‘बिजूका बाबू’ की ग्यारहवीं कहानी
यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।
सदुपयोग
आज फिर वही हुआ।
गए कई हफ्तों से यही होता आ रहा है और आज फिर वही हो गया। अवधलाल आया और ‘भास्कर’ का, केवल अखबारवाला हिस्सा चुपचाप दरवाजे की दरार के नीचे से सरका गया। इस अखबार का हर पाठक जानता है कि बुधवार के दिन ‘भास्कर’ अपने साथ ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट भी लाता है। परिशिष्ट भी बिना किसी मूल्य के। पर गए कई बुधवारों से अवधलाल यही कर रहा है। वह ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट रख लेता है। सिर्फ रोज जैसा अखबार सरकाकर चल देता है।
अवधलाल यानी अवधलाल मिश्रा। अवधलाल मिश्रा यानी बकौल अवधलाल, या तो अवधलाल मिसरा या फिर ए. एल. मिसरा। एक दिलचस्प नौजवान। उससे मिलो तो लगे कि किसी जिन्दा ही नहीं, जिन्दादिल आदमी से मिल रहे है। दिन में पता नहीं वह क्या काम करता है, पर बड़ी भोर से सुबह नौ बजे तक अपने शहर के कुछ विशेष इलाकों में तरह-तरह के दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ, उपन्यास, पुस्तकें आदि बाँटता-बेचता है। एक हँसमुख और करीब-करीब दिलफेंक फण्टूश लड़का। मन से नटखट, तन से गोरा-चिट्टा। तीखे नाक-नक्श और घुँघराले बालों को करीने से सजाए-सँवारे, चपल, चंचल, चतुर और दुनियादारी से चौकन्ना। सलीके की पतलून, पतलून में डाला हुआ साफ-सुथरा शर्ट। शर्ट के बढ़िया कॉलर। सामनेवाले दोनों बटन खुले रखकर अपनी सिन्दूरी छाती पर छुआ-छुई खेलते दस-पाँच बालों को दिखाता हुआ। गले में बारीक रुद्राक्ष की पतली धातु में गठी माला दूर से दिखाई दे, इस तरह पहनी हुई। कसे हुए पतले होंठों पर रचा हुआ सुहागपुरी पान और अल्हड़ चाल। ऐसा ही कुछ है अवधलाल। राजधानी के विधायक होस्टलों में अखबार बाँटने का काम उसी के जिम्मे।
तरह-तरह के विधायक, अलग-अलग रुचियों के विधायक, अलग-अलग दलों के विधायक, अलग-अलग दिलों के विधायक, अलग-अलग तेवरों के विधायक, अलग-अलग बोलियों, भाषाओं, धर्मों और कर्मांवाले विधायक। पर सबके सब विधायक तो बस विधायक-ही-विधायक।
ऐसे माहौल में ही चन्दू सेठ का परिचय इस अवधलाल से हो गया। समय-समय पर चन्दू सेठ को अपने छोटे-बड़े कामों से अपने क्षेत्र के विधायकजी से मिलने राजधानी जाना-आना पड़ता था। सेठ अपने विधायकजी के यहाँ ही रुकते थे। सेठ की दिलचस्पी साहित्य, इतिहास या राजनीति में उतनी नहीं थी, पर तरह-तरह के अखबार देखना और पढ़ना चन्दू सेठ का शौक था। इसी शौक ने चन्दू सेठ की जान-पहचान अवधलाल से करवा दी।
विधायकजी के कमरे में कुछ अखबार तो सौजन्य प्रतियों के तौर पर बिना पाई-पैसे के आ जाते थे। पर ये राजधानी के, अपने आपको बड़ा कहनेवाले अखबार भला किस-किसको घास डालें? सबके अपने-अपने फेवरेबल और फेवरेट विधायक होते हैं या हो जाते हैं। सो चन्दू सेठ के विधायकजी के साथ भी यही किस्सा था। जब-जब चन्दू सेठ राजधानी में आते, वे आठ-दस अखबार कायदे से खरीदते। बीस-बाईस रुपए रोज के अखबार। इस अतिरिक्त सप्लाई के लिए अखबारवाले को कहना जरूरी पड़ता था। चन्दू सेठ ने एक दिन खुद को बड़ी भोर जगाया और ज्यों ही उन्हें किवाड़ों की दरार से अखबार भीतर आने की सरसराहट सुनाई पड़ी, उन्होंने दरवाजा खोला और अखबारवाले को भीतर बुला लिया। बुलाकर सोफे पर बैठाया और पूछा -
‘क्या नाम है?’
