मिलना अपने ‘बीमा उस्ताद’ से -1


‘बैरागीजी! आप तो क्या, प्रत्येक बीमा एजेण्ट, सोने की खदान के ऊपर खड़ा रहता है। जितना जी चाहे, हासिल कर ले।’ साहनी साहब ने यही कहा था मुझसे। बात होगी 1991 के फरवरी-मार्च की। वे भा. जी. बी. नि. की हमारी शाखा के प्रबन्धक थे - जुलाई 90 से जुलाई 93 तक। रतलाम में उनसे मेरा आमने-सामनेवाला सम्पर्क लगभग ढाई साल बना रहा, जब तक वे रतलाम में पदस्थ रहे। उनका स्थानान्तर हो जाने के बाद ‘आँख ओट-पहाड़ ओट’ वाली स्थिति बन गई। बस, कभी कभार फोन पर सम्पर्क होता रहा। छः बरसों पहले हुई ‘छुआ-छुव्वल’ जैसी मुलाकात को छोड़ दूँ तो पूरे साढ़े सत्रह बरस बाद, (इसी 26 नवम्बर को) उन्हीं साहनी साहब से मिलने जा रहा था - नोएडा। अपने तीन एजेण्ट मित्रों के साथ।

दवाई निर्माणवाली इकाई में भागीदार था। हमारी इकाई पहले तो घाटे में आई, फिर ‘नगद घाटे’ (केश लॉस) में आ गई। व्यापार-धन्धे की सूझ-समझ मुझे कभी नहीं रही। आज तक भी नहीं। किन्तु मुझे स्थापित करने की चिन्ता करते हुए, अद्भुत व्यापारिक कौशल के धनी, जो यादवेन्द्र भाटी (याने कि हमारे बाबू भाई साहब मुझे) भागीदार बनाकर रतलाम लाए थे, वे आगत की आहट स्पष्ट सुन रहे थे। इसलिए, नवम्बर 1990 में जब भाई श्री नितिन वैद्य ने भारतीय जीवन बीमा निगम की एजेन्सी का प्रस्ताव दिया तो बाबू भाई साहब ने खुशी-खुशी मुझे इसकी अनुमति दी। कहा - ‘भाभी को, सब्जी मे बघार लगाने में मदद मिलेगी।’ तब इस एजेन्सी को ‘अंशकालिक काम’ ही माना था मैंने।

मेरे एजेन्सी-आवेदन के साथ नितिन भाई ने मुझे शाखा प्रबन्धकजी के सामने पेश किया - साक्षात्कार की औपचारिकता के लिए। भा. जी. बी. नि. का शाखा क्रमांक-2 वाला कार्यालय अक्टूबर 1990 में ही खुला था और साहनी साहब उसके पहले शाखा प्रबन्धक के रूप में पदस्थ हुए थे - जुलाई 90 में।

सामान्य से तनिक कम कद-काठी के साहनी साहब (पूरा नाम जुगल किशोर साहनी) ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। देखा नहीं, घूरा। नई भर्ती के लिए उनके सामने आनेवाले एजेण्ट-उम्मीदवारों में मैं सर्वाधिक आयु (45 वर्ष) वाला उम्मीदवार था। साहनी साहब ने मेरी अपेक्षा से बहुत ही कम पूछताछ की। सम्भवतः नितिन भाई मेरे बारे में उन्हें सारी आवश्यक जानकारियाँ पहले ही दे चुके थे।

उन दिनों बीमा एजेन्सी का नया लायसेन्स देना पूरी तरह से शाखा प्रबन्धक के विवेकाधीन क्षेत्राधिकार में था और शुल्क था - मात्र 15 रुपये। लायसेन्स पर सील-ठप्पे यद्यपि शिमला के लगे होते थे किन्तु जारी करने के लिए आवश्यक हस्ताक्षर करने का प्राधिकार शाखा प्रबन्धक को ही था। सो, मेरे बीमा लायसेन्स पर पहले हस्ताक्षर साहनी साहब के ही रहे।

