गच्चा (‘मनुहार भाभी’ की तीसरी कहानी)

 




श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की तीसरी कहानी




गच्चा 


सार्वजनिक जीवन में यूँ तो वक्त-बे-वक्त न जाने कितने गच्चे खाने पड़ते हैं, पर इस बार विधायकजी ने जो गच्चा खाया है उसका तोड़ नहीं। वे उस दिन से आज तक सन्न बैठे हैं। पहले की तरह चहकते, महकते, बोलते नहीं हैं। सँभल-सँभल कर बात करने लगे हैं। राजधानी में उनसे सीनियर लोगों ने, उनको तरह-तरह से समझाया था कि पब्लिक लाइफ में कहाँ-कहाँ सावधान रहना चाहिए। चूँकि विधायकजी नए-नए चुनकर गए थे, इसलिए अपने से पहले वालों से हेलमेल बढ़ाना और उनके अनुभवों का लाभ लेना  उनकी शैली का एक हिस्सा था। फिर पार्टी ने भी उनको हिदायत दी थी कि विधायी कामों में वे पार्टी दफ्तर और अपने से वरिष्ठ लोगों की बातों को ध्यान में रखें। इससे उनको भी लाभ होगा और पार्टी को भी। पार्टी भी पहली-पहली बार पॉवर में आई थी, सो पार्टी को अपना ध्यान चौकस होकर रखना पड़ रहा था।

साल-छह महीने तो विधायकजी ने इन सारी बातों को गम्भीरता से लिया, पर शनैः-शनैः वे राजधानी के चरित्र से वाकिफ हो गए और उन्होंने अपना सारा ध्यान सचिवालय के गलियारों में केन्द्रित कर दिया । बस, यही वह मुकाम था, जहाँ गच्चा खा गए। मलाल इस बात का था, कि गच्चा भी एक नौसिखिए से खाना पड़ा। बिना किसी बात और बिना किसी काट के यह सब हो गया। पार्टी में आबरू लड़खड़ा गई। जनता में औकात सामने आ गई और राजनीति में लम्बी मार खा गए। कलेजे पर घाव कुछ ऐसा लगा, कि रह-रहकर सहलाना पड़ रहा है।

वे उस दिन को कोस रहे थे, जिस दिन अपने लग्गू-भग्गू के कारण अपने नगर में अच्छा-भला काम करते जा रहे नगरपालिका प्रशासक की खिलाफत कर बैठे और नगरपालिका मन्त्रीजी से उसका तबादला माँग लिया। पार्टी का मामला और नये-नये विधायकजी की प्रष्ठिा का सवाल! सो मन्त्रीजी ने मुख्य मन्त्रीजी को भरोसे में लेकर विधायकजी का प्रस्ताव मान लिया। प्रशासक महोदय बदल दिए गए। इलाके में विधायकजी की धाक जम गई। उनके चंगू-मंगू इस तबादले के बाद बाजार में निकले, तो बाजार की सड़कें सँकरी पड़ गईं। पूरे एक हफ्ते तक वे अपनी मोटर सायकलों, मोपेडों और स्कूटरों पर, सरकारी दफ्तरों में न जाने किन-किन को सुना-सुनाकर न जाने क्या-क्या टर्रात रहे। उन्होंने जमकर प्रचार इस बात का किया, कि आने वाला प्रशासक हमारी मनमर्जी का होगा। जो हम कहेंगे वही चलेगा। जैसा हम चाहेंगे वैसा ही होगा। विधायक हमारी मुट्ठी में है। सरकार हमारे दम पर है।

