26 नवम्बर की पूर्वाह्न लगभग साढ़े ग्यारह बजे जब हम नोएडा के बॉटनीकल गार्डन स्टेशन पर उतरे तो मेरे सहयात्री तीनों एजेण्टों डॉक्टर जानकीलाल पाटीदार, राधेश्याम राठौर और रमेश पांचाल को मेरे मन की बात मालूम नहीं थी। स्टेशन से निकल कर हम लोग जैसे ही सड़क पर पहुँचे, मैंने कहा - ‘साहनी साहब यहीं, नोएडा में कहीं रहते हैं। मैं तो उनसे मिलूँगा। आप तीनों एक्सपो सेण्टर पहुँचो।’ (भा. जी. बी. नि. के अध्यक्ष द्वारा, अभिकर्ताओं हेतु गठिक क्लब के सदस्य अभिकर्ताओं का अधिवेशन वहीं हो रहा था। हम चारों को उसमें भाग नहीं लेना था। हमें तो बस, ‘मेले की मौज’ लेने के लिए वहाँ जाना था।) सुनकर जानकीलालजी और राधेश्याम ऐसे भड़क मानो मैंने उनकी बेइज्जती कर दी हो। जानकीलालजी बोले - ‘आपने ऐसा कैसे कह दिया? साहनी साहब से तो हम भी मिलेंगे।’ रमेश ने भी दोनों की हाँ में हाँ मिलाई। वस्तुतः, जानकीलालजी और राधेश्याम, पुराने (मुझसे वरिष्ठ) एजेण्ट हैं-साहनी साहब के रतलाम आने से पहले से ही। वे शाखा क्रमांक-1 से, अपने विकास अधिकारी के साथ, शाखा क्रमांक-2 से सम्बद्ध किए गए थे और इस तरह, साहनी साहब के आने से पहले ही नई शाखा के एजेण्ट बने हुए थे। रमेश की एजेन्सी, साहनी साहब के स्थानान्तर के बाद की है। उसने साहनी साहब के बारे में सुना ही सुना था, उन्हें देखा कभी नहीं था। किन्तु शायद सुन-सुन कर ही उसे, साहनी साहब से मिलने की जिज्ञासा हुई होगी। मेरी इच्छा में तीनों की इच्छा समाहित जानकर मेरा उत्साह और खुशी दुगुनी हो गई।
सेक्टर 62 स्थित एक्सपो सेण्टर पहुँचने के लिए भाव-ताव कर ऑटो रिक्शा में बैठे। मुझे इतना ही पता था कि साहनी साहब नोएडा में हैं। बस। अता-पता मुँह जबानी याद नहीं था। ऑटो में ही मैंने अपनी, टेलीफोन नम्बर और पतेवाली डायरी खोली तो देखकर उछल पड़ा। साहनी साहब भी सेक्टर 62 में ही थे। उन्हें फोन लगाया और सारी बात बताई तो उन्होंने फोन पर ही जो गर्मजोशी जताई, वह अकल्पनीय और अवर्णनीय रही। लगा, साहनी साहब अभी फोन में ही हाथ बढ़ा देंगे। उनके स्वरों में व्याप्त आतुरता कह रही थी - लगी हुई है आग दोनों तरफ बराबर।
चूँकि नोएडा हम लोगों के लिए दूसरी ही दुनिया था और जैसा कि साहनी साहब ने बताया, उनकी दिनचर्या भी अभी पूरी नहीं हुई थी, इसलिए तय हुआ कि हम सीधे एक्सपो सेण्टर पहुँचें। साहनी साहब वहीं से हम लोगों को ले लेंगे।
एक्सपो सेण्टर तक के लिए ऑटो रिक्शावाले ने जब हमसे एक सौ रुपये ठहराए थे तब हमें लगा था कि उसने हमें लूट लिया है। लेकिन गन्तव्य पर पहुँचने से पहले ही हमें लगने लगा कि ऑटोवाले ने वाजिब से भी कम दाम लिए हैं। जी तो किया कि उसे कुछ अधिक भगुतान किया जाए किन्तु बुद्धि ने विवेक को, बिजली से भी तेज गति से ढाँप दिया।
