निमन्त्रण

 
श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की तीसरी कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




निमन्त्रण

जुग-जुग से ऊँचे उड़ते हैं जिसके अमर निशान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे
उजले-उजले कुछ सौदागर आये हिन्दुस्तान में
कौन नहीं विश्वास करेगा अपने ही मेहमान में
किन्तु लगा कुछ काला-काला जब उनके ईमान में
(तो) मेरी माँ ने हाथ उठाये और देखा असमान में
तो पोरबन्दर से देखो रे
पोरबन्दर से चरखा लेकर चला नया भगवान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

कफन बाँध कर चली अहिंसा, हिसा का स्वागत करने
माँग पोंछ कर चली सुहागन कुँकुम से आँगन भरने
आज़ादी अधिकार हमारा दिया हमें भी ईश्वर ने
करो-मरो के नारे गूँजे दौेड़ पड़े करने-मरने
वो जलियाँवाला देखो रे
जलियाँवाला अब तक करता स्वागत पर अभिमान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे 

और गुलामों ने शाहों के शाही कदम उखाड़ दिये
जिस नक्शे में सूर्य न डूबा उसके रंग बिगाड़ दिये
दो पसली ने भरी सभा में दिग्गज बड़े पछाड़ दिये
दीवानों ने लालकिले पर अपने झण्डे गाड़ दिये
वो लाल किले पर देखो रे
लालकिले पर लहराता है मानव का ईमान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

(पर) जाते जाते परदेशी ने झूठे झगड़े करवाये
घरम-धरम और मजहब-मजहब हम भी कुछ दिन चिल्लाये
सचमुच वो दिन दुश्मन को भी राम कभी ना दिखलाये
(किन्तु) सुबह के भूले भटके साँझ पड़े फिर घर आये
अब तो पढ़ते देखो रे
अब तो पढ़ते एक साथ हम गीता और कुरान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

नई राह पर नया सवेरा मेरे देश में आता है
महल का मालिक लिये फावड़ा अब खेतों में जाता है
कल तक का कंगाल किसनियाँ आज कजरिया गाता है
दूर गगन में  मेरा बापू मन हीे मन मुसकाता है
आज अमन की देखो रे
आज अमन की फसल उगाता भारत का किरसान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान

लगे बदलने खण्डहर सारे महलों और मकानों में
आज झोंपड़े बातें करते ऊँचे महल के कानों में
नया खून है नया जोश है इन बेखौफ जवानों में .
नये देश का नया वेश है नदियों के ढलवानों में
हरे हरे देखो रे
हरे हरे घूँघट में हँसते खेत, कुए, खलिहान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

नये-नये कवि कविता लिखते नये नये अरमानों की
नये कहानी लेखक लिखते नई कथा इन्सानों की
सरस्वती के मन्दिर में है भीड़ लगी गुणवानों की
देस-देस से गुणिजन आते आस लिये वरदानों की
गली गली में देखो रे
गली-गली गिरि, गगन गुँजाते गोरे-गोरे गान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे
 
सारी दुनिया दोस्त हमारी हमको सबसे प्यार है
मेहमानों के लिये हमारे हरदम खुले किंवार है
हमने हाथ मिलाया सबसे सब अपना परिवार है
देखो कोई दग़ा न करना अब हम भी हुशियार हैं
चाँद से गोरा देखो रे
चाँद से गोरा दिल रखते हैं हम काले इन्सान रे
देखो रे देखो दुनियाँ वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

हम तकदीरें बदल रहे हैं दुनियाँ के इन्सानों की
आग बुझा दी हमने देखो ऐटम के तूफानों की
मोम बनाते, माखन करते, हम छाती पाषाणों की
अब दुनिया से खतम करेंग हम सत्ता शैतानों की 
इसीलिये तो देखो रे
इसीलिये तो नेहरू चाचा अब तक बना जवान रे
देखो रे देखो दुनियां वालों मेरा हिन्दुस्तान रे
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर (म. प्र.)






यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


 


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