आस्था सतवन्ती (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की दूसरी कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की दूसरी कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।

 


आस्था सतवन्ती 

तेरह महीनों का विशु अपनी दादी कृष्णा के आस-पास खेलता-ठुमकता अनायास बोल उठा, ‘मा.....मा.....पा..... न.....न.....म’

कृष्णा ने चौंककर उसे देखा। पल भर को वह अवाक् रह गई। उसने विशु को लपककर थामा,  कलेजे से लगाया और गाल, सिर, मुँह, पीठ, पेट, ओठ, हाथ चूम-चूमकर चुम्बनों से जड़ दिए। रोमांच और पुलक के मारे वह चीख मारकर गाँव-मुहल्ले को सुना देना चाहती थी, पर चुप रहने को वह विवश थी। उसका अवाक्पन शनैः-शनैः चुप्पी में बदलता जा रहा था। आँसू थे कि टूटने का नाम नहीं ले रहे थे। बार-बार वह आँचल से अपनी आँखें पोंछती थी और विशु को सीने से लगाए कमरे में यहाँ-वहाँ बावली-सी घूमती फिर रही थी। विह्वलता के आवेग ने उसकी क्रियाओं का सारा क्रम ध्वस्त कर दिया था। उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और कैसे करे? पहले क्या करे और बाद में क्या करे? उसने विशु को एक बार फिर सीने से लगाया, संयत होकर उसे चूमा। विशु ने अपनी अबोध आँखों से अपनी दादी को किलकते हुए देखा और वह फिर से बोलने की कोशिश करने लगा। वह बोला, ‘मा.....मा.....न.....पा.....मा.....दे’। और फिर किलकने लगा। हालाँकि विशु तेरह  महीनों का ही था, पर उसे दादी का यह व्यवहार रास नहीं आ रहा था। उसे अपने मुक्त रमणक मन में दादी का यह नया रूप बाधा जैसा लगा। अपनी झुँझलाहट उसने अप्रकट नहीं रखी। जितना दादी उसे सीने से लगाती उतना ही वह छूटकर भागने की कोशिश करता और दादी को उसने दिखा दिया कि कमरा आज उसके लिए छोटा पड़ रहा है।

कृष्णा कुछ संयत हुई। उसे स्वयं भी पता नहीं था कि आनेवाले कितने दिनों तक अब उसे इसी तरह अवाक्, अबोले, चुपचाप और गूँगी बनकर अपने ही घर में अपनों के ही साथ रहना होगा। वह समझ नहीं पा रही थी कि अब उसके बोल उगलवाने के लिए जब विशु उसके ओठों को उँगली से टटोलक़र सितार के तारों की तरह झनझनाएगा तब वह बिना बोले विशु को किस तरह समझा सकेगी। इस सर्वथा नई स्थिति के लिए उसकी न तो मानसिक तैयारी  थी, न शारीरिक ही। वह यह भी नहीं समझ पा रही थी कि अपने घरवालों को वह किस तरह इस सबसे अवगत कराएगी। वह उठी। अपना पल्लू माथे पर डाला। किलकारियाँ भरते विशु को गोद में लिया। उसके कपड़ों को खींच-झटक कर करीने से किया। खड़ी हो गई सीधी पूजावाले आले के सामने। ताली बजाकर उसने हाथ जोड़े। विशु को हाथ जुड़वाकर प्रणाम करवाया। फिर आले का परदा खोला। देवी मैया के दर्शन किए। मन-ही-मन इस अपराध की माफी माँगी कि मैया, तेरे विश्राम का समय है। आज और अब माफ कर दे माँ। अब सब कुछ बदल गया है। न वह बोल सकती थी न बुदबुदा सकती थी, बिलकुल चुप ही तो रह सकती थी। उसने विशु का मुँह मैया की ओर करके चुटकी बजाकर विशु का ध्यान देवी माँ की ओर लगाने की कोशिश की। विशु ने एक पल को माँ की मूर्ति की तरफ देखा और वह फिर बोला ‘मा.....मा.....न.....न.....दा.....पा.....दे’। और कृष्णा फूट पड़ी। उसकी हिचकियाँ बँध गईं। आज वह चिल्ला-चिल्लाकर सारे मुहल्ले में विशु को लेकर यहाँ से वहाँ तक दौड़ लगाना चाहती थी, आसमान भर चीखना चाहती थी, मैया की आरती गाना चाहती थी, पर वह अवाक् थी, गूँगी थी, चुप थी।

उसने घड़ी देखीे। अभी दोपहर के सवा तीन भी नहीं बजे थे। उसका कलेजा रह-रहकर मुँह को आ रहा था। उसने समय का गणित लगाया। बाती बहू स्कूल से पढ़ाकर सवा पाँच बजे तक घर आएगी। पूरन मास्टर रात आठ या नौ बजे के आस-पास ही घर लौटेंगे। उमेश बेटा प्रेस शाम को सात बजे तक बन्द शायद ही करे। वह भी कभी-कभार रात को देर से घर लौटता है। दिनेश तो खैर घर के काम-काज से गया है एक सप्ताह के लिए अपनी मौसी के शहर।

विशु को कमरे में बैठाकर कृष्णा ने देवी माता के पूजा-स्थान को नए सिरे से साफ किया। सुबह की पूजा के बाद आस-पास जो धूल जम गई थी उसे झाड़ा। कमरे की झ्ााड़ू निकाली। हाथ-पाँव धोए, साड़ी बदली। सलीके से अपने बाल सँवारे और शुद्ध घी का नया-निकोर दीया माँ के सामने जलाकर रख दिया। अगरबत्ती जलाकर माँ को अक्षत-कुंकुम चढ़ाए। दीपक की लौ पर हथेलियाँ फिराकर पवित्र धूप से रचे हाथों का ताता-ताता स्पर्श पहले विशु की आँखों को दिया और फिर अपनी आँखों पर हाथ फिराकर वह विशु को उठानेे जा रही थी कि वह फिर बोल उठा, ‘पा.....न.....न.....दा.....दे.....पा.....मा’। कृष्णा नए आँसुओं से नहा उठी। उसने मैया को फिर प्रणाम किया। कमरे से बाहर अपने आँगन में आई। गमले मे लगी सदा-सुहागन के चाँर-पाँच फूल तोड़े और ताजे फूल मैया को चढ़ाने के लिए कमरे में चली गई। पहले उसने दो-एक फूल विशु से चढ़वाने का उपक्रम किया, फिर, बचे हुए फूल खुद ही चढ़ाकर माँ को प्रणाम किया। चौके में जाकर टाँड पर जमे तरह-तरह के कनस्तर व डिब्बों को देखा। एक डिब्बे में से गुड़ की भेली निकाली, तश्तरी में रखी। माँ को भोग लगाया और छोटा सा टुकड़ा विशु के मुँह में जबरन ठूँसकर एक टुकड़ा खुद भी खाया। विशु ने फिर बोलने का उपक्रम किया। कृष्णा ने घड़ी की ओर देखा। समय काटना उसके लिए कठिन ही नहीं असम्भव सा होता चला जा रहा था। मन-ही-मन वह न जाने क्या-क्या सोच रही थी, न जाने क्या-क्या गणित लगा रही थी, न जाने कौन-कौन से कुलाबे जोड़ती चली जा रही थीं।