काम काज सामान्य रूप से शुरु करने के बाद जल्दी ही साहनी साहब से अन्तरंगता बढ़ने लगी। शाखा के अधिकांश कर्मचारी सचमुच में ‘एमदम जवान’ थे - नौकरी में यह उनकी पहली ही नियुक्ति थी। एजेण्टों की स्थिति भी लगभग यही थी। साहनी साहब के सामने, सबके सब मानो बच्चे ही थे। एक मैं ही था जो आयु के पैमाने पर साहनी साहब के आसपास फिट बैठता था। सो, औरों की अपेक्षा, साहनी साहब की और मेरी पटरी तनिक जल्दी और ज्यादा बैठने लगी। तब तक रतलाम में भा. जी. बी. नि. की एक शाखा चल रही थी। उसे शाखा क्रमांक-1 और नई-नई बनी हमारी शाखा को शाखा क्रमांक-2 नाम दिया गया। पुरानी शाखा के एक विकास अधिकारी और उनके कई एजेण्ट, शाखा क्रमांक-2 से सम्बद्ध कर दिए गए थे। उनमें से एक, राजकुमार जैन, साहनी साहब के साथ, उनके चेम्बर में मेरी लम्बी बैठकों पर कटाक्ष करता - ‘आप एजेण्ट नहीं। आप तो एबीएम सैल्स हो।’ एबीएम सैल्स अर्थात् सहायक शाखा प्रबन्धक (विक्रय), जिसका काम होता है, विकास अधिकारियों और एजेण्टों को बीमा बेचने के लिए लगातार कहनेवाला और उनके कामकाज की सवाधि-समीक्षा नियमित रूप से करनेवाला। राजकुमार आयु में अवश्य मुझसे छोटा है किन्तु एजेन्सी के मामले में मेरा वरिष्ठ है। किसी नौसिखिया एजेण्ट को शाखा प्रबन्धक, पुराने/स्थापित एजेण्टों की अपेक्षा अधिक समय और महत्व दे तो उन्हें बुरा लगे न लगे, अटपटा तो लगेगा ही! चूँकि मैं यह बात समझ पा रहा था, सो राजकुमार के कटाक्ष मुझे अभी भी अकारण, अन्यथा, अनुचित, अनावश्यक नहीं लगे। वैसे भी, राजकुमार की पीठ सुनती है, उसके मन में किसी एजेण्ट के प्रति कभी कोई दुर्भावना नहीं रही। हाँ, जो एजेण्ट उसके रास्ते में आता है, उसकी खैर नहीं।

तो, साहनी साहब की और मेरी तनिक ज्यादा घुटती थी। हम उन विषयों, व्यक्तियों, घटनाओं पर भी खुलकर, देर तक बातें करते थे जिन्हें लोकाचार में वर्जित माना जाता है। ऐसे क्षणों में मैं उन्हें कभी-कभार ‘लेडी किलर’ भी कह देता। वे जताते तो कभी नहीं किन्तु कभी छुपा भी नहीं पाए कि मेरा यह विशेषण उन्हें खूब अच्छा लगता। साहनी साहब की जिन्दादिली और हाजिर जवाबी मुझे बार-बार उनके पास बैठे रहने का उकसाती, निमन्त्रित करती थी। लेकिन साहनी साहब का ‘ब्राच मैनेजर’ सदा सजग और चौकन्ना रहता। आत्मीय होने से पहले वे ‘प्रोफेशनल’ होते और कामकाज के बारे में विस्तार से पूछताछ करते, जानकारी लेते, अपने अनुभव और संस्मरण सुना कर बीमा बेचने के नए-नए नुस्खे बताते। कभी मेरी प्रशंसा करते तो कभी डाँटते-फटकारते। भा. जी. बी. नि. में वे ‘विकास अधिकारी’ के रूप में आए थे, पदोन्नत होकर शाखा प्रबन्धक बने थे और रतलाम में ही ‘वरिष्ठ शाखा प्रबन्धक’ के रूप में पदोन्नत हुए। रतलाम से मन्दसौर स्थानान्तरित हुए और वहाँ से दिल्ली। वहीं से वे मण्डल प्रबन्धक श्रेणी में सेवा निवृत्त हुए। बसने के लिए उन्होंने नोएडा को चुना।