‘अवधलाल।’
‘खाली अवधलाल?’
“जी नहीं, अवधलाल मिश्रा। आप मुझे ए. एल. मिश्रा भी कह सकते हैं। पर अगर आप हमें ‘अवधलाल मिसरा’ कहेंगे तो हमे समझने में और आपको बोलने में भी आसानी रहेगी। हमें खाली ‘मिसरा’ मत कहिएगा। या तो ‘अवधलाल’ कहें या फिर ‘अवधलाल मिसरा’ कहें। वैसे आप हमें ‘ए. एल.’ भी कह लें तो चलेगा।” अवधलाल ने पूरी भूमिका के साथ स्वयं को स्पष्ट कर दिया।
‘कौन-कौन से अखबारों के हॉकर हो?’ सेठ ने पूछा।
“हॉकर नहीं, ‘डिस्ट्रीब्यूटर’ हैं। हॉकर हल्ला करके बेचते हैं, डिस्ट्रीब्यूटर वितरण करते हैं। हॉकर हाथों-हाथ पैसा लेते हैं। डिस्ट्रीब्यूटर महीने भर का बिल एक साथ देते हैं और अपना बिल ‘कलेक्ट’ करते हैं। ‘कलेक्ट’ करने का मतलब ‘वसूल करना’ नहीं होता है। ‘कलेक्शन इज़ समथिंग एल्स।’ हॉकर जिन्दगी भर हॉकर रहेगा डिस्ट्रीब्यूटर इस तरह महीने में एक-दो दिनों के लिए ‘कलेक्टर’ हो जाता है।” और अवधलाल ने हँसते हुए चन्दू सेठ को रोककर पूछा, “आपको बड़ी सुबह कम-से-कम उस आदमी को तो चाय पिला ही देना चाहिए, जिसे आपने उसका काम रोककर अपने कमरे में बुला लिया है। आपके विधायकजी से मुझे यह सब ‘कलेक्टरी’ के दिन कहना पड़ेगा।”
और चन्दू सेठ अवधलाल का मुरीद हो गया। जब-जब चन्दू सेठ राजधानी में होता, अवधलाल के पच्चीस-तीस रुपए तक के अखबार खुदरा के बदले एक ही साथ थोक में, बिक जाते। इस मनोविज्ञान का लाभ अवधलाल ने यह उठाया कि वह चन्दू सेठ को कभी गुजराती तो कभी अंग्रेजी तो कभी उर्दू तक के अखबार थमा जाता। चन्दू सेठ उन भाषाओं से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करता तो अवधलाल ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता, ‘सारे होस्टल में ले-दे कर एक आप ही तो पढ़े-लिखे और ज्ञानी-मानी सज्जन हैं और ये अखबार आप भी नहीं लेंगे तो वाणी माता कितनी दुःखी होंगी?’ और चन्दू सेठ के घुटने टिक जाते।
चन्दू सेठ ने एक दिन पूछ लिया, ‘कहाँ के हो, अवधलाल? क्या रीवा के हो?’
