‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’
की सित्योत्तरवी कविता
यह कविता संग्रह
पाठकों को समर्पित किया गया है।
दीया मैं ही बनाऊँ
दीया
मैं ही बनाऊँ
मैं ही जलाऊँ
और मैं ही उसे
आपकी देहरी पर पधराऊँं।
और आप?
न उसमें तेल पूरें
न बाती उकसाएँ
और न अन्धी हवाओं से
उसे बचाएँ।
बस,
उसकी लौ से उधार लेकर
अछूती आग
छोडें अपने फुलझड़ी-पटाखे
और अपनी अधमरी आग की
हैसियत आँकें।
मन जाए जब आपकी दीवाली
भर जाए जब आपके
अहं का पेट
तब आप,
पूजते हैं अपनी देहरी
फेंक देते हैं मेरे निर्माण
और भूल जाते हैं उस निर्माण की
विराट् सर्जना को।
जीने लगते हैं
फिर से अपनी सहज वर्जना को।
करने लगते हैं आलोचना
देने लगते हैं गालियाँ
उतर आते हैं विरोध पर
और विरोध से भी
हजार कदम आगे
पालने लगते हैं दुश्मनी।
तब मैं?
तब मैं सान्त्वना नहीं देता
अपने निर्माण, उसके उजास
और अपने प्रयास को।
बल्कि
धन्यवाद देता हूँ आपको
बलिहारी जाता हूँ आपकी
कृतघ्नता पर
आभार मानता हूँ
आपकी माँ, अमावस का
जिसने आपको पाला-पोसा
तम से संस्कारित करके
बड़ा किया
और अपनी अधमरी आग सहित
मेरे उदार दीये की
अग्निधर्मा अछूती
लौ के सामने
कभी नहीं लौटाए जानेवाले
उधार के उजास
और लपलपाती आग के लिए
एक ऋण-मुद्रा
में खड़ा किया।
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मैं उपस्थित हूँ यहाँ: छन्द-स्वच्छन्द-मुक्तछन्द-लय-अलय-गीत-अगीत
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
एक्स-30, ओखला इण्डस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110020
वर्ष - 2005
मूल्य - रुपये 95/-
सर्वाधिकार - लेखकाधीन
टाइप सेटिंग - आर. एस. प्रिण्ट्स, नई दिल्ली
मुद्रक - आदर्श प्रिण्टर्स, शाहदरा
रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक अभियोजन (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
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