पुणे से भीमाशंकर महादेव (ज्योतिर्लिंग) तक की गई, साढ़े तीन घण्टों की बस यात्रा को आज दसवाँ दिन होने जा रहा है किन्तु वह यात्रा भुलाए नहीं भूली जा रही। शायद मैं ही भूलना नहीं चाह रहा। यदि वह अविस्मरणीय नहीं है तो आसानी से भुलाई जा सकनेवाली भी नहीं है। उस बस यात्रा ने मुझे, ‘अपने देस’ में की गई लगभग प्रत्येक बस यात्रा याद दिला दी और ‘अपने देस‘ के ड्रायवरों-कण्डक्टरों के स्थापित चाल-चलन के आधार पर आकण्ठ विश्वास कर रहा हूँ कि भविष्य में भी, ‘अपने देस’ में जब-जब भी बस यात्रा करूँगा, तब-तब, हर बार वह बस यात्रा याद आएगी - किसी मीठी, आनन्ददायक कसक की तरह।
इस बस यात्रा में मैंने पहली बार महिला कण्डक्टर देखी। मेरे लिए वह ‘अजूबा’ से कम नहीं थी। यात्रा की, आधी से अधिक दूरी तक बस ओवहर-लोड थी। यात्रियों से किराया वसूलने और उन्हें टिकिट देने के लिए वह कम से कम तीन बार बस में आगे से पीछे गई और पीछे से आगे आई। किन्तु उसके और यात्रियों के व्यवहार से एक पल को भी नहीं लगा कि कण्डक्टरी जैसा ‘पुरुषोचित’ काम करते हुए वह कोई ‘स्त्री’ है। एक औसत कर्मचारी की तरह वह काम कर रही थी। विचित्र लग रहा था तो सम्भवतः केवल मुझे और मेरी उत्तमार्द्ध को क्योंकि किसी ‘स्त्री’ को कण्डक्टरी करते हुए हम पहली बार देख रहे थे।
मैंने अपनी दशा, अपने ब्लॉग-लेखन की बात उसे बताई और कहा कि मैं उस पर कुछ लिखना चाहता हूँ इसलिए मुझे उसके बारे में फौरी जानकारियाँ और उसका चित्र चाहिए। यात्रियों के लिए टिकिट बनाते हुए, निर्विकार भाव से उसने कहा - ‘चलेंगा।’ उसके कहने के लहजे में उसका आत्मविश्वास और उसकी सहजता देखते ही बनती थी। लगा, उससे ऐसी बातें करनेवाला मैं पहला व्यक्ति नहीं था।
अपना नाम बताने से पहले उसने मानो मेरे सामान्य ज्ञान की परीक्षा ली। बोली - ‘टिकिट को ध्यान से देखने का। उस पर कण्डक्टर का नाम छपेला है।’ बस के टिकिट पर कण्डक्टर का नाम छापा जाता है - यह जानकारी भी मुझे पहली बार मिली। मैंने ध्यान से देखा। एक नाम छपा था - बी आर भेसे। मैंने कहा - ‘एक नाम छपा तो है लेकिन मालूम नहीं पड़ता कि वह कण्डक्टर का नाम है। यह भी मालूम नहीं पड़ता कि यह नाम मर्द का है या औरत का।’ टिकिट बना रहे उसके हाथ रुक गए। तनिक कठोर हो कर बोली - ‘एक ही नाम है तो समझने का कि टिकिट पर प्राइम मिनिस्टर का नाम तो नहीं होंगा! वो कण्डक्टर का ही तो नाम होंगा। और कण्डक्टर तो फकत कण्डक्टर होने का। क्या फरक पड़ता कि वो आदमी है या औरत?’