इसी बीच पड़ोसवाली चाची आ गई। उसने दादी-पोते को अकेले देखकर तरह-तरह के सवाल किए, रोजमर्रा की दिनचर्यावाले प्रश्न उछाले। पर कृष्णा आज किसी भी सवाल का उत्तर नहीं दे रही थी। एक नजर उसने फिर विशु पर डाली। चाची की देखा और बाजूवाले कमरे में सिलाई की मशीन पर रखी खलेची उठाकर उसमें से एक काला रेशमी डोरा निकाला। विशु के गले में उसे बाँधा, मैया के दीपक की लौ से निकला हलका सा काजल उँगली पर लिया और उसे विशु के दाहिने गाल पर लगाकर चाची की गोद में दे दिया। दादी के हाथों से चाची के हाथों में जाते-जाते विशु ने थोड़ा सा प्रतिरोध किया पर वह चला गया। कृष्णा ने उसके हाथ में एक बिस्कुट थमा दिया और बिना बोले चुपचाप वह चाची के सामने खड़ी रह गई। विशु फिर कुछ बोलने की कोशिश करता हुआ अपने हाथ का बिस्कुट खाने लगा। वह खा कम रहा था, तोड़-तोड़कर जमीन पर फेंक अधिक रहा था। चाची ने पूरन मास्टर के बारे में कुछ पूछना चाहा तो कृष्णा ने कोई उत्तर नहीं दिया। बाती बहू कितनी देर में आएगी? सब्जी क्या बनेगी? बड़ा बेटा दिनेश कहाँ है और उमेश से चाची को जरा सा काम है तो प्रेस-पर किसे भेजे? ऐसे कितने ही सवालों में से कृष्णा ने जब एक भी सवाल का उत्तर नहीं दिया तो चाची ने विशु को गोद में लिया और बाहर जाकर सारे मुहल्ले को सिर पर उठा लिया, ‘चलो रे, चलो लोगों! आज पूरन मास्टर की घरवाली को कोई अवा-हवा लग-लगा गई है। वह गूँगी हो गई है। न बोलती है न बात करती है। किसी भी सवाल का जवाब नहीं देती है। और तो और, अपने पोते तक से लाड़-प्यार के दो बोल नहीं बोल रही है। कुछ हकीम, डॉक्टर ओझा-वोझा करो। उसकी बहू को मदरसे से बुलवाओ। साइकिल या मोटर सायकल भेजकर पासवाले गाँव से पूरन मास्टर को समाचार करवाओ कि स्कूल को ताला लगाए। औरत गूँगी हो गई तो सारी हेडमास्टरी धरी रह जाएगी। कोई भाग कर उमेश को प्रेस से बुला लाओ। खड़े-खड़े मेरा मुँह क्या देख रहे हो?’ और देखते ही देखते सारा मुहल्ला पूरन मास्टर के आँगन में ठसाठस खड़ा हो गया। सौ मुँह और हजार बातें। 

कृष्णा अवाक्, हक्की-बक्की, चुपचाप। बिलकुल गूँगी। अपने आस-पास अपने मुहल्ले को देखकर नए रोमांच और नई विह्वलता से सराबोर होकर कभी रोए, कभी हँसे, कभी मुस्कुराए, पर बोले एक बोल भी नहीं। लोगों ने यहाँ-वहाँ से दरियाँ-चटाइयाँ लाकर अपने आप बिछा लीं। कृष्णा को औरतों ने बीच में बैठा लिया। विशु को उसकी गोद में छोड़ दिया और तरह-तरह के सवाल करने लगीं। विशु रह-रहकर अपने-अटपटे शब्दों से वातावरण को सजीव बनाए हुए किलकारियाँ भरता अपनी दादी की गोद में खेलता, लोट लगाता रहा। सारा वातावरण उदास और उत्सुक था। आखिर कृष्णा भाभी को हो क्या गया है? अच्छी-भली थी दोपहर तक तो! खाना खाने के बाद उसकी सिलाई मशीन की आवाज से सारा मोहल्ला घरघरा रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में विशु को पुचकारने -दुलराने और हल्की सी डाँट-फटकार लगाने की आवाजें भी लोगों नें सुनी थीं। आते-जाते लोग अपने-अपने वाक्यों को दुहरा रहे थे। कृष्णा ने उठने की कोशिश की तो पड़ोसनों उसे फिर खींच-खाँचकर बैठा लिया। न वह कुछ करने की न कहने की। पड़ौसी प्रकाश ने कृष्णा के सामने कागज और कलम रखा कि वह लिखकर ही कुछ बता दे। पर कृष्णा ने कागज और कलम भी परे सरका दिया। अपने आँसू पोंछकर वह विशु का सिर सहलाती रही। न कोई संकेत न कोई इशारा। बोलने का तो सवाल ही नहीं। वही गूँगापन। वही अबोला। कभी वह देवी के आले की ओर देखे, कभी विशु की ओर और कभी अपने पड़ोसियों को। 

