श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह ‘कोई तो समझे’ के कवि का आत्म-कथ्य, प्रकाशक का प्राक्कथन




श्री बालकवि बैरागी के 
कविता संग्रह 
‘कोई तो समझे’ के कवि का आत्म-कथ्य, प्रकाशक का प्राक्कथन  








समर्पण
स्वर्गीय
श्री संजय गाँधी
की अतृप्त
अग्निवर्णी
प्यास को
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मन-ही-मन
(कवि का आत्म-कथ्य)

छोटी-सी कहानी से बात शुरु करना ज्यादा अच्छा रहेगा। 

हो यह गया है कि आजादी के बाद हमारे देश में जो भी पीढ़ी पैदा होती रही, उसे अपनी एक उम्र में अपने माता-पिता, गुरु और व्यवस्था से आवारा और गुण्डा होने का प्रमाण-पत्र बराबर लेना पड़ा है। ये बच्चे जहाँ भी जाते हैं वहाँ उन्हें यह विशेषण और सम्बोधन मिल ही जाता है। मुझे इससे बड़ी पीड़ा पहुँची। हुआ यह कि जब एक दिन मैंने अपने बड़े बेटे को गुण्डा कह दिया, तो उसने बिना किसी लाग-लपेट के मुझे गुण्डे का बाप कहा। बात लग गई। मेरा आत्म कुछ बौखलाया, पर जागा भी। आखिर इन बच्चों को कोई तो समझे! इनका कसूर क्या है? कुछ भी नहीं। हमारे इन्हीं बच्चों ने नेट बनाया, उसे उड़ाया और उससे सेबर जेट को तोड़ दिया। गंगा की कछार में एक एकड़ में पचास-पचास कुन्तल गेहूँ पैदा करके यह पीढ़ी हमारे देश की भूख से लड़ रही है। हमने इस पीढ़ी को कुछ नहीं दिया, पर इस पीढ़ी ने हमको कितना कुछ दिया है! तय है कि यह पीढ़ी गुण्डा या आवारा नहीं है। इस पीढ़ी के खाते में बड़े-बड़े योगदान जमा की तरफ लिखे हुए हैं।

.....और मैंने इस पीढ़ी के विरद को अपनी कलम सौंप दी। 

हमारे बच्चे सड़कों पर आते नहीं हैं, ये सड़कों पर लाये जाते हैं। एक निरन्तर मनस्ताप है जो इन कविताओं में उबल रहा है। खीझ या बौखलाहट का सवाल ही नहीं है। जैसा सूझा और जैसा लगा, वैसा मैं लिखता चला गया। जो भी शक्ल बनी, वह आपके सामने है। 

मैं मिट्टी का कवि हूँ। किसी भी देश के खिलाफ लिखना मेरी फितरत नहीं है, पर अपने देश के पक्ष में लिखना मेरा पवित्र दायित्व है। तब फिर सामने कौन है, इसका लिहाज मैंने कभी नहीं पाला। मेरी इन कविताओं में आप यही सब कुछ देख सकेंगे। मैंने आकाश भर इन कविताओं को सारे देश में गाया है। आगे भी गाऊँगा। इनकी प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाये जा सकते हैं, पर जिस सामयिकता ने इन कविताओं को भोगा है, उसे आप भी नहीं नकार सकते हैं।

खून-पसीना, देश, मिट्टी, भविष्य और जलता हुआ वर्तमान गाना मेरा संस्कार है। कोई सुने या नहीं सुने, इसकी चिन्ता मैंने नहीं की, कभी भी नहीं की। मैं चूँकि किसी के रास्ते में नहीं हूँ इसलिए मुझे कोई भी अपने रास्ते में नहीं लगता है। मैं नितान्त अकेला और निस्संग चलता रहा हूँ। यह चलना ही मेरी कविता का आधार है ।

मेरा विश्वास है कि एक पाठक या श्रोता के तौर पर आप जब-जब भी मेरे साथ रहे हैं, तब-तब फिर मेरी निस्संगता का शीलव्रत टूटा है। शायद उसे तब सुहाग मिल गया, निश्चय ही कुमारी निस्संगता के मुकाबले में सुहागन निस्संगता को अपने साथ पाना ज्यादा पसन्द करूँगा। तब मुझे यह अहसास हुआ है कि जो भी मेरे साथ है वह अच्छा और भला है। 

इन कविताओं को मैंने एक ऐसे आदमी को समर्पित किया है जिसे मैंने आज तक नहीं देखा। देखा भी तब, जब कि उसका पार्थिव शरीर मात्र मेरे सामने था। यदि वह जीवित रहा होता तो शायद मेरी इन कविताओं को पढ़ता भी नहीं। उसके पास समय नहीं था या फिर ये कविताएँ कहीं न कहीं कविता हैं ही नहीं। वह भी क्यों पढ़ता? और आश्चर्य तो इस बात पर है कि आप भी इनको क्यों पढ़ रहे हैं? आप इतने विवश नहीं हैं। पर जहाँ देश आपके सामने आता है, आप उसे देखने और उस पर सोचने को विवश हैं, मेरी इन रचनाओं की यही एक असफल सफलता है।
 
