आना समझ में, बरसों बाद कोई बात

कभी-कभी कुछ बातें काफी देर से समझ पड़ती हैं। तब समझ पड़ता है कि बरसों से उन्हें बिना समझे ही कहते, सुनते और पढ़ते रहे हैं। तब पहले तो खुद पर झेंप आती है और उससे लगी-लगी, सहोदरा की तरह आती है हँसी। अपने आप पर। अपनी नासमझी पर। चार दिन पहले मैं इसी दशा को प्राप्त हुआ था और अब तक उसी दशा में बना हुआ हूँ।
बात है सत्रह दिसम्बर की। मोक्षदा एकादशी, गीता जयन्ती की। मैं इन्दौर में नितिन भाई के यहाँ बैठा हुआ था। उनकी माताजी भी मौजूद थीं। नितिन भाई अपनी भार्या पूर्णिमा को एक धार्मिक पुस्तक केन्द्र का पता बताते हुए, वहाँ के लिए तैयार होने को कह रहे थे। मालूम हुआ कि नितिन भाई गए कुछ बरसों से प्रति वर्ष गीता जयन्ती पर, श्रीमद् भागवत गीता की एक सौ प्रतियाँ अपने परिचितों/मित्रों को भंेट करते चले आ रहे हैं। इन प्रतियों की खरीदी वे गीता जयन्ती पर ही करते हैं। उस दिन भी इसी काम के लिए जा रहे थे।
मैंने सहज भाव से पूछा - ‘नितिन भाई! कभी आपने जानने की कोशिश की है कि जिन्हें आप ये प्रतियाँ भेंट करते हैं, वे इनका क्या करते हैं?’ नितिन भाई के बोलने से पहले ही उनकी माताजी ने निर्विकार भाव से कहा - ‘क्या करते होंगे? किताबों के ढेर में रख देते होंगे और बहुत हुआ तो पूजा में रख देते होंगे।’
नितिन भाई कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने दूसरा सवाल उछाला - ‘कभी आपने किसी से पूछा भी है उन्होंने या उनमें से किसी ने इसे पढ़ा भी है या नहीं?’ लेकिन मेरा यह सवाल पूरा भी नहीं हुआ था कि मैं खुद ही असहज हो गया। यह सवाल मैंने नितिन भाई से नहीं, अपने आप से ही पूछ लिया था!
ग्ए साल भर से मैं बच्चों, किशोरों और नव दम्पतियों को गाँधी आत्म कथा की प्रतियाँ भेंट कर रहा हूँ। सीधे नवजीवन प्रेस से इस पुस्तक की एकुमश्त प्रतियाँ मँगवा ली थीं। कोई स्कूली प्रतियोगिता हो, जन्म दिन हो या विवाह प्रसंग पर आयोजित स्वागत/भोज समारोह - व्यवहार के लेन-देन के साथ, इस पुस्तक की एक प्रति भी भेंट करता चला आ रहा हूँ।
जैसे-जैसे गाँधी को पढ़ता जा रहा हूँ वैसे-वैसे मेरा यह विश्वास प्रगाढ़ होता जा रहा है कि गाँधी के रास्ते पर चलकर ही हम अपनी मुश्किलों से पार पा सकते हैं। इसी मनःस्थिति के चलते, गाँधी विचार को अधिकाधिक प्रसारित करने की मंशा से मैं यह काम कर रहा हूँ और पुस्तक भेंट कर हर बार खुश होता रहा हूँ।
किन्तु नितिन भाई से किया सवाल, उनके जवाब देने से पहले ही ‘बूमरेंग’ बनकर मुझ पर वार कर गया। मैंने भी तो कभी कोशिश नहीं की यह जानने की कि जिन-जिन को मैंने गाँधी आत्म कथा की प्रति भेंट की है उनमें से कितनों ने उसे पढ़ा है? पढ़ा भी है या नही?