सबसे पहले, पाँच बजते-बजते स्कूल में हेड मास्टरनी बाई से आधा घण्टे पूर्व जाने की माफी माँगते हुए बाती बहू घर पहुँची। उसने कोलाहल और कुहराम में अपना स्थान बनाया, विशु को लाड़ से उठाया। विशु ने अपने शब्द एकाएक बुदबुदाकर बोलने शुरु कर दिए, ‘मा.....दे.....पा.....न.....न.....मा.....ले.....’।  विचित्र स्थिति थी अपने कलेजे के टुकड़े के पहले-पहले बोले बोल बाती सुन रहीं थी। पर सामने उसकी सास कृष्णा गूँगी होकर बैठी-बैठी आँखों की झीलें उलीच रही थीं। बाती को देखकर कृष्णा की विह्वलता और अधिक बढ़ गई। वह तेजी से उठी और उसने विशु सहित बाती को बाँहों में भरकर, कसकर सीने से लगाकर खुले आँगन, भरे दरबार में पागलों की तरह चूम लिया। अपनी सास का यह रूप बाती के लिए बिलकुल नया था। वह,समझ ही नहीं पाई कि करे तो क्या और किससे क्या कहे? बात सँभले-सँभले तब तक प्रेस से उमेश भी आ गया। उसने साइकिल दीवार से लगाकर खड़ी की और वातावरण में घुले सवालों को छाँटने की कोशिश करे, तब तक कृष्णा की रुलाई और फूट पड़ी। अब वह करीब-करीब बदहवास जैसी हो चली थी। इस-बार उसने उमेश, बाती और विशु, तीनों को बाँहों में भरकर चूमने की कोशिश की। तब तक चार-पाँच महिलाओं और युवकों ने तीनों प्राणियों को कृष्णा की कसावट से मुक्त करने के लिए खींचतान मचा दी। आँसुओं से तर कृष्णा श्लथ होकर धम्म से आँगन में बैठ गई। बाती बहू घर के भीतर गई। देवी मैया के सामने लगा दीया देखा। चढ़े हुए ताजे फूल देखे। तश्तरी में गुड़ के कण देखे। असमय की यह पूजा देखी। फिर विशु की ओर देखा। उसके गले में नया काला डोरा देखा। कॉजल का डिठौना देखा। कुछ समझने की कोशिश की। हवा में हाथ लहराया और कातर होकर फिर अपनी सास की तरफ देखने लगी।

उमेश तो मानो जड़वत् हो चला था। इस समय घर में एकमात्र वही अकेला पुरुष सदस्य था। पूरन मास्टर पता नहीं कब आएँगे। वह हक्का-बक्का खड़ा कभी सोचता, कभी बैठ जाता और कभी हवा में हाथ हिलाता इधर-उधर देखता था। तभी कृष्णा उठी। उसने सारी भीड़ को खड़े होकर प्रणाम किया और माथा नवाते हुए कमरे के भीतर चली गई। लोग देखते रह गए।

‘अपना घर सँभालो भाई। बहू! तुम सयानी हो। पूछ-परख करो। डॉक्टर-हकीम को बुलाओ। किसी जानकार को दिखाओ। कुछ करो बहू! वरना पूरन मास्टर का तो बुढ़ापा बिगड़ जाएगा। वह बिचारा......’ ऐसे ही कुछ कहते-सुनाते भीड़ छँटने लगी। 

विशु ने, उमेश की गोद में जाते ही फिर बोलने की कोशिश की, ‘मा.....मा.....पे.....न.....न.....दे.....पा...।’ अब आँसुओं में तर होने की बारी उमेश की थी। अपने बेटे के पहले बोल उसके ओठों से फूटते वह पहली बार देख रहा था। बाती बहू ने कृष्णा को तरह-तरह से पूछने का प्रयत्न किया पर वह एक हजार फीसदी असफल रही। अपने दो साल के वैवाहिक जीवन में इस घर में यह उसकी पहली असफलता निकली। वह हैरान और परेशान थी।

शायद किसी ने फटफटी भेज-भाजकर पूरन मास्टर को भी समाचार दे दिया। सो वे भी आज दिया-बत्ती होते-होते अपने आँगन में आकर खड़े हो गए। वे बस छुट्टी के दिन ही विशु को जागता हुआ देखते थे। वरना शाम को जब वे आते तब तक तो विशु सो जाता था। ललककर विशु ने अपने दादा की तरफ दोनों  हाथ बढ़ाए और बाती बहू ने विशु को अपने ससुर के हाथों में सौंप दिया। विशु ने दादाजी का चश्मा पकड़कर खींचा ही था कि साथ-ही-साथ वह बोल पड़ा, ‘दा....मा.....न.....न.....प.....ल.....पा।’

पूरन मास्टर निहाल हो गए। पोते का पहला बोल सुनकर वे भगवान को धन्यवाद देने के लिए आकाश की ओर देखने लगे। विशु को उन्होंने चूमा। घर में उन्हें सब कुछ सहज लगा। अपनी-अपनी जगह सभी अपनी दिनचर्या को जी रहे थे। कहीं, कोई नई बात उन्होंने महसूस नहीं की। हाँ, यह जरूर पाया कि कृष्णा बार-बार अपनी आँखों को पल्लू से पोंछ रही है और कभी विशु को, कभी बाती का, कभी उमेश को, कभी पूरन को तो कभी देवी मैया को भर-भर साँसें देखती है। एकाएक उन्होंने देखा कि उस समाचार का वह अंश बिलकुल सच है कि ‘कृष्णा भाभी ने बात करना बन्द कर दिया है। वह बिलकुल गूँगी हो गई है।’ पूरन मास्टर ने बेटे-बहू का लिहाज तोड़कर कृष्णा का हाथ थामा। अपने प्रिय सम्बोधन से उसे पुकारा। कृष्णा लजाकर, अपना हाथ छुड़ाकर, मुँह बिचकाकर, पल्ला झटककर पासवाले कमरे में चली गई। उसकी आँखें गीली थीं, पर वह हँसने में संकोच नहीं कर रही थी।

पति आखिर पति होता है। जनम-जनम के साथ का सवाल है। मन नहीं माना। सायकिल उठाकर सीधे अस्पताल गया पूरन मास्टर। डॉक्टर को घर लाया। डॉक्टर को देखकर कृष्णा संकोच में पड़ गई। बात न बात का नाम! बीमारी तो दूर की बात है, कृष्णा के तो नख में भी रोग नहीं है! डॉक्टर क्या करेगा? खुद ही चौके में गई। चाय बनाकर प्याली हाथ में लिये सहज मन से डॉक्टर के सामने खड़ी हो गई। डॉक्टर ने भी ऐसा मरीज कभी देखा नहीं था। सिर से पैर तक कृष्णा को डॉक्टर साहब देखते रहे। चाय का प्याला एक तरफ रखकर उन्होंने स्टेथेस्कोप गले में लटकाया। एक पल को भी कृष्णा ने नष्ट नहीं किया, फौरन डॉक्टर के सामने अपना हाथ बढ़ा दिया नाड़ी दिखाने के लिए। डॉक्टर ने हर तरह से जाँच करके ऐलान कर दिया कि कहीं कोई बीमारी नहीं है। बाती बहू से लम्बी पूछताछ की। मुद्दा यह है कि आधे दिन के बाद से आज कृष्णा बोल नहीं रही है। सारा काम-काज सहज है। बस रोती है, आँसू पोंछती है, विशु को कलेजे से लगा-लगाकर चूमती है। बार-बार देवी मैया को निहारती है। सुनती सब है, पर बोलती नहीं और तो और, कागज-कलम थमाओ तो परे सरका देती है और लिखकर भी कुछ नहीं बताती। पड़ोसिनें बताती हैं कि घण्टे-दो घण्टे वह असहज रही, पर बाद में सारा काम खुद करने लगी। अब कहिए कि किस डॉक्टर को और बताया जाए? कोई मन्तर-टोना-टोटका किया जाए या दवा-इंजेक्शन का सहारा लिया जाए? गम्भीर होकर डॉक्टर ने कहा, ‘रात भर नजर रखिए। सवेरे देखना होगा कि क्या किया जाए।’ 

