कोई धर्म अपने अनुयायियों के आचरण से कैसे पहचाना जाता है, इसके दो अनुभव मुझे अभी-अभी एक साथ, मेरे मुहल्ले में ही हुए। दोनों ही अनुभव इतने सुस्पष्ट है कि वे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं रहने देते।
मेरे मकान से मात्र तीस कदम दूर मकान है सरदार श्री अमरसिंहजी अरोड़ा का। उन्होंने अपने घर पर, श्री गुरु ग्रन्थ साहब का, तीन दिवसीय अखण्ड पाठ करवाया। उनके परिवार ने पूरे मुहल्ले में व्यक्तिशः घर-घर जाकर, इस पाठ में शामिल होने का न्यौता दिया। आग्रह किया कि तीन दिनों में कभी भी, कम से कम एक बार आने की कोशिश करें और पाठ समाप्ति पर अवश्य आएँ तथा समापनोपरान्त ‘गुरु का लंगर‘ जरूर ‘छकें।’
अखण्ड पाठ अरोड़ाजी के मकान में, बरामदे के ठीक बादवाले कमरे में (ड्राइंग रूम में) हुआ। लाउडस्पीकर लगाया गया। दो ‘बॉक्स स्पीकर’ बरामदे में, मकान की बाउण्ड्री वाल के अन्दर, दीवार की ऊँचाई से तनिक अधिक ऊँचाई पर लगाए गए। अब तक भुगते हुए धार्मिक आयोजनों के अनुभवों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि इन तीन दिनों तक मुझे अपने घर के दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रखने के बाद भी भारी शोर-गुल सहना पड़ेगा। लेकिन आश्चर्य! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
पाठ के लिए आए ग्रन्थीजी की आवाज तो सुनाई देती रही किन्तु उनके उच्चारण को समझने के लिए मुझे अपने मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ीं। ग्रन्थीजी की आवाज इतनी धीमी और बिना किसी आरोह-अवरोह के ऐसी सधी हुई थी मानो कोई शिष्य, अपने गुरु के सामने बैठकर, ‘होम वर्क’ के लिए दिया गया अपना पाठ पढ़कर सुना रहा हो। हिन्दी साहित्य में जिस ‘शान्त रस’ का उल्लेख आता है, उसकी जोरदार मिसाल था यह पाठ।
पाठ समाप्ति वाले दिन, निर्धारित समय पर पूरा मोहल्ला अरोड़ाजी के आँगन में हाजिर था। अपने-अपने जूते-चप्पल, घर के बाहर ही खोलने का लिखित अनुरोध बाउण्ड्री वाल के जंगले पर लटका दिया गया था। हम सबने इस अनुरोध का पालन किया। पाठ की समाप्ति पर हुई आरती और अरदास की आवाज, लाउडस्पीकर लगा होने के बाद भी, बाहर सड़क तक नहीं आ पाई। पाठ समाप्ति के बाद, ‘गुरु का लंगर’ अरोड़ाजी के मकान में ही शुरु हुआ। अन्य सेवकों और उनके पूरे परिवार को मिला कर कोई तीस लोग छोले-भटूरे और गुलाब जामुन परोस रहे थे। किसी भी अतिथि को, कोई भी सामान ठण्डा नहीं मिला और न ही सामान की प्रतीक्षा में किसी को अपना हाथ रोकना पड़ा। दो मंजिला मकान की छत पर रसोई बन रही थी। ड्राइंग रूम से छत तक की, दो मंजिला सीढ़ियों पर अरोड़ाजी के परिजन और सेवक खड़े थे और कढ़ाई से निकल रहे गरम-गरम भटूरे और गुलाब जामुन पहुँचा रहे थे।
हम सबने, जी भर कर लंगर ‘छका’ और अरोड़ाजी को ‘लख-लख बधाइयाँ’ और धन्यवाद देकर बाहर आए तो देखा कि हम सबके जूते-चप्पल, करीने से जम हुए थे। अरोड़ाजी का पूरा परिवार तो आमन्त्रितों की सेवा में लगा था। मालूम हुआ कि सिख समाज के आगन्तुक अतिथियों और उनके बच्चों ने यह ‘सेवा’ की थी। अरोड़ाजी के मकान के मुख्य द्वार के दोनों ओर, करीने से जमाए गए जूते-चप्पलों के चित्र सारी कहानी खुद ही कह रहे हैं।
दूसरा आयोजन था - श्रीमद् भागवत कथा का वाचन। यह आयोजन भी मेरे मुहल्ले में ही, मेरे मकान से लगभग ढाई सौ कदम दूर (याने अरोड़ाजी के मकान की दूरी से, लगभग सात गुना अधिक दूरी पर) था। अरोड़ाजीवाले आयोजन से दो दिन पहले यह आयोजन शुरु हुआ और दो दिन बाद तक चलता रहा। याने, पूरे एक सप्ताह का आयोजन रहा। इसका समय था - दोपहर एक बजे से चार बजे तक। इस आयोजन के लिए सड़क बन्द कर, पाण्डाल खड़ा किया गया। पूरे सात दिन रास्ता बन्द रहा। लाउडस्पीकर यहाँ भी लगे। फर्क इतना ही रहा कि तीस कदम दूर, अरोड़ाजी के मकान पर लगे लाउडस्पीकर की आवाज सुनने-समझने के लिए मुझे अपने मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ीं