मास्टरों! दुर्दशा तो अभी बाकी है

दोपहर के साढ़े बारह बज रहे हैं और ये दोनों इस समय यहाँ? इस समय तो इन्हें स्कूल में होना चाहिए था? जिस बस्ती में दोनों खड़ी हैं, वहाँ इनका कोई रिश्तेदार भी नहीं हो सकता! यह ऐसी जगह भी नहीं कि तफरी या खरीदी करने के लिए, काम से तड़ी मार कर यहाँ आया जाए! फिर दोनों यहाँ क्यों?
दोनों ही मेरी परिचित। मेरी पॉलिसीधारक। दोनों का मेरे घर और दोनों के घर मेरा आना-जाना होता रहता है। सो, पूछताछ करने में न तो झिझक हुई और न ही देर। भँवे उचका कर मैंने निशःब्द प्रश्न किया - ‘इस समय यहा कैसे? क्यों?’ दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा - मानो तय कर रही हों कि उत्तर कौन दे। आँखों ही आँखों में दोनो ने निर्णय किया। एक बोली - ‘ड्यूटी कर रहे हैं सर।’ मैंने ध्यान से देखा - दोनों के हाथ खाली। न कोई रजिस्टर न ही प्रश्नावली के कागज और न ही रसीद कट्टों जैसी कोई किताब। मेरी नजरों में उभरे सवाल को ताड़ने में उन्हें देर नहीं लगी। लेकिन उनकी हिचकिचाहट बता रही थी कि वे कुछ कहने से अपने आप को रोक रही थीं। शायद मुझे बताना नहीं चाह रही थीं। ऐसे में उत्सुकता अपने आप ही बढ़ जाती है। मैंने अपनी गाड़ी साइड स्टैण्ड पर लगा दी और उनके पास इत्मीनान से खड़ा हो गया।
अब मैं मुखर था। मन मारकर उन्होंने जो कुछ बताया वह सुनकर मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ। वे दोनों अवश्य असहज थीं। उन्हें शायद कल्पना नहीं रही होगी कि उन्हें इस काम के लिए, इस तरह, इस बस्ती में आना पड़ेगा और ऐसी उपेक्षा, अवहेलना और प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी। निश्चय ही यह सब उन्हें मनोनुकूल नहीं लग रहा था और इसीलिए मुझे बताने में संकोच कर रही थीं।
दोनों एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिकाएँ हैं। विद्यालय का समय सुबह साढ़े दस बजे से शाम साढ़े चार बजे तक का है। विद्यालय में कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं। निरीक्षण के लिए किसी न किसी का आना रोज ही लगा रहता है। उस दिन उनका जन शिक्षक आया था। बच्चों की उपथिति बहुत ही कम थी। वह नाराज हो गया। तीनों को हड़काया - ‘कुछ नजर आता है कि नहीं? अकल घास चरने चली गई? बच्चे कहाँ हैं?’ तीनों ने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की तो जन शिक्षक का गुस्सा और बढ़ गया। आदेशित करते हुए बोला कि एक अध्यापिका विद्यालय में रहे और बाकी दो अध्यापिकाएँ, घर-घर जाकर, बच्चों को लाएँ। सुनसान दोपहरी और गलियों में फैले सन्नाटे के चलते, अकेली जाने की हिम्मत दोनों में से किसी की नहीं हुई। सो दोनों, साथ-साथ, बच्चों के घर जा रही थीं और बच्चों से तथा पालकों से गुहार कर रही थी - ‘स्कूल चलो। बच्चों को स्कूल भेजो।’
जहाँ हम तीनों मिले थे, वह रेलवे पटरी के पास, सुभाष नगर की झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती थी। चारों ओर सन्नाटा था। एक इसी झोंपड़ी में चहल-पहल थी। छत दुरुस्त करने में पूरा परिवार लगा हुआ था। दोनों बच्चे अपनी अध्यापिकाओं से आँखें चुराने की कोशिशों में बार-बार उनसे नजरें मिला रहे थे और झेंप कर गरदनें फेर रहे थे। मुखिया दोनों अध्यापिकाओं की ओर देख ही नहीं रहा था। मैंने उसे टोका तो तनिक नाराज होकर बोला - ‘बाबूजी! आप देख रहे हो! घर के हम सब के सब काम में लगे हुए हैं। आज हम दोनों धणी-लुगाई मजदूरी पर भी नहीं गए हैं। मैंने दोंनो मैडमजी से कहा कि आज बच्चे नहीं आएँगे। दोनों नहीं मान रही हैं। इन्होंने कहा कि इनकी नौकरी का सवाल है। तो मैंने भी कहा कि मेरी झोंपड़ी का सवाल है। आप मेरा काम करा दो, मैं आपका काम करा देता हूँ। मैं दोनों बच्चों को अभी स्कूल भेज देता हूँ। ये दोनों मेरे काम में मदद कर दें। इनकी नौकरी बच जाएगी और मेरी झोंपड़ी भी। दोनों का काम हो जाएगा। है कि नहीं?’
बात सुनते-सुनते ही मुझे समझ आ गई कि उसे इन दोनों अध्यापिकाओं की मजबूरी पता चल गई है। उसे यह भी पता चल गया है कि यदि उसके बच्चे स्कूल नहीं जाएँगे तो दोनों अध्यापिकाओं की नौकरी खतरे में भले ही न आए किन्तु दोनों को डाँट-फटकार जरूर सुननी पड़ेगी। हो सकता है, छात्र संख्या कम होने के कारण दोनों का तबादला किसी गाँव में हो जाए। वह यह भी जानता था कि दोनों शिक्षिकाएँ उसका प्रस्ताव कभी नहीं मानेंगी। फिर भी वह अपने प्रस्ताव पर जोर दे रहा था तो शायद इसी कारण कि वह इन दोनों के माध्यम से उन सबको खरी खोटी सुना रहा था जिन्हें वह अपनी इस दशा के लिए जिम्मेदार मानता है। लग रहा था, मानो उसे बदला लेने का, अपने मन की भड़ास निकालने का दुर्लभ अवसर मिल गया है। उसके शब्द तो सहज थे किन्तु उसके चेहरे पर छाई नफरत और लहजे से मूसलाधार बरसता हिंसक प्रतिशोध, उस सुनसान दोपहर और गली के सन्नाटे पर भारी पड़ रहा था।
दोनों अध्यापिकाओं का संकट मुझे तत्क्षण ही समझ में आ गया। एक झुग्गी-झोंपड़ीवाले के सामने अपनी इसी दशा को वे छुपाना चाह रही होंगी। झोंपड़ीस्वामी की बात पूरी होते ही, एक अध्यापिका की रुलाई छूट गई। दूसरी की आँखें डबडबा रही थीं। झोंपड़ीस्वामी कनखियों से सब देख रहा था और उसकी शकल पर अजीब सी तसल्ली या कि खुशी की परत चढ़ने लगी थी। मुझे उस पर गुस्सा नहीं आया। उसका बयान तो सही था किन्तु बेचारा नहीं जान रहा था कि उसकी इस दशा के लिए वे दोनों तो बिलकुल ही जिम्मेदार नहीं हैं जिन्हें वह यह सब सुना रहा था।
लेकिन यह अन्त नहीं है। अध्यापकों/अध्यापिकाओं को तो अभी और काफी-कुछ सहना पड़ेगा। शिवराज सरकार के हवाले से अखबारों में खबर है कि अब प्रत्येक अध्यपक/अध्यापिका को प्रति माह 5 नसबन्दियाँ करने का लद्वय दिया जा रहा है और जिस महीने में जितने ‘केस’ कम होंगे वे अगले महीने के लक्ष्य में जोड़ दिए जाएँगे।
साफ लग रहा है कि मध्य प्रदेश के मास्टरों/मास्टरनियों की दुर्दशा का चरम तो अभी बाकी है।
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7 comments:

  1. शिक्षक-शिक्षिकाओं को (नौकरी के) जीवन भर अपने नियमित काम के साथ, अन्‍यों की तुलना में शायद अधिक सीखते रहना पड़ता है और अक्‍सर परीक्षा देनी होती है.

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  2. बेहद शर्मनाक !
    और उस पर दावा यह है की हम तरक्की कर रहे हैं ऐसे मूर्ख जनशिक्षकों के भरोसे देश आगे बढ़ रहा है !

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  3. अध्यापक पढ़ाने के अतिरिक्त सब कुछ कर रहे हैं।

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  4. बच्चे स्कूल जाने चाहियें। पर यह तरीका तो वैसा ही है, जैसा गमले में खेती करना!

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  5. पहले तो सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों के जिम्‍मे हर सरकारी कार्य होने के कारण इन स्‍कूलों की पढाई लिखाई प्रभावित हुई .. और बच्‍चों को मजबूरी में प्राइवेट विद्यालयों में पढने को मजबूर होना पढा .. अब अपने साक्षरता अभियान को सफल बनाने के लिए शिक्षकों पर दबाब डाला जा रहा है .. इस देश की व्‍यवस्‍था की भी हद हो गयी !!

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  6. पच्चीस-तीस साल पहले का अपना अनुभव याद आ गया.
    सरकार झुग्गी झोपड़ियों में नया नया एक बत्ती कनेक्शन बांट रही थी. उस वक्त के तीन रुपए लगते थे एक कनेक्शन के लिए. एक बल्ब फ्री मिलता था. बिजली बिल भी महीने का दो रुपए आता था. हमें भी टारगेट टिका दिया गया था. अब जिस घर में दो वक्त खाने की रोटी न हो वो तीन रुपए कहाँ से लाए बिजली बत्ती का क्या करे?
    नतीजतन टार्गेट पूरे करने के लिए हमें हमारे वेतन से कनेक्शनों के पैसे भरने पड़ते थे.
    प्रोफ़ेशनली मैनेज्ड बढ़िया काम कर रहे विद्युत मंडल के भ्रष्ट व नष्ट होने की यह पहली सीढ़ी थी. बाद में तो हाल आपको मालूम है :)

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