एक्सपो सेण्टर पर अच्छी खासी चहल पहल थी। हमने अधिवेशन हॉल के बजाय प्रथम तलवाले हॉल का रुख किया। एजेण्टों के लिए औजार (साफ्टवेयर) उपलब्ध करानेवाली कम्पनियों के स्टॉल वहीं लगे थे। हमें उन्हीं का जायजा लेना था और यदि कोई परिचित मिल जाएँ तो उनसे ‘हैलो-हाय’ करना था। औजारोंवाली कम्पनियाँ प्रायः सब पुरानी और परिचित ही थीं। दो-एक स्टालों पर परिचित विक्रेता मिले और कुछ परिचित अभिकर्ता भी। हमारे लिए वहाँ न तो कोई आकर्षण नजर आ रहा था और न ही कोई परिचित। इसी क्षण साहनी साहब ने फोन पर पुकारा। वे मुख्य द्वार पर प्रतीक्षारत थे। हम तेजी से पहुँचे।
साहनी साहब को देख कर मैं ठगा सा रहा गया। वे मुख्य द्वारा पर, अपनी कार के सामने खड़े थे। उनमें तनिक भी अन्तर अनुभव नहीं हो रहा था। बिलकुल वैसे के वैसे थे जैसे जुलाई 93 में विदा हुए थे। लगता था, उन्होंने आयु और समय के प्रभाव को परे धकेल दिया था। वही ताजगी, वही ललछौंहा गोरा-चिट्टा प्रसन्न वदन। मुहावरों में कहूँ तो उन्होंने एक ग्राम वजन भी नहीं बढ़ने दिया था। उनके सामने अपनी थुलथुल काया से मुझे शर्म हो आई। मुझे ठगा देखकर वे हँसे और भरपूर गर्मजोशी से मुझे बाँहों में भर लिया। उस क्षण का आनन्द जता पाना मेरे लिए उतना ही कठिन है जितना गूँगे से गुड़ का स्वाद का बखान सुनना। एक ही शब्द है - आनन्द। न कोई रिश्ता-नाता, न कोई स्वार्थ, न कोई काम-काज। हम दोनों एक दूसरे के लिए शायद ही उपयोगी हों। फिर वह क्या था जिसने यह जुड़ाव पैदा कर दिया? उस उदृश्य धागे को कोई नाम दे पाना मेरे लिए न तब मुमकिन था न ही अब।
कुछ ही पलों में हम अपने में लौटे। उन्होंने जानकीलालजी, राधेश्याम और रमेश से मिलनी की, उनके हालचाल पूछे और कहा - ‘बैठिए। सारी बातें कर लेंगे। अभी तो बैठिए।’
गाड़ी में बैठते ही बोले - ‘पहले अपना प्रोग्राम बताईए।’ मैंने कहा - ‘आपके साथ एक प्याला चाय पीना और आपसे गपियाना।’ वे हँस दिए। बोले - ‘चाय आपको घर पर नहीं, यहीं पिलाऊँगा।’ कह कर गाड़ी मुख्य सड़क से उतार दी और थोड़ी ही दूर, सेक्टर 63 में, ‘हल्दीराम’ के आगे रोक दी। बोले - ‘चाय यहीं पीएँगे।’ लेकिन उन्होंने मात्र चाय नहीं पिलाई। हल्दीराम का रेस्टोरेण्ट हो और केवल चाय? वह भी तब साहनी साहब से बरसों बाद मिलना हो रहा हो? हम चारों से अलग-अलग पूछा - ‘क्या लेंगे?’ साहनी साहब हमें सीधे घर ले जाने के बजाय रेस्टोरेण्ट में लाए हैं, इसे मैंने संकेत के रूप में लिया और कहा - ‘ये तीनों जो चाहें लेकिन मैं तो छोले भटूरे लूँगा।’ राधेश्याम थोड़ा कुनमुनाया लेकिन साफ-साफ बोला कुछ नहीं। साहनी साहब ने मेरी ओर प्रशंसा भरी नजर से देखा और बोले - ‘आपका फैसला सही भी और टाइमली भी। छोले भटूरे यहाँ की सबसे अच्छी डिश है और यह समय भी कुछ चखने का नहीं, कुछ खाने का है। छोले भटूरे, भोजन का काम करेंगे।’ वे उठे और काउण्टर पर जाकर बड़ी देर तक पूछताछ कर, आर्डर देकर लौटे।