नितिन भाई की माताजी की बात मुझे गाँधी आत्म कथा पर भी लागू होती अनुभव हुई। श्रीमद् भागवत गीता हमारा पवित्र और पूज्य ग्रन्थ है। किन्तु हम सब उसे लाल कपड़े में बाँध कर रखते हैं। परिहास से आगे बढ़ कर मैं व्यंग्योक्ति कसता रहता हूँ - ‘‘हम ‘गीता को’ मानते हैं। ‘गीता की’ नहीं मानते।’’ और यह भी कि - ‘‘हम उसे कस कर कपड़े में इसलिए बाँध कर रखते हैं ताकि उसके उपदेश/निर्देश पालन करने के झंझट से बचे रह सकें।’’
गाँधी आत्म कथा बेशक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है किन्तु उसकी स्थिति कमोबेश ऐसी ही बन गई है। हममें से कोई भी उपदेश सुनना पसन्द नहीं करता और ये दोनों पुस्तकें तो आदमी को उपदेश ही उपदेश देती हैं! उपदेश देने के लिए मैं हरदम तैयार रहता हूँ किन्तु उपदेश सुनने के लिए मुझे फुरसत कहाँ?
मेरी आदर्शवादी भावना धड़ाम् से औंधे मुँह पड़ी हुई है। कहाँ तो मैं गाँधी विचार को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के अपने ‘सुकृत्य’ पर मन ही मन गर्वित हो रहा था और कहाँ अब परेशान हो रहा हूँ? कैसे जानूँ कि जिन्हें मैंने यह पुस्तक भेंट दी है उन्होंने इसके साथ क्या किया? लग रहा है कि एक ने भी पन्ने भी नहीं पलटे होंगे। मैंने प्रत्येक प्रति पर अपना नाम, पता, मोबाइल नम्बर और ई-मेल पता चिपका रखा है। लगभग साल भर हो गया है प्रतियाँ भेंट करते-करते। एक ने भी पलट कर फोन नहीं किया। मैं खुद को समझदार मानता रहा लेकिन इस इशारे को अब तक नहीं समझ पाया! कैसा समझदार हूँ मैं?
अब क्या करूँ। पुस्तकों के पक्ष में अनेक उक्तियाँ इस समय याद आ रही हैं किन्तु विश्वास किसी पर नहीं हो रहा। कारण भी समझ में आ रहा है कि गाँधी आत्म कथा केवल पुस्तक नहीं है। यह तो ग्रन्थ है! ग्रन्थ भी ऐसा जिसमें आचरण ही केन्द्रीय विषय है। वह सब तो केवल गाँधी ही कर सकते थे! इसीलिए तो वे ‘गाँधी’ बन पाए! गाँधी बेशक आज प्रासंगिक, अपरिहार्य और अनिवार्य हैं किन्तु वैसा बन पाना अब मुमकिन कहाँ?
विचारों के इसी झंझावात में मुझे उस बात का वास्तविक अर्थ समझ पड़ा जिसे अब तक मैं बिना समझे कहता, सुनता और पढ़ता चला आ रहा हूँ। वह यह कि - ‘उससे विवाह मत करो जिसे तुम चाहते/चाहती हो। उससे करो, जो तुम्हें चाहता/चाहती है।’ मैं अपनी पसन्द की पुस्तक भेंट में दिए जा रहा हूँ - यह सोचे, जाने बिना कि जिन्हें मैं यह भेंट दे रहा हूँ, उन्हें यह पसन्द है भी या नहीं? यदि उन्हें यह पसन्द नहीं है तो वे इसे भला क्योंकर पढ़ेंगे?
तो अब क्या करुँ? शेष प्रतियाँ इस तरह से भेंट में दूँ या नही? सवाल मुझ पर भारी पड़ रहा है। बिलकुल कुछ इस तरह कि ‘ये तेरी जुल्फ की लट है, दुनियाँ के पेंच-ओ-खम नहीं कि जिन्हें मैं सुलझा लूँ।’
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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17 comments:

  1. किताब लाने का शौक और रखने का शौक बहुत लोगों में होता है, परंतु पढ़कर अमल करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे।

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  2. हाथ बढ़ाकर देना और हाथ बढ़ाकर लेना, इन दो प्रक्रियाओं से कार्य पूरा होता है। कम से कम हम अपना कार्य तो करते रहें।

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  3. अप अपना कार्य करते रहें\ कभी न कभी किसी न किसी के मन मे जरूर पडी हुयी पुस्तकें पढने का विचार आता है। मेरे पास भी कुछ पुस्तकें सालों पडी रही जो मेरे पिता जी ने मुझे दी थी उन्हें कितने वर्षों बाद अब पढ रही हूँ। मेरी प्रति भी रख छोडें जब कभी आऊँ तो ये उपहार जरूर लूँगी। शुभकामनायें।

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  4. गांधीजी की आत्मकथा मैंने कई बार पढ़ी है पर अमल में लाई हु ये नहीं कह सकती.

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  5. 'कौन पढेगा' ऐसा सोचते तो न कभी 'गीता' लिखी जाती न 'गांधी आत्मकथा'...
    आपने जितने लोगों को पुस्तकें बांटी हैं उनमें से अगर एक-दो ने भी पढ़ लिया तो आपका कार्य सफल है क्योंकि हो सकता है कि वो एक-दो लोग इन विचारों को आगे प्रसारित करें.. आप अपना कार्य जारी रखें....
    दिल्ली से सियोल: इन फ्लैशबैक-2

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  6. bahut hi badiya...

    mere blog par bhi kabhi aaiye waqt nikal kar..
    Lyrics Mantra

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  7. आगरा से श्री राजेन्‍द्र प्रसादजी शर्मा ने मेरी इस पोस्‍ट पर अपनी यह टिप्‍पणी मुझे ई-मेल से भेजी है -

    आदरणीय बन्‍धुवर सविनय प्रणाम - प्रार्थना बस इतनी है कि विचार और कलम के धनी आप जैसे सज्जन को पक्षपात से बचने की नितान्‍त आवश्यकता है। गाँधीजी के प्रति आपकी भक्ति को नमन् परन्तु अन्य से यह आशा रखना कि वह भी आपकी तरह अच्छी सोच को वरीयता देगा - दुराशा ही है। गाँधी जी द्वारा रचित करीब २० से अधिक पुस्तकें कभी मैंने सार्वजनिक उपयोग के लिए नि:शुल्क अपने संस्थान में पुस्तकालय में भेंट में दी। कुछ समय उपरान्त और पुस्तकें तो लोग धीरे धीरे शायद अत्यन्‍त उपयोगी समझ कर के ले भी गए परन्तु गांधी साहित्य ?......राम राम.....

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  8. ......और यह टिप्‍पणी मेरे बेटे के एक सहपाठी की है जो मुझसे मित्रवत् व्‍यवहार करता है, मुझे 'अंकल' न कह कर 'बैरागी सा'ब' कहता है -


    उत्कृष्ठ विषय चुना आपने बैरागी सा'ब।

    गीता और गाँधी दोनों को ही नहीं पढ़ा मैंने। दोनों ही काफी संजीदा और गहराई वाले विषय हैं। मुझे लगता है, जवान होते-होते किताबों की जगह हाथों मे की-बोर्ड आ गया या फिर यह सोचकर कि इन्‍हें पढने के बाद अमेरिका जाने मे कोई मदद नहीं मिलेगी, मैंने इनको नहीं पढ़ा होगा।

    जैसा कि अब आदत हो चली है, किसी भी चीज़ की 'मार्केट वेल्यू' जानने के लिए मे उसे 'गूगल' कर लिया करता हूँ। सो मैंने अभी कर के देखा (किया)। आप को जान कर अच्छा लगेगा और शायद सन्‍तोष भी की 'gita' को गूगल सर्च करने पर नब्बे प्रतिशत 'प्रथम पृष्ठ परिणाम' भगवत गीता या उस से सम्बन्धित ही रहे। वहीं 'gandhi' को गूगल सर्च करने पर महात्मा गाँधी से सम्बन्धित 'प्रथम पृष्ठ परिणाम' निन्यानबे प्रतिशत रहे।

    याने, दोनों ही की 'मार्केट वेल्यु' काफी बढ़िया है। कम से कम आप इतना तो कह ही सकते हैं कि इन्टरनेट/गूगल, गाँधी और गीता के सही मायने समझता है और उसी से सम्बन्धित जानकारी देता है।

    रही बात किताबों की। एक मेरी पसन्‍द की एक कविता है - गुलज़ार साब की लिखी हुई। गौर फरमाए -

    ज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का
    अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
    झपकी गुज़रती है
    बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
    किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
    कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
    कभी गोदी में लेते थे
    कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
    नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
    वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
    मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
    और महके हुए रुक्के
    किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
    उनका क्या होगा
    वो शायद अब नही होंगे !!