मुझे ‘धूल चटा कर’ उसे बड़ा आनन्द आया। उसने अपना नाम भारती भिसे बताया। छपे हुए ‘आर’ से भी उसने कोई नाम बताया था लेकिन मैं भूल गया। चार बरस से नौकरी कर रही है और इस रूट पर ही उसका गाँव है। यह काम करने में उसे असुविधा या झिझक तो नहीं होती - मेरे इस सवाल पर, पूरी बस को सुनाती हुई मुझसे बोली - ‘क्या साहेब! क्या बात करता? अरे! हमारा एस टी (राज्य परिवहन) चालीस औरतों की पहली बेच को ड्रायवरी का ट्रेनिंग दे रियेला है। अब इस काम से मरदों की छुट्टी।’
पूरी यात्रा के दौरान वह एक मिनिट के लिए भी बस से नहीं उतरी। एक जगह (शायद मंचर में) दस मिनिट का विराम था। अधिकांश यात्री चाय-पानी के लिए उतरे, किन्तु वह अपनी सीट पर ही बैठी रही। दो बार ऐसा हुआ कि वृद्ध महिलाओं को उसने, ‘दयालु साम्राज्ञी’ की तरह अपनी, कण्डक्टर की निर्धारित सीट दे दी। किन्तु जैसे ही कोई नौजवान वहाँ बैठा, अपना काम निपटा कर फौरन ही अपनी सीट खाली करवा कर बैठ गई - किसी तानाशाह की तरह। पूरी यात्रा अवधि में उसने इस धारणा को झुठलाया कि महिलाएँ बहुत ही बातूनी होती हैं - अकारण ही बोलती रहती हैं। बोलने के नाम ‘बोला! बोला!!’ या ‘चला! चला!!’ या फिर, सवारियों को बस में प्रवेश देते समय ‘फकत भीमाशंकर! फकत भीमाशंकर!!’ ही उसके मुँह से सुनाई दिया।
लेकिन केवल भारती ने ही नहीं, यात्रियों ने भी मुझे चौंकाया। बस में सभी वर्गों, श्रेणियों, आयु समूहों के आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष थे। एक-दो के पास अखबार थे। मोबाइल अधिकांश के पास थे। उनके मोबाइल या तो बन्द थे या फिर वे ईयर-फोन लगा कर अपने मनपसन्द गाने (या संगीत) सुन रहे थे। राजनीति या सरकार को लेकर कोई बहस नहीं हो रही थी। बैठने या सुविधापूर्वक खड़े रहने के लिए किसी ने किसी से झगड़ा नहीं किया, ऊँची आवाज में नहीं बोला। किसी ने भारती पर कोई फब्ती नहीं कसी, कोई अशालीन-अमर्यादित हरकत नहीं की।
पूरी यात्रा अवधि में मुझे ‘अपने देस’ के ड्रायवर-कण्डक्टर याद आते रहे। ‘मेरे देस’ का बस-कण्डक्टर ढंग से बात नहीं करता, बाकी पैसे लौटाने की चिन्ता करना तो दूर, सोचता भी नहीं (जबकि भारती, उतरनेवाले प्रत्येक यात्री से पूछ रही थी - तुम्हारा पैसा बाकी तो नहीं?), प्रत्येक ठहराव पर चाय पीने के लिए उतरता है और ऐसे उतरता है मानो कभी अब कभी लौटेगा ही नहीं, यात्री उसे तलाशते हैं। ‘मेरे देस’ का बस ड्रायवर, सामने आती बस को देख कर अपनी बस रोक लेता है, सामनेवाला भी ऐसा ही करता है। अपनी-अपनी बस का एंजिन स्टार्ट रखे हुए वे दोनों तब तक बातें करते हैं जब तक कि पीछे से कोई वाहन हार्न नहीं दे। समयबद्धता ‘मेरे मुलुक’ में कोई मायने शायद ही रखती हो। बस का मुकाम पर पहुँचना ही मकसद होता है - फिर भले ही घण्टा-आधा घण्टा देर से पहुँचे। इसके विपरीत, भारती ने यात्रा अवधि चार घण्टे बताई थी जबकि यात्रा साढ़े तीन घण्टों में ही पूरी हो गई। यात्रीगण, खासकर नौजवान यात्रीगण, अपने-अपने मोबाइल पर ‘फुल वाल्यूम’ पर फिल्मी गीत बजाते हैं। ऐसे में पूरी बस किसी सब्जी बाजार की तरह शोरगुल से भर जाती है। सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है। किसी का, पाँव पर पाँव रखना तो बड़ी बात होती है, कन्धे से कन्धा रगड़ा जाना ही झगड़े के लिए पर्याप्त कारण होता है। झगड़ा न हो तो ‘अभी लग जाती तो?’ जैसे काल्पनिक खतरों के दम पर जोरदार कहा-सुनी तो हो ही जाती है।
भीमाशंकर पहुँचने पर मैंने भारती का फोटो लेना चाहा। वह खुशी-खुशी खड़ी हो गई। मैंने केमरा क्लिक किया। उसे फोटो दिखाया तो तनिक असहज होकर बोली - ‘ये क्या? ये तो मेरा अकेले का है! नई चलेंगा। तुम्हारी औरत के साथ खींचो और वो ही फोटू छापने का। क्या?’ मैंने उसके आदेश का पालन किया। मेरी उत्तमार्द्ध के साथ लिया फोटो उसे दिखाया। वह बच्चों की तरह खुश हो कर बोली - ‘हाँ। ये बरोबर है। येईज छापने का। बरोबर?’ मैंने कहा - ‘बरोबर।’
लेकिन मैं ‘बरोबर’ नहीं कर रहा हूँ। भारती को दिया वादा तोड़ रहा हूँ। मेरी उत्तमार्द्ध के साथवाला फोटो देकर मैं भारती की और उसके ‘पुरुषार्थ’ की प्रमुखता को किंचित मात्र भी कम नहीं करना चाहता। अपनी इस वादा-खिलाफी पर मुझे दुख तो है किन्तु शर्म नहीं।
हमारे लिये तो महिला कंडक्टर नई बात नहीं है, बैंगलोर में वोल्वो बस सेवा में अधिकतर महिला कंडक्टर ही हैं और उनके आत्मविश्वास को देखकर वाकई गर्व की अनुभूति होती है।
ReplyDeleteसुना तो मैंने भी कई बार था किन्तु देखा पहली ही बार। इसीलिए मैं अपनी अनुभूति रोक नहीं पाया। हॉं, भारती को इस तरह काम करते देख कर मुझे भी गर्व हुआ।
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ReplyDeleteभारती जी बदलते भारत की प्रतीक हैं, शुभकामनायें!
