ़ रहा था। जब तक भैया और भाभी का न जाने कितने दिनों, महीनों और बरसों का भावना-सागर आँखों से बह चुका था। एक पल को मुझे लगा कि दोनों की पुरानी सहजता लौटने लगी है।
भाभी ने कहा, ‘अच्छा हुआ भैया, जो आप आ गए। जो कुछ आपने कहा है, वही सब मैं भी रोज इनसे कहती रहती हूँ। पर न तो ये मेरी कुछ सुनते हैं, न अपना इलाज करवाते हैं। मैं भी यही कह रही हूँ कि डॉक्टरों ने जो राय दी है, उसपर चलो और अपनी सेहत को सँभालो। बेटे, बहू, लड़कियाँ, दामाद आते-जाते ही अच्छे लगते हैं। सभी का अपना-अपना राग है, अपना-अपना रौना है। वे सुखी रहें, हमें और क्या चाहिए?’
भाभी का वाक्य पूरा होता, तब तक भैया बोले, ‘और बताओ ननके! जो कुछ तुमने कहा है, क्या मैं वह सब इससे नहीं कहता होऊँगा? रोज कहता हूँ पर मेरी यहाँ सुनता कौन है! जिस अधिकार और अपनेपन से तूने यह झिड़की दी है, उसके लिए हम-दोनों तरस गए थे।’
‘मैं यहाँ आपको कोई झिड़की-विड़की देने नहीं आया हूँ। मुझे आधी रात के बादवाली गाड़ी से वापस जाना है। आप अपने-आपको सँभालिए और जीवन का जो कुछ परिपक्व और सर्वश्रेष्ठ आपके पास बचा है, उसे सँवारिए।’ मैंने दोनों से कहा।
‘जाने की बात अभी मत करो, भैया!’ भाभी बोली। परसों तक ठहर जाओ। आप भी देख तो लो कि पीनू की पसन्द आखिर कैसी है। आशु और पीनू परसों उस लड़के को साथ ही लेकर आ रहे हैं। आप जिस खत को पढ़कर यहाँ आए हैं, वह खत मैंने ही पीनू से लिखवाया था।’
भैया की आँखों में एकाएक कातरता का बादल छा गया। भाभी ने एक नजर मुझे देखा और फिर उनकी आँखें अनुराग की तसवीर पर टिक गईं।
मैं आज समझ पाया कि भैया और भाभी मुझमें अनुराग को पा रहे थे।
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‘बिजूका बाबू’ की ग्यारहवीं कहानी ‘सदुपयोग’ यहाँ पढ़िए।
‘बिजूका बाबू’ की तेरहवीं कहानी ‘जमाई राज’ यहाँ पढ़िए।
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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