पदों के वर्ग के मान से भा. जी. बी. नि. के शाखा प्रबन्धक, ‘द्वितीय श्रेणी अधिकारी’ होते हैं - राज्य सरकारों के डिप्टी कलेक्टर के समान। किन्तु इनके प्रशासकीय अधिकार अत्यन्त सीमित होते हैं - केवल अपनी शाखा के कर्मचारियों तक ही। इसलिए, इन्हें वह सार्वजनिक महत्व, प्रतिष्ठा और सम्मान नहीं मिल पाता जितना किसी डिप्टी कलेक्टर को। डिप्टी कलेक्टर तो बहुत बड़ी चीज हो गया, राज्य सरकार का नायब तहसीलदार भी भा. जी. बी. नि. के शाखा प्रबन्धक के मुकाबले अधिक महत्व, सम्मान, आव-भगत पाता है। लेकिन मेरे बीस वर्षों के एजेन्सी अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि साहनी साहब ने इस मिथक को तोड़ा और जब तक रतलाम में रहे, ठसके से रहे। लोग तब भी कहते थे और आज भी कहते हैं - ‘एल. आई. सी. का ब्रांच मेनेजर तो एक ही आया। साहनी।’ कस्बे के किसी भी आयोजन में वे जब भी गए, उनके आसपास सदैव ही दस-बीस लोग बने रहते थे। ऐसे आयोजनों में उनके पहुँचने से पहले ही उनकी पद ध्वनियाँ महसूस की जाने लगती थीं। कस्बे के सार्वजनिक क्षेत्रों में जैसी उपस्थिति साहनी साहब दर्ज कराया करते थे, वैसी उपस्थिति दर्ज कराते मैंने अब तक किसी शाखा प्रबन्धक को नहीं देखा।

दूसरों की क्या कहूँ, अपनी बीमा एजेन्सी के प्रारम्भिक समय में खुद मुझे इस एजेंसी की आर्थिक क्षमता पर विश्वास नहीं हुआ था। इसीलिए मैनें साहनी साहब से पूछा था - ‘क्या बीमा एजेन्सी से मैं अपने परिवार का पालन पोषण प्रतिष्ठापूर्वक कर सकता हूँ?’ साहनी साहब ने तत्क्षण ही जो उत्तर दिया था, वही मेरी इस पोस्ट का पहला वाक्य बना है।

विकास अधिकारी की नौकरी के दौरान मिले अपने अनुभव बाँटने को वे सदैव ही उतावले रहते थे। वे चाहते थे कि उनकी शाखा का प्रत्येक एजेण्ट इतना काम करे कि प्रत्येक के पास कार हो। लेकिन उनकी ऐसी बातों को हम लोग अनसुना करते, पीठ पीछे हँसते और कहते (कहते ही नहीं, मान कर ही चलते) कि पॉलिसियाँ बेचने का, शाखा का लक्ष्य पूरा करने के लिए ही साहनी साहब ऐसा कह रहे हैं। तब हमें कभी समझ नहीं आया (और सखेद कह रहा हूँ कि नए एजेण्ट अब भी इस बात को समझने को तैयार नहीं होते) कि यदि शाखा प्रबन्धक सचमुच में उसी नीयत से यह सब कहता भी है तो इसके प्रत्यक्ष और दूरगामी लाभ अन्ततः एजेण्ट को ही मिलते हैं।