    किताबों को ले कर एक वहम है कि वे अप्रासंगिक हो गई है आज के तकनिकी युग में। अमेरिका हमसे 'प्रति व्यक्ति तकनीक' (इसे कॉपीरईट करवा लीजियेगा, अभी इजाद हुवा है ये शब्द)में कहीं आगे है। लेकिन फिर भी किताबों को ले कर जूनून वैसा ही है। उदाहरण के तौर पर रोल्लिंग्स की लिखी किताबों के लिए लम्बी लाइनों का, दुकानों के बाहर लगना देख लीजिये।

    गाँधी और गीता को लोग न केवल रखना पसन्‍द करेंगे बल्कि पढना भी पसंद करेंगे अगर लेखक इनको ज्ञान के बजाय मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत करे। गीता को ले कर तो काफी प्रयोग मैंने देखे हैं और एक-दो किताबों के कुछ अंश पढ़े भी हैं लेकिन गाँधी को ले कर कुछ प्रयोग किया गया है तो मेरी जानकारी के बाहर है।

    आप किताबें भेट मे देते हैं तो सिर्फ गाँधी या ज्ञान तक सीमित क्यों रखे हुए हैं? लोगो को किताबें भेंट दें तो इस चीज़ की कोशिश करें कि वो कोई ऐसी किताब हो जिसको पाने वाला भले ही पढ़ न पाए लेकिन हमेशा उसकी लालसा रहे कि 'समय मिले तो पढूँ इसको...'

    मैंने एक किताब ली थी कुछ सालों पहले अभी तक नहीं पढ़ पाया हूँ, लेकिन मजे की बात है की दूसरो के माँगने और हर बार दिवाली की सफाई मे उसे स्टोर रूम मे जाने से बचाता आया हूँ।

    किताबें देते रहिये लेकिन सुपात्र को। सुना था मास्टरजी से - किताबों से अच्छा मित्र इस दुनिया मे और कोई नहीं।

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  9. .....और मेरे मेल बॉक्‍स में ही मिली यह टिप्‍पणी मेरे बेटे के एक सहपाठी की जो मुझसे 'मित्रवत्' व्‍यवहार करता है और मुझे 'अंकल' न कह कर 'बैरागी साब' कहता है।

    टिप्‍पणी काफी लम्‍बी है सो इसे एकाधिक टुकडों में रखनी पड रही है। यह है पहला टुकडा -


    उत्कृष्ठ विषय चुना आपने बैरागी सा'ब।

    गीता और गाँधी दोनों को ही नहीं पढ़ा मैंने। दोनों ही काफी संजीदा और गहराई वाले विषय हैं। मुझे लगता है, जवान होते-होते किताबों की जगह हाथों मे की-बोर्ड आ गया या फिर यह सोचकर कि इन्‍हें पढने के बाद अमेरिका जाने मे कोई मदद नहीं मिलेगी, मैंने इनको नहीं पढ़ा होगा।

    जैसा कि अब आदत हो चली है, किसी भी चीज़ की 'मार्केट वेल्यू' जानने के लिए मे उसे 'गूगल' कर लिया करता हूँ। सो मैंने अभी कर के देखा (किया)। आप को जान कर अच्छा लगेगा और शायद सन्‍तोष भी की 'gita' को गूगल सर्च करने पर नब्बे प्रतिशत 'प्रथम पृष्ठ परिणाम' भगवत गीता या उस से सम्बन्धित ही रहे। वहीं 'gandhi' को गूगल सर्च करने पर महात्मा गाँधी से सम्बन्धित 'प्रथम पृष्ठ परिणाम' निन्यानबे प्रतिशत रहे।

    याने, दोनों ही की 'मार्केट वेल्यु' काफी बढ़िया है। कम से कम आप इतना तो कह ही सकते हैं कि इन्टरनेट/गूगल, गाँधी और गीता के सही मायने समझता है और उसी से सम्बन्धित जानकारी देता है।
    ....जारी....