ReplyDeleteबढ़ते रहो, आधी आबादी के प्रतिनिधियों..
ReplyDeleteमहिलाएं हैं हर जगह, पांव रही पसार ।
ReplyDeleteहर क्षेत्र में जम रहीं, हर और विस्तार ।।
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (05-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |
मुझे विस्तारित करने के लिए कोटिश: आभार। आपने मेरा सम्मान भी बढाया। कृतज्ञ हूँ। आपकी इस कृपा के कारण ही आज मेरी 'मार्निंग गुड' हो गई - माननीय सिध्देश्वरसिंहजी ने प्रशंसा करते हुए मुझे थपथपा कर उठाया।
Deleteपुन: आभार। धन्यवाद।
Good One Sir... "उत्तमार्द्ध" is the new word for me..
Deleteअंग्रेजी के 'बेटर हाफ' का शाब्दिक अनुवाद है 'उत्तमार्ध्द।' मेरे एक मित्र ने एक बार प्रयुक्त किया था। मुझे अच्छा लगा और अपने लेखन में मैंने इसे चलन में ले लिया।
Deleteक्या कर नही सकती भला , जो शिक्षिता हों नारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां !
ReplyDeleteनारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां ! क्या कर नही सकती भला , जो शिक्षिता हों नारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां ! क्या कर नही सकती भला , जो शिक्षिता हों नारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां ! क्या कर नही सकती भला , जो शिक्षिता हों नारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां ! क्या कर नही सकती भला , जो शिक्षिता हों नारियां, क्या कर नही सकती भला , जो शिक्षिता हों नारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां ! नारियां, रण रंग राज्य स्वधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियां !
ये तो बरसों पुरानी पंक्तियॉं हैं - विस्मृतप्राय:। आपको कहॉं से मिल गईं।
Deleteजब हम भी पहली बार दक्षिण भारत में देखे थे तो आश्चर्य हुआ था. फिर धीरे-धीरे आदत हो गई.
ReplyDeleteखुबसूरत संस्मरण
ReplyDeleteइस आलेख में कंटेन्ट महत्वपूर्ण है, यह स्वीकार लेकिन इस आलेख को मैं एक आत्मीय गय के नमूने के रूप में स्वीकार कर रहा हूँ। बधाई स्वीकरे....
ReplyDeleteमैं अवाक् होने की सीमा तक विगलित हूँ। कृपा है आपकी। भगवान करे, प्रत्येक व्यक्ति के 'दिन का शुभारम्भ' ऐसा ही हो। धन्यवाद औरआभार।
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ReplyDeleteफेास बुक पर श्री अजित वडनेरकर, औरंगाबाद/भोपाल की टिप्पणी -
ReplyDelete"महाराष्ट्र के कई रूट्स पर एसटी की बसों में महिला कंडक्टर हैं। बदतमीज़ी करने पर ये पुरुष यात्रियों की पिटाई कर देती हैं और बस को थाने ले जाकर उसे पुलिस के हवाले कर आती हैं ।"
वाह हमें भी रु -ब -रु करवाया आपने इस शख्शियत से .सजीव चित्रण यात्रा का जो भूले न भूले .
ReplyDeleteभाई साहब । आपका लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा । आमचे महाराष्ट्र मे महिलाओं को किसी काम की शर्म नही है और जनता भी भद्र है । मंदसौर मे एक महिला ट्रक ड्राईवर के बारे मे कुछ साल पहले पढ़ा था । महिला ऑटो चालक के बारे मे भी पढ़ा है,आपने महिला कंडक्टर के बारे मे जो लिखा वो पढ़कर अच्छा लगा । हम मध्य प्रदेश वाले ये लेख पढ़कर शायद सुधर जाए ।
ReplyDeleteरोचक संस्करण, भारती जी के बारे में जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteमैंने अब तक नहीं देखा ,हालांकि यात्राएँ बहुत की महाराष्ट्र में भी ...अच्छा लगा मिलना..
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