जबकि ढाई सौ कदम दूर चल रहे भागवत पाठ को सुनने-समझने के लिए मुझे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रखनी पड़ीं। सातों ही दिन लाउडस्पीकर ‘फुल वॉल्यूम’ पर रहा - कर्कश और कर्ण-कटु आवाज में चिंघाड़ते हुए। पण्डितजी इस तरह कथा बाँच रहे थे मानो किसी से झगड़ा कर रहे हों और वह भी इस तरह कि सामनेवाले को बोलने का मौका न मिले। पाण्डाल यद्यपि दिखाई देता था किन्तु चूँकि चारों ओर से बन्द था, इसलिए मुझे सातों ही दिन, प्रति-पल लगता रहा कि पाण्डाल खाली है और कथा वाचक पण्डितजी, अपनी पूरी ताकत से इसलिए बोल रहे हैं ताकि घरों में बैठे लोगों को कथा-श्रवण का पुण्य लाभ करा सकें।
चार घण्टों का यह दैनिक सत्र ‘गीत-संगीत मय’ रहा जिसमें फिल्मी धुनों पर भजन गाए गए। मुझे धुन तो समझ में आती रही लेकिन चिंघाड़ते स्वरों के कारण भजनों के शब्द समझ नहीं पड़े। लिहाजा, मैं फिल्मी गीतों का ही आनन्द लेने को विवश रहा। वैसे भी, इस आयोजन में गीत-संगीत प्रमुख रहा और भागवत कथा मानो, गीत-संगीत की प्रस्तुति का प्रयोजन रही। भागवत कथा समापन वाले दिन फिल्मी धुनोंवाले भजन देर तक बजते रहे और (जैसाकि अगले दिन अखबारों से मालूम हुआ) महिलाएँ भजनों पर ‘जम कर’ नाचीं।
दोनों आयोजनों का मेरा अनुभव मुझे चकित कर रहा है। अरोड़ाजी के घर में आयोजित अखण्ड पाठ के दौरान हम मुहल्ले के लोग अपने-अपने घरों में और घरों के बाहर भी आराम से बातें करते रहे जबकि हमारे मकानों से भरपूर दूरी पर आयोजित भागवत पाठ ने हम लोगों को, मुहल्ले में, बाहर सड़कों पर तो दूर रहा, घरों में भी सहजता से बातें नहीं करने दीं।
मुझे नहीं लगता कि इसके बाद भी कुछ कहने-सुनने को रह जाता है।
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आयोजन और अनुभव की तुलना तो स्वाभाविक है लेकिन दो धर्म कह कर उन्हें पलड़ों पर रख देना ठीक नहीं जान पड़ता. वाहे गुरु की फतह.
ReplyDeleteसामाजिक धार्मिक आयोजनों का सुन्दर स्वरूप और भी निखरेगा यदि इन छोटी बातों का ध्यान रख लिया जाये।
ReplyDeleteराहुल जी की बात से सहमत हूँ.. यह दो धर्मों की नहीं कार्यक्रम आयोजित करने वाले लोगों की मानसिकता की तुलना है.. हाँ इस बात से सहमत हूँ कि सिक्खों के धार्मिक आयोजनों का संगीत जरा शांत होता है.. पर हिंदुओं के भी सारे कार्यक्रम ऐसे नहीं होते. मेरे घर में कई दशकों से हर पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण की कथा होती है, आस पड़ोस की सारी स्त्रियाँ आती हैं कथा सुनने.. मेरी रुचि थोड़े कम है पूजा-पाठ में.. इसलिए मैं पूजाघर के बगल वाले कमरे में कुछ पढता रहता हूँ.. और माहौल इतना शांत और आध्यात्मिक होता है कि मेरी पढाई में एकाग्रता और बढ़ जाती है.. हाँ शहरों में ये लाउडस्पीकर वगैरह वाले चोंचले ज्यादा हैं..
ReplyDeleteयह सच है , की धार्मिक अनुष्ठानों में दिखावा अधिक और श्रद्धा कम हो गयी है ! जब भी मोहल्ले में जागरण शामियाना लगता है हमारी बेचैनी बढ़ जाती है ...दूर दूर तक जाती भोंपू की आवाज बच्चों के लिए महद कष्ट करक रहती है ! ऐसे आयोजनों से धर्म से झुकाव की स्थान पर खिंचाव ही पैदा होता है !
ReplyDeleteबढ़िया ध्यान खिंचा है आपने !
धार्मिक प्रचार का भी अंदाज़ अपना-अपना :)
ReplyDeleteबेरागी जी यह तुलना अच्छी नही लगी , क्योकि यह बात तो आयोजन करवाने वाले के ऊपर निर्भर करता हे, मै शादी के समय भी लाऊड स्पीकर नही लगने देता, वेसे पिछले महीने मै दिल्ली मे था तो आधी दिल्ली मे जाम था गुरुपुर्व के कारंण, लोगो ने सडके बंद कर रखी थी, ओर खुब जोर शोर से नगर कीर्र्तन हो रहा था, ओर उस जाम मे मैने एक एम्बुलेंस को फ़ंसे देखा?? अब किसी धर की बात करे.... यहां सभी एक से बढ कर एक हे,
ReplyDeleteधार्मिक अनुष्ठानों में दिखावा अधिक और श्रद्धा कम हो गयी है
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