डॉक्टर की बात सुनकर कृष्णा ने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया। हलका सा हँसते हुए उसने डॉक्टर साहब को हाथ जोड़कर नमस्ते कर लिया। पूरन मास्टर डॉक्टर साहब को छोड़ने बाहर तक चले गए।

बात को चलने और दौड़ने से कौन रोक सकता है? देखते-देखते बात को पंख लग गए। एक गली से दूसरी गली और दूसरी से तीसरी। गाँव के लोगों ने ताजा स्थिति जानने के लिए नए सिरे से आना-जाना शरु कर दिया। पूरन मास्टर जवाब देते-देते तंग आ गए। सिवाय इसके कि ‘भैया, मैं कुछ समझूँ तो कुछ कहूँ। रोग-बीमारी होती तो इलाज करवा लिया होता। जब से मैं घर में आया तब से सिवा इसके कि इसकी बोलती बन्द है, सब-कुछ रोज जैसा ही है। खुद देख लो, सारा काम कर रही है या नहीं? कहीं कोई कसर नहीं। लिख-लिखाकर कुछ कह दे तो मैं इस गाँठ को खोलूँ भी। मार-पीट मैं कर सकता नहीं। कोर्ट-कचहरी, पुलिस-उलिसवाला केस है नहीं। डॉक्टर देख ही गया है। अब आप लोग ही बता दो कि मैं क्या करूँ? पास-पड़ोस में किसी से कोई कहा-सुनी भी नहीं हुई। बस एक ही बची है-वह देवी मैया की आले में बैठी मूरत। बस! उससे पूछना बाकी है। पर मूरत कुछ बोली है कभी? आप में से कोई उससे पूछताछ कर सकता हो तो पूछकर मुझे भी बता दो। मेरी तो जिन्दगी का सवाल है। बेटा-बहू अपराधियों की तरह अनमने बैठे हैं। न खाने में मन लग रहा है, न किसी दूसरे कामकाज में। दिनेश आएगा तो भगवान जाने क्या समझेगा और क्या कर बैठेगा! मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा है। अभी आप लोग पूछ रहे हैं, सवेरे तक उस गाँव के लोग पूछने आ जाएँगे जहाँ कि मैं हेड मास्टरी करता हूँ। खबर फैलती जाएगी और लोग आते जाएँगे। कल की शाम तक नाते-रिश्तेवाले लोग घर खूँद डालेंगे। छोटे-मोटे अखबारों में कुछ छप-छपा गया वो न जाने कहाँ-कहाँ से कौन-कौन कैसे-कैसे सवाल करते आ खड़े हो जाएँगे। मैं जिन्दगी भर की क्या बात करूँ, मेरी तो यह रात कटनी ही दुश्वार हो रही है।’ और घबड़ाया हुआ पूरन मास्टर क्या करे, क्या न करनेवाली मुद्रा में असहाय सा आँगन में टहलने लगा।

बाती बहू विशु को लेकर रात का खाना पकाने की व्यवस्था में जुट गई। उमेश वापस प्रेस चला गया। उसे छापाखाना बन्द करना था। कृष्णा ने देवी माँ का दीया फिर जलाया, धूप-अगरबत्ती की और आँचल माथे पर ठीक से डालकर आँगन में खड़ी हो गई। इक्का-दुक्का लोग अपनी ताक-झाँक करते रहे। पूरन मास्टर आँगन में अकेला टहलता न जाने किन-किन विचारों में खो गया। अपनी सरकारी नौकरी में उसने न जाने कितनी गाँठें सुलझाई हैं, अपने विद्यार्थियों को अविचलित रहने के पाठ पढ़ाए हैं। पर आज की तरह विचलित होने का अन्दाजा उसने कभी नहीं लगाया था। इस समस्या को सुलझाने के लिए उसने मन-ही-मन न जाने कहाँ-कहाँ की उड़ाने भर डालीं! किस-किससे क्या-क्या सहायता लेना, इस संकट की घड़ी में कौन, कितना काम आएगा, वह ऐसे मित्रों की सूची अपने मन में बनाने लगा। दिनेश वापस कब लौटेगा, इसकी पूरी जानकारी अगर थी तो बस, कृष्णा के पास थी। वह मौन लेकर बैठ गई थी। बाती बहू को यह तो पता था कि दिनेश भैया मौसी के यहाँ गए हैं, पर वापस पाँच दिन में आएँगे कि सात दिन में, पक्की जानकारी उसे भी नहीं थी। सारा परिवार आस-पास ही था, पर पूरन मास्टर कितना अकेला पड़ गया था! उसकी साँसें छटपटाहट के मारे लम्बी चलने लगीं। जरा-जरा सी आहट पर वह चौंकता और झल्ला जाता। उसने अपने बीते सालों का सिंहावलोकन करने का सिलसिला शुरु किया। गम्भीर होकर वह सोच में डूबा अपने छोटे से आँगन को नापता रहा। दस कदम इधर तो पाँच कदम तो पाँच कदम उधर। उसने तारों भरे आकाश को आशा भरी नजर से देखा, शायद कोई सितारा उसे रास्ता दिखा दे। बस्ती की गलियाँ बिजली की रोशनी से जगमगा उठी थीं। कई घण्टों से जो मुहल्ला अशान्त और असहज बना हुआ था उसकी सहजता वापस लौटने लगी थी। लोग अपने-अपने घरों में अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी जीने लगे थे। लेकिन वातावरण में तब भी एक बेचैनी थी।

बाती ने पूरन मास्टर से खाना खाने का आग्रह किया। विशु को उसने कृष्णा की गोद में सुला दिया। उदास, अनमने और असहाय पूरन मास्टर ने खाना टालने की कोशिश की पर बाती ने नहीं मानी। अपने सास-ससुर दोनों की थालियाँ लगाकर उसने खाना परोस दिया। कृष्णा विशु को गोद में लिये ही खाना खाने लगी। उसने देखा कि पूरन मास्टर भोजन की थाली को जरा सा परे सरकाकर हारा-हारा सा देवी माँ के सामने जा खड़ा हुआ है और कुछ बुदबुदा रहा है।