रेस्त्राँ भव्य भी था और साफ-सफाई के मामले में पहली ही नजर में प्रभावित करनेवाला भी। मैंने पहली बार किसी रेस्त्राँ में कर्मचारियों को दस्ताने पहन कर सामान लाते, लेते-देते देखा। रेस्त्राँ में उस समय हम तीस पैंतीस लोग रहे होंगे लेकिन शोरगुल बिलकुल ही नहीं था। मैंने देखा, ग्राहक अपना सामान खुद ला रहे थे। याने कि व्यवस्था ‘स्वयम् सेवा’ वाली थी। लेकिन साहनी साहब जिस इत्मीनान से बैठे थे, उससे साफ लग रहा था कि वे इस रेस्त्राँ के नियमित ग्राहक हैं और उनके आर्डर का सामान कर्मचारी लाएँगे। लेकिन रेस्त्राँ में भीड़ बढ़ने लगी थी। दोपहर के भोजन की छुट्टी का समय हो गया था और आसपास के दफ्तरों में काम करनेवाले नौजवान कर्मचारियों की भीड़ बढ़ने लगी थी। एलआईसी के ऐजण्ट बड़ी संख्या में पहले से ही वहाँ बैठे थे। सामान आने में देर होती देख साहनी साहब उठे तो मैंने रमेश को सहायता के लिए कहा। प्रत्युत्तर में रमेश के साथ राधेश्याम भी उठा। दोनों ने साहनी साहब को रुकने को कहा तो साहनी साहब बोले - ‘स्टाफवाले तुम दोनों को नहीं जानते।’ वे भी साथ गए और दो मिनिटों में चार प्लेट छोले भटूरे ले आए। मैंने साहनी साहब की ओर सवालिया नजरों से देखा तो बोले - ‘मेरा आर्डर आ रहा है।’ उन्होंने अपने लिए लहसुन के जायकेवाली चीज-ब्रेड मँगवाई थी जो उन्होंने खुद तो कम खाई, चखने के नाम पर हम लोगों को ज्यादा खिलाई। मालवा के मिजाज को भाँप कर उन्होंने गरम-गरम जलेबियाँ भी मँगवाई तो जानकीलालजी, राधेश्याम और रमेश की तो मानो मनोकमना ही पूरी हो गई। मैंने 31 मार्च तक के लिए मिठाई बन्द कर रखी है। सो, तीनों ने जलेबियाँ ‘सूँत’ कर खाईं। साहनी साहब ने केवल चखीं।
अल्पाहार के नाम पर भर पेट खाकर हम लोग चाय की प्रतीक्षा करने लगे। देर होती देख मुझे लगा कुछ गड़बड़ हो रही है। साहनी साहब से पूछा तो हड़बड़ा कर बोले - ‘अरे! यह आप लोगों से मिलने का असर हुआ कि मैं चाय भूल ही गया। अच्छा हुआ जो आपने याद दिला दिया।’ और फटाफट अपनी जेब से चाय के कूपन निकाल कर कर्मचारी को दिए।
खा-पी कर हम लोग बाहर निकले। साहनी साहब ने पूछा - ‘अब क्या कार्यक्रम है?’ मैंने कहा - ‘आपसे मिलना था और आपके साथ एक प्याला चाय पीनी थी। दोनों काम हो गए। अब आप हमें निकटतम मेट्रो स्टेशन बता दीजिए और ऐसी जगह छोड़ दीजिए जहाँ से स्टेशन जाने के लिए वाहन मिल सकें।’ साहनी साहब ने मुझे ऐसे घूरा जैसे किसी ‘एलीयन’ को देख रहे हों। मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए और लगभग हड़काते हुए बोले - ‘मेट्रो तो आपको सेक्टर 32 से मिलेगी लेकिन आपने यह कैसे कह दिया कि मैं आपको रास्ते में कहीं छोड़ दूँ? मैं आपको स्टेशन पर ही छोड़ूँगा।’ कह कर गाड़ी की गति बढ़ा दी। वे हमें नोएडा के बारे में बता रहे थे और हम चारों चुपचाप बैठे उन्हें सुन-देख रहे थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने कार सर्विस रोड़ पर उतार दी। मुझे लगा, स्टेशन आ गया है। लेकिन ऐसा नहीं था। साहनी साहब बोले - ‘आपको मेरा घर तो दिखा दूँ।’ और अगले ही मिनिट हम लोग ‘जीवन आश्रय सोसायटी’ में प्रवेश कर रहे थे।
चार खण्डों वाली इस विशाल सोसायटी के बी खण्ड में साहनी साहब निवास करते हैं। दरवाजा शशि भाभी ने खोला। वे पहली ही नजर में अस्वस्थ लगीं। कुशल क्षेम की औपचारिकता में इस बात की पुष्टि भी हो गई। घुटने उन्हें परेशान करते हैं, चलने-फिरने में बाधा खड़ी करते हैं। किन्तु तसल्ली की बात यही थी कि उनकी खुश मिजाजी जस की तस बनी हुई थी।
