दिल्ली की मनमोहन सरकार और शीला सरकार परेशान है - कोई एक सप्ताह से दिल्ली में जो हो रहा है उससे। तमाम गैर काँग्रसी दल खुश हैं - कोई एक सप्ताह से दिल्ली में जो हो रहा है उससे। दोनों की परेशानी और खुशी ज्याद दिन टिकती नहीं लगती। आज का सच तो यही है कि आनेवाले कल में दोनों के पाले बदल जाएँगे। आमने-सामने तो दोनों तब भी होगी किन्तु दिशाएँ बदल जाँएगी।
दोनों की सापेक्षिक प्रतिक्रियाएँ अपनी जगह किन्तु मेरी निरपेक्ष अनुभूति इस सबको एक ‘शुभ-शकुन’ मान रही है। यह वह शुरुआत है जो सोलह अगस्त 1947 से ही हो जानी चाहिए थी। देर से ही सही, शुरुआत तो हुई! अपने सूने आवास में, अपने लेपटॉप पर यह सब मैं ‘मुदित-मन‘ और ‘प्रफुल्ल वदन’ से लिख रहा हूँ। आधी सदी से भी अधिक देर से ही सही, मेरा ‘गण-देवता’ जागा तो! अचेतन में आशंका या कि भय है तो बस यही कि यह सब कहीं एक घटना से शुरु होकर एक घटना पर ही समाप्त न हो जाए। नेतृत्वविहीन जो जमावड़ा आज दिल्ली की सड़कों पर उमड़ा है, वह देश की गली-गली में उमड़ना चाहिए - स्वस्थ और सजग लोकतन्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है यह। दिल्ली की दोनों सरकारें यदि इसे केवल राजनीतिक साजिश समझ रही हैं (जो कि कमोबेश हो भी गई है) तो यह ‘सत्ता से बेदखली के डर से उपजी सहज बेचैनी’ ही है। और जो प्रतिपक्ष मन ही मन बल्लियों उछल रहा है वह नहीं जान रहा कि मनमोहन और शीला का यह ‘आज’, उसका ‘कल’ है। सत्ता का पविर्तन, अविराम समय चक्र का स्वभाव भी है और सच भी।
आजादी के ठीक बाद से एक अपराध इस देश ने स्वीकार कर रखा है - अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक। अपराध यह कि वोट देने के बाद हम अपने आप को तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त मान लेते हैं। हमने वोट दे दिया, सरकार बना दी। बस! हमारा काम खतम! अब जो भी करना है, सरकार करेगी। हमें कुछ नहीं करना है। और यही विचार, यही मानसिकता हमारी सारी समस्याओं की जड़ बनी बैठी है। सरकार न हुई गोया, कोई ऐसा तीसरा पक्ष है जिससे हमें कोई लेना-देना नहीं है। सरकार को चाहे जो चलाए, चाहे जिस तरह से चलाए - हमें कोई लेना-देना नहीं। हमारी आत्म-वंचना का चरम यह कि जिसे हम ही नेता बनाते हैं, उसे जी भर कर गालियाँ देते हैं। जिनके हाथों सरकार सौंपते हैं, उन्हें पहले ही क्षण से चोर-डकैत कहना शुरु कर देते हैं। उन्हें छुट्टा छोड़ देते हैं - इतना कि वे निरंकुश होने की सीमा तक उच्छृंखल हो जाएँ। लेकिन हम यहीं नहीं रुकते। यह सब कर हम खुद को निर्दोष मानने की सीनाजोरी भी कर लेते हैं और फिर शुरु कर देते हैं अपनी निरीहता, दयनीयता, विवशता का विलाप/प्रलाप - उसी नेता को इस सबके लिए जिम्मेदार घोषित करते हुए। अपनी तकदीर उसे सौंप कर हम उससे कभी-कोई सवाल नहीं करते। इस चुप्पी के पीछे भय नहीं होता। होती है हमारी स्वार्थी मानसिकता। क्या पता - सवाल पूछने पर नेता नाराज हो जाएगा और हमारा नुकसान कर देगा। ‘खोने का खतरा’ उठाने को हम बिलकुल ही तैयार ही नहीं। यह जानते हुए भी कि बिना कुछ खाये, कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। नो रिस्क, नो गेन। मोअर रिस्क, मोअर गेन्स। हम ऐसा समाज बन गए हैं जो कुछ भी खोए बिना सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है। ऐसे मे ‘कुछ’ हासिल हो तो कैसे? हो ही नहीं सकता। इसीलिए हम चौबीसों घण्टे, खुद को ‘लुटे-पिटे’ माने बैठे रहते हैं और इसी का विलाप-प्रलाप करते रहते हैं।