बाती ने आग्रह किया, ‘बाबूजी, आप देवी माँ का प्रसाद मानकर ही पहले खाना खा लीजिए। इससे मन में थोड़ा सा बदलाव भी आ जाएगा।’

मास्टर ने बहू की बात मानकर पूरे परिवेश को मन-ही-मन तौला और खाना खाने की कोशिश करने लगा। एक-एक कौर तोड़ता पूरन मास्टर आज  भोजन का स्वाद भूल गया। पहला ही कौर उसने पानी के घूँट के साथ हलक से नीचे उतारा। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। उधर कृष्णा आराम से अपना खाना खा-रही थी। पूरन मास्टर ने सोचा कि वह कृष्णा से फिर कुछ पूछे, पर उसके महा-मौन ने उसे इतना आतंकित किया कि वह अपने आपमें ही डूबता चला गया। दिखाई जरूर दे रहा था कि मास्टर खाना खा रहा है, पर बाती सही समझ रही थी कि आज उसका ससुर निवाले नहीं चबा रहा है। वह कहीं और कुछ सोच रहा है। और था भी ऐसा ही।

पिछले तीस सालों के अपने जीवन पर पूरन मास्टर ने सिंहावलोकन जैसा आभास अपने भीतर महसूस किया। एक के बाद एक, विभिन्न घटनाक्रम चलचित्र की तरह उसके मानस-पटल पर उभरते चले जा रहे थे। वह गस्से निगल रहा था, खा रहा था या चबा रहा था, उसे कुछ भी पता नहीं था। एक मशीन की तरह उसका शरीर अपनी प्रतिक्रियागत क्रिया में लिप्त था। उसे याद आया वह दिन, जब कि आज से तीस वर्ष पहले कृष्णा इस घर की लक्ष्मी बनकर पहले-पहल इस घर की देहरी पूजने के लिए अपनी सुहाग चूनर का पल्ला माथे पर सरका रही थी। यह पूरन मास्टर की गृहस्थी का पहला दिन था। मास्टर के माता-पिता और नाते-रिश्तेदार कृष्णा और पूरन पर आशीर्वाद बरसा रहे थे। महिलाएँ मंगल गीत गा रही थीं और कृष्णा एक भारतीय तेजस् आभा से दिपदिपा रही थी। देहरी पूजन के साथ ही हवा में किसी का जुमला उछला था कि ‘साल भर में पता चल जाएगा कि बहू का पगफेरा कैसा है।’ इस जुमले पर एक पल को कृष्णा सहमी जरूर थी, पर उसने जिस आत्मविश्वास और चमक भरी आँखों के साथ अपने सास-ससुर और पति को प्रणाम करते हुए इनके पाँव छुए थे, उसी से पारखियों ने पहचान लिया था कि वह जोड़ा एक सुखी और समृद्ध जोड़ा साबित होगा।

पहले ही सप्ताह में कृष्णा ने अपने कमरे के आले को साफ करके उसे लीप-छाबकर, उसमें देवी मैया की स्थापना करके अखण्ड दीपक लगा दिया था। उसका पूजा-पाठ शुरू हो चुका था। मास्टर के घर-आँगन की भाषा मानो बदल ही गई थी।

एक साल बीतते-बीतते पूरन को सरकारी नौकरी मिल गई और वह पूरन से ‘पूरन मास्टर’ हो गया। जानकार लोगों ने इसका सारा यश कृष्णा के पगफेरे को दिया। देखते-देखते पूरन मास्टर के घर का रुतबा, रहन-सहन, रीत-रस्म और राग-पराग सब बदलने लगा। आने-जाने के हेतु मुलाकातियों की भाषा बदल गई। समाज में कृष्णा के प्रति आदरभाव में एकाएक इजाफा हो गया। तब  कृष्णा बीस वर्ष की और पूरन बाईस वर्ष का था। माता-पिता ने पूरन को जिस मुसीबत से पढ़ाया-लिखाया और एम. ए. करवाया था, वह सभी को सफल लगने लगा। पड़ोसन चाची ने गहरी नजर से देखकर कानाफूसी की कि बेशक नापकर देख लो, कृष्णा की सुहाग बिंदिया का घेरा पहले से जरा बड़ा हो गया है। कुंकुम का रंग-चाहे वही था पर रंगत बदल गई है। और एक दिन खुद पूरन मास्टर ने इस बदलाव को अपने चुम्बन से रेखांकित कर दिया।

तीसरे साल कृष्णा ने दिनेश को जन्म दिया। वंश-बेल पल्लवित हुई। पूरन मास्टर को लड़की की ललक और चाह थी, पर आया लड़का। कृष्णा की सास ने सारे मुहल्ले में नारियल और बताशे बाँटे थे। पूरन के पिताजी ने कृष्णा के पगफेरे के क्या-क्या बखान नहीं किए थे! दिनेश के आगमन ने मास्टर के घर का गणित और सारे समीकरण इधर-उधर कर दिए, पर सारा घर एक नए उजास से भर जो गया था! हर जीवन अपना भाग्य और अपना भोग साथ में लेकर आता है। इस सोच ने कृष्णा और पूरन की गृहस्थी को नई उमंग और ताजगी से भर दिया। चार कलेजों और आठ हाथों में दिनेश ने पूरन मास्टर के सपनों तक को बदल दिया। कृष्णा के सपनों की तो कोई थाह ही नहीं थी।

और दो साल बाद जब कृष्णा ने फिर से पूरन मास्टर से खट्टी अमिया माँगी तो पूरन मास्टर ने एक ही शर्त पर उसकी मुराद पूरा करने का वचन दिया कि इस बार अवश्य ही लड़की होगी। कृष्णा हँस दी। चौथे महीने ही सास ने कह दिया फिर से लड़का ही होगा। पूरा गर्भकाल तरह-तरह की शर्तों और उल्लसित किन्तु आतुर आशाओं में बीता। देवी मैया से कृष्णा न जाने कितनी प्रार्थनाएँ करती कि इस बार उसके पति का मन मीठा हो जाए। राखी के दिन दिनेश की कलाई पर दो डोरे बाँधनेवाली एक गुड़िया-सी बेटी उसके पालने में आ जाए। पर मैया ने मास्टर को मीठी सी झिड़की दे दी। दाई ने जब कहा कि ‘बधाई हो मास्टरजी! बेटा आया है’ तो पूरन मास्टर बस इतना ही बोल पाया-‘भाई वाह!’ यह उमेश था गुदगुदा-गुलगुला, लाल सुर्ख, बिलकुल कश्मीरी सेबकी तरह। 