‘जी हाँ।’ अवधलाल का उत्तर था।
‘क्या ब्राह्मण हो?’ चन्दू सेठ ने पूछा।
‘जी हाँ।’ अवधलाल का उत्तर था। “मिसरा और क्या होते हैं? क्या आप हमें ‘वो’ समझते हैे?” अवधलाल थोड़ा असहज हो गया, ‘हमारा सारा गाँव ही पण्डितों का है। पट्टी-की-पट्टी ब्राह्मणों की है। एक से एक प्रकाण्ड। आखिर हमारी जात-पाँत में आपकी दिलचस्पी क्यों है?” अवधलाल का अगला सवाल था।
‘हमारे विधायकजी एक ब्राह्मण कन्या के लिए तुम जैसे वर की तलाश चुपचाप कर रहे हैं। उनके एक कार्यकर्ता की सयानी बिटिया उनकी एक समस्या है। उस कन्या की शादी, योग्य वर से करवा देना भी हमारे विधायकजी के घोषणा-पत्र का एक अंग है।’ चन्दू सेठ ने अवधलाल की आँखों में आँखें डाल दीं।
‘चलिए श्रीमान! अब अपने-घोषणा-पत्र को बन्द कर लीजिए हमें हमारी मजदूरी करने दें। मेहरबानी है आपकी।’ और अवधलाल कमरे से बाहर निकल गया।
जैसे-जैसे दिन बीतते गए, अवधलाल का मनोबन्धन उस कमरे से प्रगाढ़ होता चला गया। अब अवधलाल जब-तब चन्दू सेठ के आगमन के बारे में विधायकजी से भी पूछने लगा।
एक दिन विधायकजी ने अपनी अलमारी के ऊपर पड़े कई किलो रद्दी अखबार की ओर इशारा करते हुए अवधलाल से कहा, ‘मिसराजी! आप ये रद्दी उठा लीजिए। जो भी वाजिब भाव बने, उतने पैसे दे देना।’
अवधलाल खिलखिलाकर हँस पड़ा। अपने हाथ और बगल में दबे उसी दिन के ताजा अखबारों की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘विधायकजी! हमसे ये आजवाले अखबार तक तो बिक नहीं रहे हैं और आप हैं कि हमसे पुराने अखबार बेचने की बात कर रहे हैं। कौन लेगा इन अखबारों को आजकल तो थैलियाँ और लिफाफे भी पॉलीथिन के बनने लगे। अब कोई नहीं खरीदता रद्दी-फद्दी। हाँ, इनका कुछ वजन जरूर मैं हलका कर दूँगा। अवधलाल लेता है, देता नहीं। पैसे-वैसे की बात हमसे मत करें।’
विधायकजी की बाँछें खिल गईं। चलो, एक जिन्दादिल आदमी ने बात खुलासे से तो की!
और अवधलाल ने स्टूल सरकाकर ऊपरवाले अखबार नीचे उतारे। छाट-छाँटकर उनमें से ‘भास्कर’ के, ‘मधुरिमा’ परिशिष्टवाले अंक निकाले। उनका अलग से बण्डल बाँधा और विधायकजी को धन्यवाद देते हुए यों कहकर चल पड़ा, ‘सर! कामवाली बाई से ये रद्दी अखबार एक कोने में जमवा लेना। धन्यवाद।’
विधायकजी देखते रह गए।
कुछ दिनों बाद चन्दू सेठ फिर राजधानी में थे। राजधानी में भी विधायकजी के कमरे में ही। और आज फिर वही हुआ, जो कई हफ्तों से होता आ रहा था। ‘भास्कर’ तो अवधलाल सरका गया, पर बुधवार होते हुए भी ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट उसने नहीं डाला।
चन्दू सेठ को अभी तीन-चार दिन और राजधानी में ठहरना था। कम-से-कम अगले सोमवार तक रुकना जरूरी था। महीना समाप्त होने वाला था। चन्दू सेठ को याद आया कि इसी एक या दो तारीख को अवधलाल अखबारों का बिल लेकर ‘कलेक्टरी’ करने जरूर आएगा। विधायकजी के सामने ही बिल में काट-छाँट करके पैसे देना ठीक रहेगा। चाहे ‘मधुरिमा’ निःशुल्क हो, पर अखबार का हिस्सा तो है ही