एक प्रसंग मैं कभी नहीं भूल पाता। उस दिन तेज बरसात हो रही थी। टेलीफोन की घण्टी बजी। दूसरे छोर से साहनी साहब बोल रहे थे। पूछा - ‘क्या कर रहे हैं बैरागीजी?’ मुझे साहनी साहब की बुद्धि पर सन्देह हो आया और मेरी हँसी चल गई। किन्तु अपनी मनोभावनाएँ छुपा कर गम्भीरता से उत्तर दिया - ‘आपकी ही तरह घर में बैठकर बरसात का आनन्द ले रहा हूँ।’ मानो साहनी को मेरे इस जवाब का पूर्वानुमान था इस तरह बोले - ‘मेरी तरह तो आप और आपकी तरह मैं बरसात का आनन्द ले ही नहीं सकते। आप आप हैं और मैं, मैं। आप बीमा एजेण्ट हैं और मैं ब्रांच मैनेजर। मुझे तो घर में बैठने की सुविधा है लेकिन आपको नहीं। घर से बाहर निकलिए और जिन लोगों से पहले कभी बीमे की बात हुई है, उनके यहाँ जाईए। आपको बीमा भी मिलेगा और गरम-गरम पकोड़े भी।’ मुझे बात बिलकुल ही अच्छी नहीं लगी। किन्तु अपनी अप्रसन्नता को नियन्त्रित कर उलाहना दिया - ‘आपको और कुछ भी नहीं सूझता। बेचारे एजेण्टों को तेज बरसात में भी चैन से नहीं बैठने दे रहे हैं।’ साहनी साहब बोले - ‘इस गलतफहमी में मत रहिए। केवल अपको फोन किया है क्योंकि आप ही मेरी इस बात का अर्थ समझ सकते हैं। जिन लोगों की तलाश में आप चक्कर काटते हैं, वे सब आज आपकी ही तरह घरों में बैठे मिलेंगे।’

साहनीजी की इस बात ने मुझ पर बिजली सा असर किया। मुझे बात जँच गई। हिम्मत कर, ब्रीफ केस लेकर निकला। उस दिन चार घरों में गया। चारों घरों में पकोड़े तो वाकई में मिले ही, तीन घरों से बीमे भी मिले।’ मैं उस दिन भी चकित था और यह सब लिखते समय, वह सब याद करते हुए अभी भी चकित हूँ। उस दिन तक तो मैं साहनी साहब को शाखा प्रबन्धक ही मानता था किन्तु इस घटना के बाद मैंने उन्हें अपने ‘बीमा उस्ताद’ का दर्जा दे दिया।

अपने इन्हीं उस्ताद से मिलने के लिए जाते समय मैं रोमांचित था।

कैसा रहा अपने उस्ताद से मेरा मिलना और क्या हश्र हुआ मेरे रोमांच का, यह सब अगली कड़ी में।
-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

6 comments:

  1. साहनी जी को याद दिलाइएगा, बरसात और बीमा हो न हो, पकौड़ों का दौर तो हो ही सकता है.

    ReplyDelete
  2. जीवन बीमा को बहुत पास से देखा है, मामाजी सम्बन्धित थे, अब तो सेवानिवृत्त हो गये हैं।

    ReplyDelete
  3. मेरी चाहत के पिता जी बीमा ऎजेंट थे, मै मोका देख कर उस के दर्शन करने जाता, तो उस के पिता जी चाय के संग जोर देते कि बीमा करवा लो,ओर मै हां हां कर के आ जाता.... ओर हमारा बीमा ना हो सका उस जगह,
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  4. ‘प्रत्येक बीमा एजेण्ट, सोने की खदान के ऊपर खड़ा रहता है’

    क्योंकि मौत का एक दिन मुअइन है :)

    ReplyDelete

  5. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - देखें - 'मूर्ख' को भारत सरकार सम्मानित करेगी - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा

    ReplyDelete
  6. @ विष्णु वैरागी ,
    आपका आशीर्वाद पाकर अच्छा लगा ...मैं आपकी ईर्ष्या देखकर वाकई गर्व महसूस कर रहा हूँ वैसे आप कम धनी नहीं हैं...:-)))

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.