मन-ही-मन पूरन मास्टर ने अपना भला-बुरा सोचा, तनख्वाह का गणित लगाया, ट्यूशन नहीं करने की अपनी कसम फिर से खाई और चुपचाप अस्पताल पहुँचकर खुद को डॉ. भट्टाचार्य के हाथों में सौंप दिया। बोला, “डॉक्टर सा’ब! ‘हम दो, हमारे दो”। और बस। यह वह मुकाम था जहाँ से पूरन मास्टर की जिन्दगी में एकदम नया मोड़ आ गया।

उमेश बड़ा होता जा-रहा था। उसकी सेहत आम बच्चों की अपेक्षा ज्यादा बेहतर थी। खूब खिलन्दड़ा और सारे मुहल्ले का चहेता था। पहले उसके दाँत आए। फिर सालभर का होते-होते उसने पाँव भी ले लिये। वह चलने लगा। मचलने-लगा। होती रीत है कि कोई बच्चा पहले पाँव ले लेता है, उसके बाद बोलना सीखता है। कोई पहले बोलना सीखता है, फिर पाँव लेता है। उमेश ने पहले पाँव ले लिये। यह वह बच्चा था जो कि दस हाथों और पाँच कलेजों के बीच पल रहा था। दो बरस का दिनेश भी उससे लाड़ लड़ाता था। उमेश डेढ़ साल का ही गया, पर बोला नहीं। कृष्णा ने डॉक्टर, वैद्य शुरु किए। दो साल की उम्र तक भी वह नहीं बोला। घर में चिन्ता हो गई। कृष्णा अनमनी रहने लगी। पूरन परेशान हो चला। सास-ससुर देवी-देवता मनाने लगे। तीन-साढ़े तीन साल का होते-होते उमेश के बारे में डॉक्टरों ने घोषणा कर दी कि बच्चा न तो सुनता है, न बोलता है। और यह सुनेगा तो बोलेगा। मास्टर के परिवार का सारा अर्थशास्त्र बदल गया। आज यह डॉक्टर, कल वह डॉक्टर। आज यह देवी, कल वह देवता। आज यह मन्दिर-कल वह मन्दिर। आज यह औलिया, कल वह फकीर। आज यह ओझा, कल वह जती। आज यह तीरथ, कल वह तीरथ। आज इसका गण्डा, कल उसका तावीज। और कृष्णा हार गई। पूरन असहज हो गया। पूरन के माता-पिता परिवार को और खुद को ढाढस देते-देते टूट गए। अच्छा-भला दिखनौटा बच्चा दिनानुदिन बड़ा होता चला जा रहा है पर दीन-दुनिया से बेखबर-न सुनता है, न बोलता है। उसकी पढ़ाई कैसे होगी? तसल्ली थी तो इस बात की कि मैया ने पूरन मास्टर की आस नहीं पुराई। अगर कहीं यह लड़की हो जाती तो भगवान ही जाने कि कैसे क्या होता! और उमेश साल भर का हुआ, तब तक सरकार ने पूरन मास्टर का तबादला कहीं और कर दिया। सारा सन्तुलन चौपट हो गया।

जो नहीं कहा जाना था, वह सब-कहा जाने लगा। जो नहीं बोला जाना था, वह सब बोला जाने लगा। छह बरस का दिनेश स्कूल जाने लगा था। उसे उसके हम-उम्र लड़के ‘गूँगे का भाई’ कहकर चिढ़ाते। बच्चा मदरसे से अधमरा होकर लौटता था। सुबह, जब कृष्णा उसे स्कूल के लिए तैयार करती तो न जाने किन-किन आशंकाओं में डूबी, बुझी-बुझी सी उसका बस्ता कन्धे पर लटकाती थी। सारा बगीचा कुम्हलाता जा रहा था। फिर से अपने तबादले के लिए पूरन मास्टर ने जमीन-आसमान एक कर दिया पर सरकार नहीं पसीजी तो नहीं पसीजी। वह हाथ किसी के जोड़ नहीं सकता था, गिड़गिड़ाना उसके संस्कार में नहीं था। शिष्ट भाषा में जो कुछ वह जिस किसी से भी कह सकता था या लिख सकता था वह सब उसने करके देख लिया पर सरकार को ‘सरकारजी’ बने रहना था। भला वह क्यों पिघलती? कल तक जो पूरन मास्टर सरकार के यहाँ एक आदर्श शिक्षक माना जाता था, वह आज नौकरशाही का खिलौना बन गया। उससे आज एक आफफिसर खेला तो कल दूसरा। तबादला-दर-तबादला झेलना उसकर नियती हो गई। उसका लिखना-पढ़ना अस्त-व्यस्त हो गया।

कृष्णा अतिरिक्त गम्भीर रहने लगी थी। मास्टर असमय बूढ़ा होता जा रहा था। इन दिनों मास्टर ने, समय काटने के लिए कई ऋषियों-सन्तों और राष्ट्रनायकों के जीवन को पढ़ा। उसने निश्चय किया कि पहले मनोबल लौटाया जाना चाहिए।

उसके मुँह का स्वाद कड़वा हो चला था। उसे पता ही नहीं था कि रोटी गेहूँ की थी या मक्का की। सब्जी का स्वाद वह भूल सा गया था। बाती ने कोशिश की कि वह अपने सुसर की थाली में कुछ और भी परोसे, पर पूरन ने एक उदास नजर बाती के चेहरे पर फेंककर दोनों हाथों से थाली ढक ली, ‘बस बेटा, बस। मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ और मास्टर थाली परे सरकाकर हाथ-धोने के लिए खड़ा हो गया। कृष्णा खाना खा चुकी थी। विशु को सुलाने के लिए वह बिस्तर की ओर बढ़ी। बाती चौके में अपने भोजन का उपक्रम करती दिखाई दे रही थी।

मास्टर आँगन में आकर उमेश की प्रतीक्षा करने लगा। यह वह समय था जबकि उमेश को प्रेस से आ जाना चाहिए था। रात वैसे भी आज ज्यादा गहरी लग रही थी। पूरन ने दरवाजे के भीतर झाँका। देखा कि   कृष्णा माँ के आले का परदा सरकाकर माँ को प्रणाम करती हुई शयन की प्रार्थना कर रही थी। यह कृष्णा का रोज का नियम था। तीस वर्ष से कृष्णा की यह पूजा बराबर चल रही थी।