और दो तारीख को अवधलाल बाहैसियत ‘कलेक्टर’ विधायकजी के कमरे में था। चन्दू सेठ ने एक भरपूर नजर अवालाल पर डाली। आज अवधलाल के नक्शे कुछ और ही थे। बिलकुल तरोताजा और लहक-महक से सराबोर, अमलतास, कचनार की लहलहाता-महमहाता। चन्दू सेठ ने अवधलाल को सादर बैठाया। विधायकजी से निवेदन किया कि गए कई हफ्तों से अवधलाल ‘भास्कर’ के साथ ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट नहीं दे रहा है। उतना पैसा कम करके बिल चुका देना उचित होगा।
अवधलाल मानो रँंगे हाथों पकड़ लिया गया हो। सकपकाकर बोला, ‘मधुरिमा’ वैसे भी बिल में अलग से तो शामिल है नहीं। उसका पाई-पैसा लगता ही कहाँ है, जो आप हमारा पैसा काट रहे हैं। वैसे भी, उसमें होता ही क्या है जो आप उसे पढ़ें! हम तो आपको अखबार भर का बिल दे रहे है।’ “तब फिर हमारी ‘मधुरिमा’ तुम कहाँ फेंकते हो? दूसरे कमरों में ‘मधुरिमा’ सहित क्यों देते हो ‘भास्कर’? आखिर हमारे यहाँ ही यह सेंधमारी क्यों? गए कई हफ्तों से तुम हर बुधवार को यह चोट कर रहे हो। उस दिन भी विधायकजी ने तुमसे रद्दी अखबार निकालने की कही तो तुम उनमें से केवल ‘मधुरिमा’ भर लेकर चलते बने, बाकी सारा गट्ठर तुमने नीचे ही फेंक दिया। मिस्टर अवधलाल! आज बात जरा खुलकर हो जाए, वरना अब हम विधायकजी से भास्करवालों को टेलीफोन करवाएँगे और आपकी ‘कलेक्टरी’ की ऐसी-तैसी करवाकर छोड़ेंगे।” यह चन्दू सेठ का बगली दाँव था।
अवधलाल थोड़ा लजाया। मूँछों और हलकी दाढ़ी की मसमसाहट से मसमसाता उसका चेहरा एकाएक लाल पड़ गया। होंठों पर सुहागपुरी पान की लाली कुछ ज्यादा ही गहरी हो गई। विन्ध्याचल की समूची मासूमियत आँखों में भरकर बोला, ‘ऐसा है सर! वो हम ये मानते हैं कि यह कमरा हमारा अपना ही घर है। आप-हमारे अपने एक तरह से गार्जियन हैं। हमारे हितैषी और भला चाहनेवाले हैं। हमने तो कई जगह इन दिनों आपका पता ही अपने पते के तौर पर दे रखा है। विधायकजी को हम अपना आशीर्वाददाता जनक मानते हैं और चन्दू सेठ! आपको अपना बड़ा भाई। बात यह है कि यह ‘मधुरिमा’ हम एक मन्दिर में चढ़ाते हैं। यह परिशिष्ट हमारी पूजा में काम आता है। अब अगर आपकी एक वस्तु का सदुपयोग आपके बाल-बच्चे कर लें तो आपको भला क्या आपत्ति हो सकती है?”
विधायकजी और चन्दू सेठ के लिए चकित होने के लिए इतना बहुत था। ‘भास्कर...मधुरिमा...मन्दिर...पूजा....सदुपयोग....’
यह वह समय था, जब कामवाली बाइयाँ विधायकों के कमरों का झाड़ू-बुहारा, बरतन-पानी करने के लिए आस-पास बरामदों और कमरों में आने-जाने लगी थीं। अवधलाल प्रणाम करके जाने लगा। विधायकजी की कामवाली बाइयाँ कमरे में प्रविष्ट हुईं। दोनों ने पहले अवधलाल को देखा फिर चन्दू सेठ को, फिर विधायकजी को और फिर कनखियों से एक-दूसरे को। वे काम में लगने ही वाली थी कि चन्दू सेठ ने एक बाई से चाय बनाने के लिए कहा। और अवधलाल से कहा, “बैठो पण्डित। अपना पैसा भी लो और चाय भी पियो। तुम्हारा अपना घर है। पर अब बुधवार को ‘भास्कर’ के साथ ‘मधुरिमा’ भी होना चाहिए और जरूर होना चाहिए। ठीक है ना?!”
