दिल्ली में, ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की बैठक के अतिरिक्त मेरे लिए एक ही आकर्षण था - मेट्रो यात्रा। 25 नवम्बर की शाम को ‘लियाफी’ की बैठक थी और 26 नवम्बर का पूरा दिन खाली था।
भारतीय जीवन बीमा निगम के अध्यक्ष द्वारा, अभिकर्ताओं के लिए गठित क्लब के सदस्यों का सम्मेलन, 26 नवम्बर को नोएडा में सेक्टर 62 में होना था। उसी का जायजा लेना, मेट्रो यात्रा का मेरा लालच पूरा करने का बहाना बना।
मेरा लालच पूरा तो हुआ किन्तु अनुभव ‘चरम मिश्रित’ रहा। इस अनुभव को लिखने की यह चौथी कोशिश है। पहली तीनों कोशिशों में वर्णन, शराफत की सीमा से परे जाता रहा।
सो, संक्षिप्त में इतना ही कह रहा हूँ कि दिल्ली की मेट्रो स्वर्ग भी है और नरक भी। चाँदनी चौक से राजीव चौक और राजीव चौक से चाँदनी चौक की, धरती के नीचेवाली मेट्रो यात्रा मेरे लिए किसी नारकीय यातना से कम नहीं रही। दोनों ही बार लगा कि मैं जीवित नहीं उतर पाऊँगा। इस यात्रा को मैं कभी याद नहीं करना चाहूँगा।
इसके सर्वथा विपरीत, राजीव चौक से बॉटनीकल गार्डन और नोएडा सेक्टर 32 से राजीव चौक तक की, आकाश में विचरण करती मेट्रो यात्रा मैं कभी नहीं भूलना चाहूँगा।
दोनों यात्राएँ मानो दो अलग-अलग दुनियाओं की सैर है। पहली में जाने का जी नहीं करता और दूसरी से आने का मन नहीं करता। पहली यात्रा ‘भारत’ और दूसरी यात्रा ‘इण्डिया’ लगी। लगा, स्वर्ग वाकई में धरती के ऊपर है और नर्क नीचे।
मुम्बई की लोकल रेलों की भीड़ भी मैंने देखी है और ‘पीक अवर्स’ में वहाँ भी यात्रा की है। किन्तु मुम्बई की भीड़ भी अनुशासित और सहयात्री की चिन्ता करनेवाली लगी जबकि दिल्ली की भीड़ का इन बातों से दूर-दूर तक का रिश्ता नजर नहीं आया।
धरती के नीचेवाली मेट्रो के लिए मुझे कहना है - ‘बाज आए ऐसी मेट्रो से। तुम्हारी मेट्रो तुम्हीं को मुबारक।’ जबकि ‘गगन विहारिणी’ मेट्रो के लिए मुझे कहना है - ‘दिल्लीवालों! इतने सुखद अनुभव के लिए धन्यवाद। किन्तु मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ।’
बस!
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लग रहा है इंतहा ही हो गई अब की बार शराफत की, जनाब. आकाशीय और पातालीय के एक-एक उदाहरण भी तो होते, तब अनुमान होता कि आपका अनुभव विषयगत है या वस्तुगत.
ReplyDeleteबिल्कुल इसीलिये तो मुंबई लोकल ज्यादा अच्छी लगती है, आखिर अनुशासन नाम की भी कोई चीज होती है।
ReplyDeleteवैसे दिल्ली की मेट्रो से हमको भी ईर्ष्या होती है ।
अब मेट्रो तो मेट्रो (मेट्रोपॉलिटन सिटी) में ही होगी न! अनुशासन की भली कही, मुझे तो उत्तरोत्तर कम ही होता नज़र आता है।
ReplyDelete@राहुलजी, संक्षिप्त न हो पाना मेरा दुर्गुण है। तीन कोशिशें इसीलिए निरस्त करनी पडी क्योंकि पोस्ट 'सुरसाकार' होती जा रही थी। इस बार संक्षिप्त हुआ तो आपने टोक कर हौसला अफजाई कर दी। शुक्रिया।
ReplyDeleteमुम्बई की सबर्बन सर्विस हमें उसी तरह विलक्षण लगती है जैसे वहां की डब्बावाला टिप्फन सर्विस।
ReplyDeleteलाजवाब!
मुंबई का तो खासा अनुभव है परन्तु दिल्ली के स्वर्ग और नरक का अभी जायज़ा नहीं ले पाए.
ReplyDeleteइतनी भीड़ होने लगी है अब कि पैदल चलना ही अच्छा लगने लगा है।
ReplyDeleteपहली बार आपका ब्लॉग देखा LIC से CM क्लब मेम्बर्स के रूप में जुड़े हैं.good. विनम्र हैं ये और भी अच्छी बात है
ReplyDeleteनारांतक की संतान बनते जा रहे हैं हम लोग :)
ReplyDeleteआप ने विस्तार से नही लिखा की जमीन के अंदर चलने वाली मेट्रो नर्क समान क्यो हे,बाकी बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद
ReplyDelete@राजजी, जैसा कि मैंने लिखा है, यात्रा इतनी त्रासदायक रही कि उसका वर्णन लिख-लिख कर तीन बार काटा। हर बार लगा कि पोस्ट बहु त लम्बी हो गई है - शराफत की सीमा से बहुत बाहर, पढनेवालों के साथ अत्याचार जैसी।
ReplyDeleteआप चाहेंगे तो आपको अलग से लिख भेजूँगा।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
बेचारा थरूर यूं ही जहाज़ियों को कैटल-क्लास कह बैठा. मैट्रो में चला होता तो पता चलता कि कैटल किसे कहते हैं.
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