आँगन में घूमते-फिरते मास्टर के मस्तिष्क का चल-चित्र फिर से चल पड़ा। पल-पल, छिन-छिन सारे चित्र उसके दिमाग में उभरने लगे। सरकार के प्रहारों को झेलकर पूरन मास्टर अपनी गृहस्थी चला ही रहा था कि पहले माँ चली गई। माँ की याद में घुल-मिलकर तीन साल बाद पिता भी चल बसे। इधर बच्चे बराबर बड़े होते चले जा रहे थे। दिनेश उम्र से ज्यादा सयाना और समझदार निकला। पढ़ाई में पूरा मन लगाया उसने। औसत से ज्यादा नम्बर से उसने परीक्षाएँ पास कीं। उमेश की पढ़ाई कीे सारी कोशिशें असफल हो गई थीं। इस बीच पूरन मास्टर ने तीन गाँवों में और मास्टरी कर ली। शान्तभाव से वह अपना काम करता और जिस भी गाँव में नौकरी करता उस गाँव को अपना गाँव मानकर वहाँ का नागरिक बन जाता। वह एक सहज शिक्षक था इसलिए एक असहज जीवन जीना उसकी नियति बन गई थी। कभी-कभी वह अकेले में अपनी उदास हँसी से इन हालातों पर अपने पौरुष की छाप लगा लेता था। समय ने उसे टूटे शरीर में मर्द मनवाला आदमी बना दिया था।

अपनी बिखरी गृहस्थी को उसने सँवारने की कोशिश शुरु की। विकलांग उमेश के लिए उसने बैंक से लोन लिया और एक छोटा सा छापाखाना गाँव में लगा लिया। उमेश भला उसे कैसे चलाता। सारा काम दिनेश के हाथों में सौंपकर पूरन ने निगरानी भर अपने जिम्मे रखी। सप्ताह में एकाध दिन आते-जाते वह छापाखाने का काम देख लेता, समयानुकूल निर्देश दे देता और फिर अपनी ड्यूटी पर चला जाता। दिनेश ने-अपनी सूझ-बूझ से इस प्रेस को दो आदमियों की रोटी के लायक चलाना सीख लिया। छोटे-मोटे टेण्डर पेश करके यहाँ-वहाँ का सरकारी काम भी लेना उसने सीख लिया। व्यवहार-कुशल तो समय ने उसे बना ही दिया था। मास्टर इस ओर से आश्वस्त हो चला।

दोनों भाइयों की उम्र में कोई ज्यादा फर्क तो था भी नहीं। उमेश की शारीरिक उठान भी अच्छी थी। प्रकृति यदि मनुष्य के शरीर से कुछ ले लेती है तो उसका मुआवजा किसी दूसरी तरफ दे भी देती है। दोनों की मसें साथ-साथ ही भीग चलीं। उधर पूरन और कृष्णा के बाल सफेदी ले रहे थे तो इधर दोनों भाइयों के चेहरों पर काली-स्याह मूँछों की लकीरें फूट रही थीं।

मास्टर ने फिर कमरे के भीतर झाँका। कृष्णा कमरे में बिखरा सामान करीने से लगा रही थी और बाती बहू सोने के लिए सास-ससुर के बिस्तर लगाने की तैयारी कर रही थी। तभी उमेश प्रेस से लौटा। उसने आँगन के उस छोर पर हमेशा की तरह अपनी साइकिल को लगाया, कन्धे का झोला उतारा, अपने पिताजी को हँसकर देखा। मास्टर ने उसे खाना खाने का इशारा किया। और उमेश अपनी माँ को झोला थमाता हुआ अपनी पत्नी के सामने पहले खड़ा रहा, फिर बैठ गया।

कृष्णा ने उसे हाथ-मुँह धोने का इशारा किया। वह फिर खड़ा हुआ। उसने सोए हुए विशु को पिता की मीठी सी नजर से देखा। फिर इशारे से ही बाती से पूछा कि माँ बोली या नहीं? जब उसे पता लगा कि कृष्णा का बोल बिलकुल नहीं फूटा है तो वह मुँह लटकाए हाथ-मुँह धोने की ओर प्रवृत्त हो गया।

पूरन का दिमाग पुरानी यादों में उसी तरह खोया हुआ था। वह चहलकदमी भी कर रहा था और मन-ही-मन कुछ-न-कुछ बोलता बुदबुदाने भी लगता था। उसे याद आया कि किस तरह एक दिन दिनेश ने सारे घर की चिन्ता को यह कहकर और भी बढ़ा दिया था कि चाहे वह उम्र में बड़ा हो, पर जब तक उसके छोटे और गूँगे-बहरे भाई उमेश की शादी नहीं होगी, वह भी शादी नहीं करेगा। यह उसकी प्रतिज्ञा ही नहीं, देवी माँ के सामने ली गई कसम थी। और उस दिन से वह भूल गया कि उसके पास एक भरा-पूरा जवान मर्द का, ठाठें मारता जिस्म भी है। पूरन मास्टर और कृष्णा उसे समझा-समझाकर हार गए, पर दिनेश था कि भीष्म बना अपना काम करता रहा। उसने सारी शक्ति प्रेस के विकास में लगा दी। जितना होता उतना उमेश भी काम करता, पर दिनेश ने तो अपना सब-कुछ अपने घर और प्रेस को हो मान लिया था। 

दिन बीतते गए। समय पंख लगाकर उड़ता गया। दिनेश-के लिए आनेवाले ठिठक गए। कौन होगा जो अपने हाथों से अपनी जवान बेटी एक गूँगे और बहरे लड़के के हाथांे में दे देगा? सयानों ने भविष्यवाणी कर दी कि मास्टर का वंश डूब ही गया मानो। दोनों कुँआरे रह जाएँगे। न उमेश की शादी होगी, न दिनेश ही शादी करेगा। कृष्णा और पूरन के लिए यह ऐसा तनाव था जिसे झेलने की हिम्मत जुटाना दोनों के लिए कठिन होता जा रहा था। पर जिन्दगी को चलना था और वह चल रही थी।