अच्छा-भला प्रशासक जनसेवा और लोकप्रियता का एक अध्याय अपने पीछे छोड़कर जनता द्वारा सम्मानित किन्तु विधायकजी और उनके टटपूँजिए लगुओं-भगुओं द्वारा सरेआम अपमानित होकर दूसरे शहर के लिए रवाना हो गया। दस-पाँच लोगों ने उनसे कहा भी कि यदि वे चाहें तो उनका तबादला कैंसिल करवाने के लिए, पार्टी का दूसरा धड़ा कोशिश कर सकता है, पर उन्होंने हाथ जोड़ लिए। लोग अगले प्रशासक की प्रतीक्षा करने लगे।

सचिवालय के गलियारों में घूमते-घामते ही एक दिन नगरपालिका मन्त्रीजी ने विधायकजी को देखा और अपने चेम्बर में बुलवाकर, उनके सामने नए तबादलों की एक फाइल रख दी। दस-बारह नामों में से अपने गाँव के लिए नया प्रशासक चुन लेने का आग्रह उन्होंने विधायकजी से किया। कहा, कि आपकी पसन्द का नाम बता दो। आदेश आज ही हो जाएगा। फाइल को निपटाना जरूरी है। कई विधायकों का दबाव उन पर आ रहा है। बहुत सारी नगरपालिकाएँ खाली पड़ी हैं और मुख्य मन्त्रीजी बिना वजह नाराज हो रहे हैं। विधायकजी ने चाहा जरूर कि वे फोन लगाकर अपने मित्रों से पूछ लें, उसके बाद आदेश दे दिए जाएँ। पर समय की कमी और दूसरे विधायकों की हलचल से वे अपनी मर्जी का आदमी चुन ही नहीं सके। सूची में एक मात्र नाम बचा था लालाजी का। मरे मन से विधायकजी ने लालाजी के नाम पर अपनी सहमति दे दी। मन्त्रीजी ने हस्ताक्षर कर दिए और आदेश जारी हो गए।

पानी के पहले पाल बाँधना विधायकजी ने ठीक समझा। रात को अपने कमरे से टेलीफोन पर उन्होंने अपने भरोसे के उन्हीं चंगू-मंगू को सूचित कर दिया कि नए प्रशासक के तौर पर, अपने यहाँ लालाजी आ रहे हैं। मन्त्रीजी ने सुलझा-समझा आदमी अपने को दिया है और खास बात यह है कि यह आदमी मुख्य मन्त्रीजी की पसन्द का है। जनता, सरकार और पार्टी, सभी का ध्यान रखेगा।

लालाजी चार्ज लें, उससे पहले ही लालाजी को लेकर न जाने कितने किस्से शहर की हवा में फैल-पसर गए। न किसी ने लालाजी को देखा था, न कोई उन्हें जानता था। हाल यह था कि लालाजी बिना रिलीज हुई फिल्म के अज्ञात हीरो की तरह चर्चा और प्रसिद्धि में आ गए थे।

लालाजी ने चार्ज लेकर वातावरण को गहरे से देखा। परिवेश को भाँपा। लोगों को समझा। नए-नए प्रशिक्षित होकर आए थे, सो अपने प्रशिक्षण को कसौटी पर लगाने का मानस बनाया। इष्ट देवता को मन-ही-मन याद किया। नगर के मन्दिरों पर धूप, अगरबत्तियाँ कीं और सीधे कार्यालय की सीढ़ियाँ चढ़ गए। स्टॉफ उनका स्वागत करे, उससे पहले ही उन्होंने अपनी ओर से स्टॉफ का चाय-पानी कर दिया। इस कार्यालय में यह एक नई परम्परा थी। स्टॉफ को बदलाव साफ-साफ दिखाई दे रहा था। हँसते-मुस्कुराते लालाजी, बिना किसी संकोच और लिहाज के हर किसी टेबल के सामने चले जाते। वहीं पड़ी किसी कुर्सी पर बैठते और फाइल निपटा देते। ज्यादा पूछताछ वाली फाइल होती तो अपने कमरे में सम्बन्धित कर्मचारियों की गोलमेज बैठक लेते। फाइल पर जहाँ की तहाँ टीप लग जाती और आनन-फानन फाइल निपट जाती। फैसला हो जाता। लालफीता, खुला का खुला रह जाता। लोगों ने विधायकजी को इस शानदार पसन्द पर उनके घर जा-जाकर बधाइयाँ दीं। विभाग के मन्त्रीजी और मुख्य मन्त्रीजी का आभार माना कि इतना शानदार आदमी उन्होंने इस नगर को दिया। विधायकजी से नमस्कार करने वालों के तौर-तरीके बदल गए। पार्टी के पदाधिकारी गद्गद् । सरकार, पार्टी और विधायकजी की लोकप्रियता का ग्राफ ऊँचा हो चला। परेशानी उन लोगों को जरूर हुई, जो चाहते थे कि नया प्रशासक विधायकजी से सीधे संवाद नहीं करे। जब विधायकजी उनकी मुट्ठी में चल रहे हैं, तो फिर लालाजी को यह बात समझनी चाहिए। सोच-विचार हुआ। रणनीति तय हुई। 

