भाषा सम्प्रेषण का माध्यम होती है और सम्प्रेषण के लिए प्रयुक्त शब्दावली हमारे व्यक्तित्व तथा मानसिकता की परिचायक होती है। इस मुद्दे पर काफी-कुछ कहा गया है। जैसे कि - विज्ञान कहता है कि जबान का घाव ठीक हो जाता है लेकिन ज्ञान कहता है कि जबान से लगा घाव कभी ठीक नहीं हो पाता। यह भी कि मुँह से निकली बात और कमान से छोड़ा गया तीर कभी नहीं लौटाए जा सकते।
ऐसे अनेक उदाहरण इन दिनों मैं फेस बुक पर देख रहा हूँ और चकित होता हूँ कि न तो बोलने/लिखने से पहले सोचा जा रहा है और न ही बाद में। सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, राहुल गाँधी इन दिनों अधिसंख्य भारतीयों के ‘प्रिय पात्र’ बने हुए हैं। इनके लिए प्रयुक्त विशेषण इन सब तक पहुँचते हैं या नहीं किन्तु प्रयोक्ता का मानसिक स्तर और रुचि अवश्य सार्वजनिक हो जाती है। कई बार यह सब, कहनेवाले के संगठन की संस्कृति का भी परिचायक बन जाता है।
घटिया शब्दावली से दूर रहने का संकेत देते हुए मैंने, अपने लेटर हेड पर छाप कर, कुछ पन्ने फेस बुक पर लगाए थे। उनमें से दो पन्नों को भरपूर प्रशंसा मिली थी। इस समय तो वे नहीं मिल रहे किन्तु वे कुछ इस तरह थे - ‘घटिया भाषा/शब्दावली में कही गई अच्छी बात भी अनदेखी रह जाती है।’ और ‘घटिया शब्दावली/भाषा सबसे पहले हमारी पहचान उजागर करती है।’
बोलचाल की भाषा और लेखन की भाषा में जमीन-आसमान का अन्तर होता है - शब्दावली के लिहाज से भी और व्याकरण के लिहाज से भी। लेकिन बोलचाल की भाषा भी दो स्तरों पर प्रयुक्त होती है - बन्द कमरों में और सार्वजनिक स्थानों/मंचों पर। कहना न होगा कि दोनों ही के स्वरूप अलग-अलग होते हैं। जो इनका ध्यान नहीं रखता, लोक निन्दा का पात्र बनता है। टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में, जगहँसाई के ऐसे प्रसंग इन दिनों आसानी से देखने में आ रहे हैं जहाँ अच्छे-अच्छों के आभिजात्य और शालीनता का मुलम्मा उतर कर नालियों में बहा जा रहा है।
ऐसे में मुझे, कोई पचीस बरस पहले की एक घटना बार-बार याद आ जाती है। वस्तुतः याद नहीं आती, वह अमीबा की तरह जीवित/सक्रिय हो उठती है। भाषा का वह चमत्कार मैं कभी नहीं भूल पाता।
यह सम्भवतः 1984-85 की बात होगी। अपनी, एक व्यापारिक यात्रा से मैं गुवाहाटी से लौट रहा था। मेरी रेल बिहार अंचल से गुजर रही थी। अचानक ही किसी के, जोर-जोर से बोलने की आवाज आने लगी। आवाज में तैश तो था ही, शब्दावली भी अभद्र-अशालीन थी। सार्वजनिक रूप से जितनी भद्दी गालियाँ दी जा सकती थीं, दी जा रही थीं। कुछ क्षण तो मेरा ध्यान नहीं गया किन्तु ज्यादा देर तक अनसुनी नहीं कर सका। विशेष बात यह थी कि एक ही आदमी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। यह तो साफ था कि वह किसी न किसी को सम्बोधित कर रहा था किन्तु दूसरे की आवाज कहीं नहीं थी। इसी बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। झगड़ा या कि विवाद तो दो लोगों में होता है! झगड़े में कम से कम दो पक्ष तो होते ही हैं। यहाँ दूसरा पक्ष अनुभव ही नहीं हो रहा था!
मुझसे रहा नहीं गया। उठकर, मौका-ए-बवाल पर पहुँचा। देखा - एक आदमी, उस स्लीपर डिब्बे में, आने-जानेवाली जगह में खड़ा होकर, खिड़की के पास बैठे दूसरे आदमी पर गालियों की बरसात किए जा रहा था। खिड़की के पास बैठा आदमी, पल-दो पल के लिए गर्दन फेर कर बोलनेवाले की ओर देख लेता और फिर बाहर देखने लगता। आठ यात्रियोंवाले उस खाँचे के आस-पास, मुझ जैसे ही दो-चार लोग और आकर खड़े हो गए थे। स्थिति यह कि बोलनेवाला लगातार बोले जा रहा और खिड़की के पास बैठनेवाला उसे ‘क्षणिक दृष्टिपात’ से अधिक के लिए उपकृत नहीं कर रहा।
कोई आठ-दस मिनिट के बाद, बोलनेवाला चुप हो गया और तमतमाए चेहरा लिए, खड़ा-खड़ा, खिड़की के पास बैठे आदमी को घूरने लगा।
कुछ पलों की चुप्पी के बाद, खिड़की के पास बैठा आदमी, बहुत ही शान्त, संयत और ठण्डी आवाज में बोला - ‘बस! बोल लिए आप? कहना था जो कह लिया? खुश हो गए हमें चुप देखकर? जनाब! जो कुछ आपने कहा, वैसा/वह सब कहने के लिए न तो देर लगती है और न ही अकल। लेकिन वैसा कहना हमारी फितरत में नहीं है। बोलना हमें भी आता है। जनाब! अपनीवाली पर आ जाएँगे तो आपकी वालिदा से रिश्ता जोड़ने में हमें एक लमहा भी नहीं लगेगा। बोलिए! करें वैसा?’
यह सुनना था कि मानो डिब्बे में मोगरा-गुलाब महक गए। लोग ‘अश!-अश!’ कर उठे। और वह, गालियाँदेनेवाला? वह ऐसा झेंपा कि माफी माँगने की दशा में भी नहीं रह पाया। गर्दन नीची किए, चुपचाप चला गया।
इस घटना का और बखान कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा। जितनी सुन्दरता से उस आदमी ने माँ की गाली दी, वैसी सुन्दरतावाली भाषा मेरे पास नहीं है। इस घटना का आनन्द तो ‘गूँगे के गुड़’ की तरह ही लिया जाना चाहिए।
कहना आसान होता है, न कहने में साहस जुटाना पड़ता है। कहने के बाद बहुत ग्लानि भी होती होगी।
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
कोटिश: धन्यवाद और आभार।
Deleteसेर को भी सवा सेर मिल ही जाते है । गाली भी हो तो सुरीली ।
ReplyDeleteAPANA APANA STYLE HAI BABA .
ReplyDeleteक्या बात है!
ReplyDeleteहोमुयोपैथिक दवा से, होते मीठे व्यंग्य |
ReplyDeleteउदासियों को दूर कर,भरते 'ज्ञान का रंग' ||
सामने वाले को कभी कमजोर नहीं आंकना चाहिए ,रोचक वाक्या
ReplyDeleteहम भूल गये हैं—लखनवी ज़बान में गाली देना’
ReplyDeleteवरना आप ऐसा ना कहते.खैर,सही कहा,आपने.