मानता हूँ

श्री बालकवि बैरागी के काव्य संग्रह 
‘वंशज का वक्तव्य’ की सत्रहवीं कविता

यह संग्रह, राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।




मानता हूँ

और फिर रोमांच देती
आ गई स्मृति आपकी।
लोक-कवि का क्षितिज सचमुच
नील नभ की झिलमिलाती रोशनी क्या,
रोशनी के पार तक
निस्सीम है, विस्तीर्ण है,
किन्तु उस विस्तीर्ण को भी तीर्णतम
आसान करते
पंख मंगल कामना के
जो कि सुधिजन अक्षतों की भाँति,
चाहे दूर से ही,
सौंपते हैं उस अजाने पात्र को।
वह अजाना पात्र हूँ मैं
यह परम सौभाग्य है
वस्तुतः मैं धन्य हूँ ।
प्रश्न है अँधियार का स्वर कौन तोड़े?
मानता हूँ मैं कि सचमुच
मौन से वाचाल ज्यादा
कौन है इस सृष्टि में?
किन्तु जब हर ओर छाया मौन हो
और कम्पन मी अधर का मूक हो
तब सनातन चेतना का धर्म है
वह उठे......उट्ठे
और शिव संस्कार की सम्पूर्णता से
जन्म दे द्युति-पूर्ण अक्षर-ब्रह्म को।
और वे अक्षर बनें फिर शव्द
शब्द पायें अर्थ
उस अर्थ को इतिहास दे अध्याय।
इस चिरन्तन साधना का पंथ
कितना शूलमय है जानता हूँ।
आपको अपना संगाती मानता हूँ।
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वंशज का वक्तव्य (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - ज्ञान भारती, 4/14,  रूपनगर दिल्ली - 110007
प्रथम संस्करण - 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक - सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, मौजपुर, दिल्ली - 110053



यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


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