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  10. दूसरा टुकडा -

    रही बात किताबों की। एक मेरी पसन्‍द की एक कविता है - गुलज़ार साब की लिखी हुई। गौर फरमाए -

    ज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का
    अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
    झपकी गुज़रती है
    बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
    किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
    कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
    कभी गोदी में लेते थे
    कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
    नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
    वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
    मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
    और महके हुए रुक्के
    किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
    उनका क्या होगा
    वो शायद अब नही होंगे !!
    ...जारी....

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  11. और यह तीसरा और अन्तिम टुकडा -

    किताबों को ले कर एक वहम है कि वे अप्रासंगिक हो गई है आज के तकनिकी युग में। अमेरिका हमसे 'प्रति व्यक्ति तकनीक' (इसे कॉपीरईट करवा लीजियेगा, अभी इजाद हुवा है ये शब्द) में कहीं आगे है। लेकिन फिर भी किताबों को ले कर जूनून वैसा ही है। उदाहरण के तौर पर रोल्लिंग्स की लिखी किताबों के लिए लम्बी लाइनों का, दुकानों के बाहर लगना देख लीजिये।

    गाँधी और गीता को लोग न केवल रखना पसन्‍द करेंगे बल्कि पढना भी पसंद करेंगे अगर लेखक इनको ज्ञान के बजाय मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत करे। गीता को ले कर तो काफी प्रयोग मैंने देखे हैं और एक-दो किताबों के कुछ अंश पढ़े भी हैं लेकिन गाँधी को ले कर कुछ प्रयोग किया गया है तो मेरी जानकारी के बाहर है।

    आप किताबें भेट मे देते हैं तो सिर्फ गाँधी या ज्ञान तक सीमित क्यों रखे हुए हैं? लोगो को किताबें भेंट दें तो इस चीज़ की कोशिश करें कि वो कोई ऐसी किताब हो जिसको पाने वाला भले ही पढ़ न पाए लेकिन हमेशा उसकी लालसा रहे कि 'समय मिले तो पढूँ इसको...'

    मैंने एक किताब ली थी कुछ सालों पहले। अभी तक नहीं पढ़ पाया हूँ। लेकिन मजे की बात है कि दूसरो के माँगने और हर साल दिवाली की सफाई में उसे स्टोर रूम में जाने से बचाता आया हूँ।

    किताबें देते रहिये लेकिन सुपात्र को। सुना था मास्टरजी से - किताबों से अच्छा मित्र इस दुनिया में और कोई नहीं।

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  12. तीसरा टुकडा -

    किताबों को ले कर एक वहम है कि वे अप्रासंगिक हो गई है आज के तकनिकी युग में। अमेरिका हमसे 'प्रति व्यक्ति तकनीक' (इसे कॉपीरईट करवा लीजियेगा, अभी इजाद हुवा है ये शब्द) में कहीं आगे है। लेकिन फिर भी किताबों को ले कर जूनून वैसा ही है। उदाहरण के तौर पर रोल्लिंग्स की लिखी किताबों के लिए लम्बी लाइनों का, दुकानों के बाहर लगना देख लीजिये।

    गाँधी और गीता को लोग न केवल रखना पसन्‍द करेंगे बल्कि पढना भी पसंद करेंगे अगर लेखक इनको ज्ञान के बजाय मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत करे। गीता को ले कर तो काफी प्रयोग मैंने देखे हैं और एक-दो किताबों के कुछ अंश पढ़े भी हैं लेकिन गाँधी को ले कर कुछ प्रयोग किया गया है तो मेरी जानकारी के बाहर है।

    .....जारी....

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  13. बहुत सुंदर बात कही आप ने अपने लेख मे,धन्यवाद

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  14. तो अब आप क्या करेंगे इसके बारे में बताइये। हम जैसे कई लोगों को दिशा मिल सकती है।

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  15. @स्‍मार्ट इण्डियन
    मैं 'ऑडियन्‍स पोल' के साथ जाऊँगा। किताबें देना जारी रखूँगा।

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  16. बहुत सुंदर बात कही आप ने अपने लेख मे

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  17. पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो आपका फालोवर बन रहा हूँ ! शुभकामनायें

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.