लालाजी को एक दिन विधायकजी के घर चाय पर बुलाया गया। बहाना था, जन-समस्याओं और नगर-विकास के अगले कार्यक्रम पर सिलसिलेवार बात करने का। लालाजी पहुँचे। चाय-बिस्किट हुए। नगर की समस्याओं पर बातें हुईं। बात-बात में भाई लोगों ने विधायकजी से कहलवा ही लिया कि ‘ये लोग मेरे अपने ही हैं और यूँ मान लेना, कि इन्होंने जो कहा है, वह मैंने ही कहा है।’ लालाजी ने सिर झुकाकर, निर्देश पर गर्दन हिलाई। गोष्ठी विसर्जित हो गई।

पाँच-सात दिनों में ही लालाजी ने देखा कि विधायकजी के ‘मानस-पुत्रों’ की हलचल, नगरपालिका कार्यालय जरूरत से ज्यादा बढ़ चली है। वे बात-बेबात सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप करने लगे हैं। उनकी भाषा में बदलाव आ गया है। अपने दायरे से वे बाहर होते जा रहे हैं। जब देखो तब पार्टी, जब देखो तब सरकार, जब देखो तब विधायकजी और जब देखो तब जाने वाले प्रशासक महोदय की हालत का हल्ला करने लगे हैं। वे सरकार को बाँदी और सरकार के कर्मचारियों का गुलाम से ज्यादा कछ नहीं मानते हैं। पार्टी-हित और जन-हित की दुहाई देकर, बहुत कुछ वैसा चाहते हैं, जो कि लालाजी न तो कर सकते थे, न करना ही चाहते थे। यारों का दाँव घूम-फिर कर बजट और आर्थिक प्रावधानों पर आकर ठिठक जाता था। लालाजी के पास उम्र चाहे अधिक न हो पर प्रशिक्षण पूरा था। वे कसौटी पर थे। जब लालाजी ने देखा कि विधायकजी के ‘चेतना प्रहरी’ राजमार्ग पर आड़े-टेढ़े चल रहे हैं, तो उन्होंने अपनी पगडण्डी अलग बनाने का रास्ता निकाल लिया। एक-आध बार उन्होंने विधायकजी के कान में यह बात डाली भी कि उन्हें भाई लोगों के कारण, काम करने में असुविधा हो रही है, पर विधायकजी ने सिगरेट के धुएँ में लालाजी की सारी बात उड़ा दी। लालाजी ने समझ लिया, कि विधायकजी कन्नी काट रहे हैं। विधायकजी या तो लाचार हैं या मक्कार। लालाजी विधायकजी को समझाने की असफल कोशिशें करते रहे। चंगू-मंगू अपनी पतंगें चढ़ाते रहे। उनको लगा कि अगर लालाजी हाथ से फिसल गए तो सारे दफ्तरों में उनकी किरकिरी हो जाएगी। दाँव-पेच शुरू हुए। मौके की तलाश में दोनों किनारों पर चहल-पहल थी। लालाजी चौकन्ने। चंगू-मंगू घात में। अनायास समाचार मिला, कि लालाजी आठ-दस दिनों के लिए सरकारी काम से राजधानी जा रहे हैं। विधायकजी पहले ही वहाँ बिराज रहे थे। कह गए थे कि क्षेत्र की गतिविधियों से मुझे अवगत रखना।