मैं सम्मेलन का आभारी हूँ कि मेरी इस पाण्डुलिपि को उसने अपने योग्य माना। पाठकों का आभार मानना मैं कभी नहीं भूलता हूँ, उनका तो मैं हमेशा ऋणी रहा हूँ, आज भी हूँ।

-बालकवि बैरागी
विजया दशमी 1980
 
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प्राक्कथन

गत वर्ष (सन 1979) ‘हिन्दी साहित्य ग्रंथमाला’ योजना के अन्तर्गत म. प्र., हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने मध्यप्रदेश के तीन वरिष्ठ साहित्यकारों के निबन्ध-संग्रह प्रकाशित किये थे। इन तीन ग्रन्थों के शीर्षक हैं-(1) ‘माधवराव सप्रे के निबन्ध’ (2) ‘बख्शीजी के निबन्ध’ (3) ‘छायावाद एवं अन्य निबन्ध’ (श्री मुकुटधर पाण्डेय के निबन्ध)। हमारी अपेक्षा के अनुरूप शासन और सुविज्ञ पाठकों ने इन ग्रन्थों को अपनाकर हमारा उत्साह-वर्धन किया है। अपने प्रथम प्रयत्न की सफलता मे प्रेरित होकर हम ‘हिन्दी साहित्य ग्रन्थमाला’ में नवीन ताजे सुमन जोड़ने का साहस कर रहे हैं।

इस वर्ष प्रदेश के जाने-माने रचनाकारों के प्रतिनिधि काव्य एवं निबन्ध-संकलन प्रकाशित करने का निश्चय किया है। अपने प्रदेश में कलम के धनी अनेक कविगण हैं, जिनकी रचनाओं को प्रकाशित करना म. प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन अपना कर्तव्य मानता है। किन्तु साधनों की सीमितता, कल्पना और आकांक्षा के पर काट देती है। जितने साधन हों, उतना ही आगे बढ़ा जाय।

प्रकाशन की दिशा में विनम्र प्रयास करते रहने का हमारा संकल्प है। कवि और काव्य चयन में मतभेद हो सकते हैं। इन मतभेदों को हमारे समाज और लोकततन्त्र का अनिवार्य अंग मानकर कार्य करना ही श्रेयस्कर है। अतः हिन्दी-जगत के सुपरिचित ओजस्वी गायक कवि श्री बालकवि बैरागी का काव्य-संकलन ‘कोई तो समझे’ प्रकाशित कर हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। हमारी योजना की यह पाँचवी पुस्तक है।

प्रस्तुत संकलन में बैरागी जी की ओजस्वी कविताओं को दिया गया है, जिन्हें बहुतों ने उनसे खुले मंच पर सुनकर सराहा है, प्रेरणा ग्रहण की है।

ऐसा ही सहयोग मिलता रहा, तो भविष्य में कुछ अधिक प्रकाशन करने का विचार है।
मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रबन्ध-मन्त्री श्री हनुमान प्रसाद तिवारी और साँची प्रकाशन के स्वामी और हमारे प्रकाशनों के एकमात्र वितरक श्री ब्रिजनाथ अग्रवाल एवं अन्य अनेक साथियों-सहयोगियों का आभार मुझे व्यक्त करना चाहिये, किन्तु इस औपचारिकता से कोई लाभ नहीं है।

प्रो. अक्षय कुमार जैन
महामन्त्री
मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन

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अनुक्रम
01. कोई इन अंगारों से प्यार तो करे
02. आत्म निर्धारण
03. दो सूत्र
04. चेतावनी चेतना को
05. प्रार्थना-एक शोक गीत के लिए
06. हम
07. सीधी सी बात
08. ज्ञापन-अतिरिक्त योद्धा को
09. रात से प्रभात तक
10. समाजवाद
11. हाथी
12. उनका स्थान
13. वे-इन दिनों
14. प्रार्थना प्रभु से यही है
15. आस्था का आह्वान
16. फिर से लगे मुनादी
17. ठहरो
18. अग्निवंश का गीत
19. चिन्तन की लाचारी
20. माताओं-पिताओं से
21. वैज्ञानिक के प्रति
22. एक बार फिर करो प्रतिज्ञा
23. अंगारों से
24. अधूरी पूजा
25. तरुणाई के तीरथ
26. क्रान्ति का मृत्यु गीत
27. बन्द करो
28. फिर चुपचाप अँधेरा
29. हे लोकदेव! नेहरु
30. आसान
31. वही बीज
32. दायित्व बोध
33. पता नहीं
34. जो ये आग पियेगा
35. एक गीत-ज्वाला का
36. मेघ मल्हारें बन्द करो
37. उमड़ घुमड़ कर आओ रे
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र

 


 
 
 
 


 


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