‘जी, ठीक है। अब नागा नहीं होगा।’ अवधलाल बोला।
झाड़ू लगाती हुई बाई ने अपनी कमर सीधी की। खड़ी हुई और बोली, ‘यहाँ नहीं तो और कहीं होगा, पर ये नागा तो जरूर होगा। यहाँ नहीं तो वहाँ।’
अवधलाल बिना चाय पिए उठने लगा। तब तक चाय लेकर दूसरी बाई भी आ गई।
चन्दू सेठ को बात में रस आने लगा। मन-ही-मन सोचा-हो न हो, शहद का कोई छत्ता है। मधुमक्खियाँ उड़ा दो तो रस टपके। उसने बाई लोगों से कहा, ‘क्या बात है, बाई? मिसराजी कुछ छिपा रहे हैं?’
बात को सिरा मिल गया था। एक बाई फूट पड़ी, ‘काहे का अवधलाल! काहे का मिसरा! काहे का पण्डत! काहे का मरद! और काहे का जवान! इसकी डॉक्टरी जाँच करवाओ, बाबूजी! हमारी झुग्गियों में ये स्साला बुधवार-बुधवार चोरों की तरह आता है और उस विधवा पण्डतानी की जवान छोरी को रंग-बिरंगा अखबार देकर सिर लटकाए लौट जाता है। माँ-बेटी बिचारी ‘मिसराजी, मिसराजी’ करती टेर लगाती रहती हैं और ये सूरमा गली के बाहर पसीना पोंछता खड़ा रह जाता है। पढ़ी-लिखी चाँद-सी बेटी जैसी छोरी और न जात अड़े, न धरम। भला बताओ, ये भी कोई बात हुई! मरद तो अभी तक सुहागरात करके आ जाता।’
और अवधलाल के हाथ से चाय का कप न छूटे, न पकड़ा रह सके। लाल-सुर्ख चेहरा और गोरे ललाट पर यहाँ से वहाँ तक पसीना ही पसीना।
विधायकजी ने सारी स्थिति भाँप ली। उठे और अवधलाल का सिर सहलाते हुए बोले, ‘अवध ! क्या नाम है उसका? जब बात इतनी आगे बढ़ गई है तो फिर कसर किस बात की है? बाधा क्या है? लड़की तुम्हारे मन की है न? चलो, पहले उसका नाम बताओ। उसकी माँ को यहाँ बुलाओ। अपने माता-पिता से कहो। कोई दिक्कत हो तो शादी के कार्डों पर अपनी तरफ से मेरा नाम छाप दो। यहाँ सामनेवाले मैदान में टेण्ट लगवा लो। बताओ! लड़की का नाम क्या है?’
“जी बाबूजी! नाम तो मुझे पता नहीं है, पर मैंने उसे पहले ही दिन नाम दे दिया था ‘मधुरिमा’। अब तो उसकी माँ भी उसे इसी नाम से पुकारती है। वैसे वे लोग तिवारी हैं। हमसे जब-तब वह बस ‘मधुरिमा’ ही मँगाती थी।”
‘तो मिसरा! यह है तुम्हारा मन्दिर। ये है तुम्हारी पूजा! यह है हमारे अखबार के परिशिष्ट का सदुपयोग! आज पता चला कि हमारा परिशिष्ट कहाँ जाता है। चलो, बधाई!’ चन्दू सेठ बोले।
‘अब चल यहाँ से, लम्बा हो! निकलवा मुहूर्त, छपवा कार्ड। बुला अपने बाप-माँ को। वरना इतने दूँगी झाड़ू कि....’ यह झाड़ूवाली बाई का स्वर था।
शायद अगले बुधवार को वैसा नहीं होगा।
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‘बिजूका बाबू’ की दसवी कहानी ‘ओऽम् शान्ति’ यहाँ पढ़िए
‘बिजूका बाबू’ की बारहवी कहानी ‘अन्तराल’ यहाँ पढ़िए
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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