तीन-चार दिनों के बाद शहर में हल्ला मचा, कि एक दिन राताें-रात एक भाड़े के ट्रक ने, चार-पाँच बिजली के पंखे और इतने ही कूलर नगरपालिका कार्यालय पर उतारे हैं और वे उसी दम कार्यालय खुलवाकर चुपचाप प्रशासक महोदय के कमरे के पास वाले हॉल में रखवा दिए गए हैं। कहने वाले ने कहा कि यह सारी खरीदी अवैध हुई है। बिना किसी टेण्डर के यह सारा माल खरीदा गया है। रातों-रात इसे दबे-छुपे तौर पर, कार्यालय में रखवा लिया गया है। लालाजी इसलिए गोता लगा गए हैं, कि खुद को बचा सकें। विधायकजी के विश्वस्तों ने हल्ला मचाया कि इसमें लालाजी ने भारी कमीशन खाया है और एकदम रद्दड़ माल नगरपालिका के माथे मढ़ दिया गया है। माल के बिल में घपला है। यह ओव्हर बिलिंग का मामला है। प्रशासक पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। लिखत-पढ़त हुई। तार-टेलिफोन हुए। राजधानी में सोते हुए विधायकजी को जगाकर सारे मामले की जानकारी दी गई। उन्हें सचेत किया गया कि यह पार्टी की छवि और इज्जत का सवाल है। छोड़ना मत। लालाजी का संक्षिप्त कार्यकाल, विधायकजी की चेतना में घूम गया। उन्होंने एक क्षण का लेखा-जोखा मन-ही-मन लिया और इस नतीजे पर पहुँचे कि घपला जरूर हुआ है। अगर घपला नहीं होता तो लालाजी राजधानी में आने के बाद विधायकजी से दो-एक बार मिल लिए होते। 

दूसरे दिन विधायकजी नगरपालिका मन्त्रीजी के सामने, शिकायती मुद्रा में सील-सिक्के वाले अपने पत्र के साथ जा बैठे। पहले कमिश्नर को, फिर कलेक्टर को और अन्ततः एस.डी.ओ. साहब को टेलीफोन पर विधिवत सूचना दिलवाई गई कि जहाँ कहीं भी हों, लालाजी को अड़तालीस घण्टों के भीतर कूलर और पंखों की खरीद की फाइल के साथ राजधानी में मन्त्रीजी के सामने हाजिर होना है। मन्त्रीजी पहले आश्वस्त हो जाएँ फिर जाँच-पड़ताल होती-हुआती रहेगी। कार्रवाई ने सारे इलाके में सनाका खींच दिया । लालाजी की खोजबीन हुई। राजधानी के एक होटल में वे आसानी से मिल गए। फाइल के लिए उन्होंने चौबीस घण्टों का समय माँगा।

और ये लो, दिए गए समय में लालाजी, मन्त्रीजी के दरवाजे पर, फाइल लिए तैयार। लालाजी ने मन्त्रीजी के पी.ए. साहब के सामने फाइल रखते हुए निवेदन किया कि मन्त्रीजी पहले फाइल देख लें। उसके बाद वे विधायकजी को भी बुलवा लें और उचित कार्रवाई कर दें। सरकार का आदेश सिर माथे।
मन्त्रीजी ने फाइल देखी। फाइल में बाकायदा चार टेण्डर लगे थे। जिस संस्थान का टेण्डर सबसे कम राशि का था, उसी से माल खरीदा गया था। बिल की पाई-पाई, पक्की रसीदें प्राप्त करके चुकाई गई थी। मन्त्रीजी ने पी.ए. साहब से कहकर विधायक महोदय का शिकायती पत्र उस फाइल में लगवा दिया। शिकायत थी अवैध खरीद की, खराब माल की, ओव्हर बिलिंग की, प्रशासक द्वारा कमीशन खाने की, बिना मंजूरी के खरीददारी करने की और अनधिकृत संस्थान से माल परचेज करने की।