लेकिन दिल्ली का यह जमावड़ा इस सबको, स्लेट पर लिखी इबारत को पोंछने की प्रभावी शुरुआत हो सकती है। बलात्कार का मुद्दा सर्वकालिक, सर्वदेशीय है। मध्य प्रदेश भाजपा के सन्त नेता कैलाश जोशी ने, एक पुलिस जवान द्वारा किए गए बलात्कार के बचाव में, विधान सभा में, मुख्यमन्त्री पद से बोलते हुए कहा था - ‘बलात्कार सहज मानवीय स्वभाव है।’ गलत नहीं कहा था उन्होंने। लेकिन बरसों पहले जब उन्होंने यह कहा था तब बलात्कार की घटनाएँ आपवादिक होती थीं - अंगुलियोंके पोरों पर गिनने लायक। भौतिकता और उपभोक्तावाद के अतिगतिवान विकास ने आज हमारी सम्वेदनाएँ मानो भोथरी कर दी हैं। विलासिता के उपकरणों/कारकों के आक्रामक विज्ञापनों ने ‘स्त्री’ को ‘चीज’ में बदल दिया है। हम ‘आदिम और चरम आत्मकेन्द्रित’ बनते जा रहे हैं। पड़ौसी का दर्द अब हमारा दर्द नहीं रह गया। ऐसे में बलात्कार की घटनाएँ अब हमारे दैनन्दिन जीवन का दुर्भाग्यपूर्ण अनिवार्य हिस्सा बनी रहेंगी। जिस तरह, आज की दशा अचानक नहीं हुई, उसी तरह इसे सुधरने में कम से कम उतना ही समय नहीं, उससे कई गुना अधिक समय लगेगा। बिगाड़ तेजी से होता है और सुधार बहुत धीमी गति से।
सो, बुराई में अच्छाई देखने की कोशिश करते हुए आशा की जा सकती है कि जो सवाल आज दिल्ली में पूछे जा रहे हैं, वे ही सवाल आनेवाले दिनों में, गली-गली में पूछे जाएँगे। केवल दिल्ली में हुआ बलात्कार, बलात्कार नहीं माना जाएगा। तब, जो लोग आज, दिल्ली के नेतृत्वविहीन जमावड़े के पीछे खड़े होकर खुश हो रहे हैं, उनसे सवाल पूछे जाएँगे। तब उनके पास कोई बहाने नहीं होंगे। तब, आज, शीला और मनमोहनसिंह की सरकारों द्वारा दिए जा रहे जवाब वे नहीं दोहरा सकेंगे। अवसरवादी राजनीति सदैव ही दुधारी तलवार होती है।
इसीलिए दिल्ली की यह शुरुआत - अपने नेताओं से सवाल पूछने की शुरुआत ‘शुभ-शकुन’ अनुभव होती है।
आनेवाले कल में फिर (बलात्कारवाली) ‘दिल्ली’ न हो, इसलिए जरूरी है कि हर गली, नेतृत्वविहीन जमावड़ेवाली दिल्ली बने।
हे! गण-देवता! देर आयद, दुरुस्त आयद। दिल्ली की सड़कों पर आ गए हो। अच्छा है। लेकिन गली-गली में, सड़कों पर उतरो। नेताओं को सत्ता की माँद से निकालने के लिए तुम्हारा सड़कों पर बने रहना जरूरी है।
"यह वह शुरुआत है जो सोलह अगस्त 1947 से ही हो जानी चाहिए थी। देर से ही सही, शुरुआत तो हुई!"
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति... आभार
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 25/12/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है ।
ReplyDeleteदिल्ली से शुरू हुआ ये विरोध,अवश्य गली गली सड़कों पर उतरेगा । अब तो हद हो चुकी है ।
ReplyDeleteसंकेत है जो स्पष्ट रूप से समझना ही होगा।
ReplyDelete