घर में उनकी परिचारिका थी। बेटा सौरभ और बहू सोनालिका अपनी-अपनी नौकरी पर गए हुए थे। सौरभ नोएडा में ही और बहू दिल्ली में नौकरी करती है। साहनी साहब का पोता ऋजुल सोया हुआ था। हमारे बैठते ही शशि भाभी ने चाय की मनुहार की तो साहनी सहब ने ही मना कर दिया कि सीधे चाय पीकर ही तो आ रहे हैं! हमसे बोले - ‘आईए! आपको हमारा फ्लेट दिखाऊँ।’ उन्होंने अपना फ्लेट ऐसे और इतने चाव से दिखाया मानो उनकी गृहस्थी अभी-अभी ही बसी है। उनका ‘चूजी’ और ‘स्टाइलिश’ होना, घर के कण-कण से प्रकट हो रहा था। उन्होंने एक फ्लट में डेड़ फ्लेट की जगह निकालने का करिश्मा किया हुआ था। आप-हम आलमारी में कपड़े टाँगने की व्यवस्था करते हैं। लेकिन साहनी साहब ने आड़े खाँचे बनवा कर, प्रेस किए कपड़े रखे हुए थे। स्नानागार में पंखे देख कर मुझे ताज्जुब हुआ। साहनी साहब ने बताया कि वहाँ सब घरों के स्नानागारों में पंखें मिलेंगे क्योंकि गर्मी इतनी तेज होती है कि स्नान कर, बदन पोंछते-पोंछते ही पूरा शरीर पसीने से भीग जाता है। मुझे अपना कैमरा खराब होने का बहुत दुःख हुआ।
मुझे लगा था कि घर दिखाना एक खानापूर्ति मात्र होगा। किन्तु साहनी साहब खुद ‘धम्म’ से बैठ गए, हम चारों को भी बैठा दिया और शुरु हो गए। बातें शुरु हुईं तो हम दो पक्ष बन गए। साहनी साहब एक पक्ष और हम चारों दूसरा पक्ष। वे बीमे की बातें किए जा रहे थे और हम चारों उनके बारे में बात करने की कोशिशें कर रहे थे। स्थिति यह हो गई कि मुझे दहशत होने लगी। लगा, साहनी साहब अभी कह देंगे - ‘आज कितने बीमे लाए?’ उन्हानें हमारी कोशिशें नाकाम कर दीं। हममें से प्रत्येक से हमारे कामकाज के बारे में विस्तार से जानकारी इस तरह से और इतनी जानकारी ली मानो खातरी कर रहे हों कि उनके तबादले के बाद हम लागों ने कहीं बीमा करना बन्द तो नहीं कर दिया? यह विचित्र स्थिति थी। वे सेवा निवृत्त हो चुके थे और उम्मीद की जाती है कि ऐसी स्थिति में आदमी अपने बारे में ही अधिकाधिक बातें करना पसन्द करे। इसके विपरीत वे (सेवा निवृत्त होकर भी) हमारी और हमारे धन्धे की चिन्ता किए जा रहे थे और हम थे कि बीमे के धन्धे में होते हुए भी इसकी बातों से बचना चाह रहे थे! मैंने सामने तो कुछ नहीं कहा किन्तु मन ही मन कहता रहा - ‘साहनी साहब! आप सचमुच में बीमा-उस्ताद हैं।’
बातों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था। अचानक ही शशि भाभी से बोले - ‘भई शशि! तुमने पूछा था तो मैंने मना कर दिया था। लेकिन अब हमें चाय पिला दो।’ और शशि भाभी ऐसे उठीं मानो या तो वे इस बात का इन्तजार कर रही थीं या उन्हें पता था कि साहनी साहब ऐसा कहेंगे ही। वे जिस तेजी से चाय लेकर आईं तो लगा, मानो चाय तैयार रखी हुई थी।