आँखें तरेरते हुए विधायकजी ने मन्त्रीजी के कक्ष में प्रवेश किया। रातों-रात उनके मानस-पुत्र भी राजधानी पधार गए थे। वे भी साथ में थे। मन्त्रीजी ने पूछा - ‘लालाजी, सच्चाई क्या है?’ लालाजी का उत्तर था-‘श्रीमान्! विधायकजी की शिकायत शत-प्रतिशत सही है। माल बेकार हो सकता है। बाजार भाव से ज्यादा के बिल अगर  बने हैं तो सामने हैं। किसको कितना कमीशन मिला, यह जाँच-परख का मुद्दा है। चार संस्थानों के टेण्डर आप देख ही रहे हैं। माल खरीदने के लिए कलेक्टर महोदय की परमीशन फाइल में दर्ज है। मैं इतनी रकम का माल खरीद नहीं सकता था। पाई-पाई की रसीद, वह भी पक्की, आपके सामने है। यदि विधायकजी चाहें तो सारा माल अभी भी वापस करके, राशि वापस ली जा सकती है। सरकार से ऊपर कोई नहीं है। रहा सवाल मेरे कमीशन का सो मैं जब से नौकरी में आया हूँ, आप ही का दिया खाता हूँ। आप आदेश करें, तो मैं कूलर और पंखे कार्यालय में फिट करवाऊँ और आप आदेश करें तो उन्हें वापस करवा दूँ। भाड़ा मैं भुगत लूँगा। अगर संस्थान ने कोई रकम कम-ज्यादा की, तो मैं अपनी तनख्वाह से चुका दूँगा। मैं तो हूँ ही आपका नौकर। आपके आदेशों की अवहेलना करके कहाँ रह सकूँगा? अगर कूलर और पंखे फिट होते हैं तो मेरे बाद वाले लोग भी उसका लाभ लेंगे। मेरे अपने घर में या सरकारी क्वार्टर में तो ये लग नहीं रहे हैं!’

लालाजी अपनी बात पूरी करते, तब तक विधायकजी का एक चेतना प्रहरी पूछ उचका - ‘मन्त्रीजी, आप मेहरबानी करके इनसे इतना तो पूछ लो कि यह माल इन्होंने खरीदा किस संस्थान से है? क्या दूसरे व्यापारी मर गए थे?’

लालाजी ने स्वीकृत टेण्डर वाला पन्ना मन्त्रीजी के सामने सरकाते हुए निवेदन किया - ‘सर! आप टेण्डर और रसीद दोनों देख लें। पूरा नाम-पता छपा हुआ है। इसमें छिपाने की कौनसी बात है? जो पंखे आए हैं, जो कूलर आए हैं उन पर भी कम्पनी के स्टिकर लगे हुए हैं। यदि हम्मालों ने उन्हें औंधे-सीधे रख दिया हो, तो उन्हें सीधे करके वहीं देख लिया होता। सारा माल पेटी-पैक वहीं पड़ा है। मैं तो वहाँ था नहीं। इधर नगर विकास का फण्ड लेने राजधानी आया हुआ था। दरोगा ने पेटी-बक्से मेरी गैरहाजिरी में जमवा लिए हैं।’