हम लोग चाय पी ही रहे थे कि ऋजुल उठ गया। शशि भाभी उसकी सेवा में लग गईं। मुझे लगा था कि नींद से उठते ही ऋजुल रोना शुरु कर देगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। वह उठा और हुमक कर दादी की गोद में चला गया।
कब तीन बज गए, पता ही नहीं लगा। किन्तु आखिरकार हर बात की हद होती है। शराफत की भी। हम लोग कहीं वह हद पार न कर जाएँ, सो उठ खड़े हुए। शशि भाभी को चाय के लिए धन्यवाद दिया, हमारे कारण उन्हें हुई असुविधा के लिए क्षमा माँगी और विदा ली।
साहनी साहब के फ्लेट में जाने के लिए हम लोगों ने लिफ्ट प्रयुक्त की थी किन्तु उतरते समय अपनी आदत के मुताबिक मैंने सीढ़ियाँ ही चुनीं। उतरते-उतरते ही मैंने अनुभव किया कि सीढ़ियों की चौड़ाई, अन्य बहुमंजिला भवनों की सीढ़ियों की अपेक्षा अधिक चौड़ी हैं। बीच में तनिक रुक कर मैंने इस ओर इशारा किया और कहा - ‘लगता है, अन्तिम समय तक की चिन्ता की गई है।’ साहनी साहब ने कहा - ‘आपने ठीक भाँपा।’ यहाँ रिटायर्ड लोग ज्यादा हैं।’ और ठठा कर हँस पड़े।
वे हमें सेक्टर 32 वाले मेट्रो स्टेशन तक छोड़ने आए। रास्ते भर वे बराबर बातें किए जा रहे थे। लग रहा था कि वे 1993 से 2010 तक की सारी बातें जान लेना चाह रहे हैं। लेकिन तेजी से कार चलाने की उनकी आदत (जो उनकी पहचान भी है) के कारण स्टेशन जल्दी ही आ गया। दिल्ली-नोएडा मार्ग पर यह मेट्रो का अन्तिम स्टेशन था। पटरियों के आधार बने खम्भों का आखिरी सिरा आसमान में सर उठाए ऐसे खड़ा था मानो मेट्रो यहाँ से सीधी आकाश में समा जाएगी। उन्हीं खम्भों की छाँव में, सड़क किनारे साहनी साहब ने कार खड़ी की। ये विदाई के क्षण थे। हम लोग जकड़े पाँवों और उदास मन से परस्पर विदा ले रहे थे। मेरे कहने पर जानकीलालजी ने अपने मोबाइल से मेरा और साहनी साहब का फोटो लिया। मैंने कहा - ‘कार का नम्बर भी आना चाहिए।’ यह फोटो लेने के बाद उन चारों का फोटो मैंने लिया। हम चारों ने पीठ फेरी। मेरे कान पीठ पर उग आए थे। मैं प्रतीक्षा कर रहा था - कार की फाटक खुल कर बन्द होने और एंजिन स्टार्ट होने की आवाज सुनने की। आवाज नहीं आई। जी तो किया किन्तु हिम्मत नहीं हुई मुड़ कर देखने की। अब मेरी आँखें भी पीठ पर चस्पा हो गई थीं। मैं देख पा रहा था कि साहनी साहब कार के पास खड़े हो, हमें जाते देख रहे हैं। मैंने सोचा, मुड़ कर, हवा में हाथ हिला कर उनसे विदा लूँ। लेकिन ऐसा नहीं कर पाया। साफ लग रहा था कि मुड़ गया तो आँखें बोलने लगेंगी और ऐसे क्षणों में बोलती आँखें बेहद तकलीफ देती हैं। मैं यह तकलीफ नहीं झेल पाऊँगा।
सो, नमी से बन्द आँखों के सहारे, सेक्टर 32 के स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं अपने बीमा उस्ताद को प्रणाम कर रहा था। मुझे विश्वास है, ‘उस्ताद’ ने मेरे प्रणाम देखे भी होंगे और स्वीकार भी किए होंगे।
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प्रोफेशनल रिपोर्टर से अधिक सधा लेखन. सहज और प्रवाहमय.
ReplyDeleteउस्ताद के प्रति शागिर्द की नेहमयी व भावमयी प्रस्तुति।
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