मन्त्रीजी ने मंजूरशुदा टेण्डर वाला फॉर्म और पेमेण्ट की रसीद वाला फॉर्म, विधायक महोदय की ओर करते हुए, फाइल विधायकजी को सौंप दी-‘देख लीजिएगा। जिस संस्थान से माल खरीदा गया है, वह है तो आपके सम्भाग का ही। आप शायद जानते भी होंगे। यदि अनधिकृत हो, तो मुझे बता दें। मैं जाँच बैठा दूँगा।’

विधायकजी ने टेण्डर फॉर्म जो देखा, तो उन्हें लगा, कि सचिवालय की छत भरभराकर उन पर आ गिरेगी। ललाट पसीने से नहा गया। साँस फूल गई। धड़कन तेज हो गई। अपने चंगू-मंगू की तरफ देखते हुए बोले - ‘मरवा दिया न तुमने?’ 

मन्त्रीजी क्षण की नजाकत को समझ गए। उन्होंने विधायकजी के हाथों से फाइल ली। लालाजी पूरे प्रशिक्षित थे। तत्काल फाइल उठाकर, आदेशार्थ मन्त्रीजी की ओर देखते हुए खड़े रह गए। मन्त्रीजी ने लालाजी को बाहर जाने का इशारा किया। लालाजी ने मन्त्रीजी और विधायकजी को धन्यवाद दिया और कमरे में सन्नाटा छा गया। चंगू-मंगू हक्के-बक्के खड़े, करीब-करीब काँप रहे थे। उनकी मुद्रा से लगता था, मानो कह रहे हों कि ‘हमें क्या पता था कि यह फर्म.......!’

विधायकजी गिड़गिड़ाते हुए मन्त्रीजी से एक ही निवेदन कर रहे थे कि कुछ भी करके आप मेरा यह शिकायती पत्र, उस फाइल में से निकलवा कर मुझे दिलवा दीजिए, या फाड़कर फेंक दीजिए।

मन्त्रीजी ने पी.ए. की तरफ देखा। पी.ए. ने लाचारी दिखाई। बोला - ‘सर, यह असम्भव है। लेटर फाइल में लग चुका है। वह सरकारी सम्पत्ति है। लालाजी चाहें तो भी अब......’

‘जानता हूँ कि घुटना पेट की तरफ ही झुकेगा। सरकारी नौकर सरकारी नौकर का ही पक्ष लेगा।’  मन्त्रीजी बोले। उन्होंने पी.ए. साहब को भी कमरे से बाहर जाने का संकेत किया- ‘जाइए विधायकजी और उनके कार्यकर्ताओं के लिए ठण्डा भेजिए।’ पी.ए. साहब निर्देश लेकर चले गए।

अब कमरे में केवल मन्त्रीजी, विधायकजी और उनके दोनों चंगू-मंगू थे और एक गम्भीर दमघोंटू चुप्पी थी। मन्त्रीजी ने इस चुप्पी को तोड़ा - ‘बन्धु!, विधायकी करते हो और इतना भी नहीं जानते हो, कि राज किसका है और आपका पाला किससे पड़ा है? जानते हो, कि यह फर्म किसकी है तो फिर क्या उसने कमीशन दिया होगा? आपके और मेरे बाप की भी हिम्मत है कि ओव्हर बिलिंग को कम करवा दे? आपके ये चंगू-मंगू आपको मरवा देंगे। मुख्यमन्त्रीजी वैसे ही आप पर चोर नजर रखे हुए हैं। उन्हें पूरा शक है, कि आप इन दिनों असन्तुष्ट गतिविधियों में संलग्न हैं।  लालाजी को खुश रखो। कहीं वह फाइल, किसी ने मुख्यमन्त्रीजी के सामने रख दी तो सारा भविष्य हमेशा के लिए चौपट हो जाएगा। प्रशासन का मतलब समझ लोगे तो सुखी रहोगे। नमस्कार।’
 -----


 कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
   

  
 
 
 
       

   
 

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.