इतने थके-हारे और टूटे से परिवार में दिनेश ने अचानक एक काम ऐसा कर दिया कि जिसकी भनक पूरन मास्टर तक को कई दिनों के बाद पड़ी। उसने अपने प्रेस में एक परचा छापा। उस परचे में पूरे परिवार का सच्चा-सच्चा विवरण था। उमेश के बारे में सारा सत्य लिखा हुआ था और अपनी जाति-धन्धा वगैरह सब साफ-साफ लिखकर अपील की गई थी कि ऐसे गूँगे-बहरे, किन्तु हट्टे-कट्ठे कर्मठ नवयुवक के लिए उसकी हम-उग्र विकलांग कन्या की आवश्यकता विवाह के लिए है। दिनेश ने यह परचा अपनी जाति के कई लोगों को पोस्ट कर दिया। पूरन मास्टर ने भी इस परचे को अपने स्कूलवाले गाँव में अपनी जाति समाज के एक महाशय के यहाँ डाक से आया हुआ देखा। दिनेश की सूझ पर पूरन चकित रह गया। जिस-जिसने भी यह परचा पढ़ा, उस-उसने उसका मखौल ही उड़ाया। 

पर एक शनिवार की दोपहर गजब हो गया। प्रेस का पता पूछती-पूछती एक सयानी सी कन्या दिनेश के प्रेस पर उतरी। उसका एक पाँव या तो पोलियो का शिकार था या किसी दुर्घटना से ग्रस्त। बायाँ हाथ पंजे से कन्धे तक निष्प्राण था और वह लँगड़ाती-लँगड़ाती ताँगे से उतरकर प्रेस के बाहर पड़ी कुरसी पर बैठ-गई। बैठे-बैठे ही उसने  ताँगेवाले को किराया चुकाया, उसे शालीनता से धन्यवाद दिया। उमेश ने उसे देखा। वह पास में आया और इशारे से पूछताछ करने लगा। लड़की समझ गई कि यही उमेश है। प्रेस के आस-पास की दुकानवालों को वह परचा दिखाया और पूरन मास्टर तथा दिनेश के बारे में जानकारी ली। जब उसे पता चला कि दिनेश जिला मुख्यालय गया है और पूरन मास्टर शनिवार की रात तक पासवाले गाँव से आएगा तो उसने इशारों से उमेश से ही पीने को पानी माँगा। अपने बैग में से-वह परचा निकाला, पड़ोसियों से उस परचे की प्रामाणिकता को समझा। एक साइकिलवाले का सहारा लेकर फिर से ताँगा बुलवाया। हाथ जोड़कर उमेश से ताँगे में बैठने की प्रार्थना की। छोटे से बाजारवालों के लिए यह सर्वथा नया दृश्य था। वे उत्सुकता से देख रहे थें कि आगे क्या होता है। लूली-लँगड़ी वह कन्या ताँगे में उमेश के साथ बैठ गई। प्रेस-पर दो-तीन कर्मचारी काम कर रहे थे। उनके भरोसे प्रेस को छोड़कर ताँगा सीधा पूरन मास्टर के घर पहुँच गया। सारे मुहल्ले में हलचल मच गई।लोग अपना-अपना काम छोड़कर मास्टर के आँगन में आ जुटे।

कृष्णा रोमाचित थी। वह समझ ही नहीं रही थी कि कैसे क्या करे और क्या होगा! पर उस लड़की ने अपनी राम कहानी विस्तार से समझाते हुए कह दिया कि वह अपनी विधवा माँ और दोनों मामाओं के अत्याचारों से तंग आ चुकी है। बी. ए. करने के बाद उसने जैसे अपनी अक्ल-होशियारी से सरकार से विकलांग कोटे में शिक्षक का पद प्राप्त कर लिया है। गए डेढ़ साल से वह अपनी तनख्वाह से सारा घर चला रही है। खाती-कमाती है। पर उसके मामा लोग उसे दुधारू गाय मानकर रात-दिन उसका शोषण कर रहे हैं। उसने अपनी माँ और अपने मामाओं से विद्रोह करके ऐलान कर दिया है कि वह अब उमेश और बस उमेश से ही शादी करेगी, यही रहेगी। अगर उसका तबादला नहीं हुआ तो वह नौकरी छोड़ देगी। प्रेस का काम देखेगी, पर रहेगी कृष्णा की बहू बनकर ही। उसे पता है कि उमेश बिलकुल पढ़ा-लिखा नहीं है, गूँगा है, बहरा है और उसके कारण उसका सगा बड़ा भाई अभी कुँआरा बैठा हुआ है।

सारा वातावरण चकित था। लड़की की हिम्मत पर हर कोई मुग्ध था। कृष्णा हक्की-बक्की थी। घर में न दिनेश, न पूरन मास्टर। निर्णय ले भी तो कैसे ले। जाति, समाज, धर्म, आयु, योग्यता और साहस, सब कृष्णा को अनुकूल लग रहा था इस लड़की में। लड़की ने अपना नाम बताया था-बाती।

और.....और.....बस, पूरन मास्टर का घर इस बाती की ज्योति से नई जगमगाहट में डूब गया। कौन से पण्डित और कौन से लग्न, कौन सा मुहूर्त और कौन सी बारात? दोस्तों और पड़ौसियों ने दूसरे दिन अन्नपूर्णा मन्दिर में जाकर उमेश और बाती का ब्याह रचा दिया। कृष्णा ने नई उमंग और नई आशाओं के साथ सभी के मुँह मीठे करवा दिए। जिस तरह कृष्णा ने इस घर में देहरी पूजन किया था उसी तरह उसने बाती बहू से भी देहरी पुजवा ली। बाती अपने आप में साहस की प्रतिमूर्ति थी, सयानी थी, समझदार थी। तीन-चार महीनों में ही मामाओं और बाती की माँ ने घुटने टेक दिए। पूरन मास्टर ससुर हो गए। दिनेश भैया के लिए नए सिरे से रिश्ते आने लग गए। दिनेश ने अधिक समझदारी से काम लिया। उसका विश्वास भाग्य से ज्यादा भगवान पर बढ़ गया। उसने माता-पिता को समझाया कि वे लोग उसके विवाह की जल्दी नहीं करें। पहले बाती और उमेश की गृहस्थी को जरा सा जम जाने दें। ‘इतने साल मैं रह लिया तो एकाध साल और रह लूँगा। मेरी, किसी किस्म की ताक-झाँक कीे शिकायत आई हो तो आप ही बता दें।’

और जब बहू बाती गर्भवती हुई तो क्या आलम था इस घर का! लगता था मानो सारा पतझर बीत गया हो। कृष्णा अधिकांश समय देवी माँ के आस-पास नजर आती और बाती बहू को सँभालती। पूरन मास्टर बाती को तरह-तरह की सात्विक सामग्री से भरपूर पुस्तकें देते और अपनी विकलांग बहू और उसके गर्भ का विशेष ध्यान रखते। बाती ने सारे पड़ोस को अपनी प्रतिभा से मुग्ध कर रखा था। जब भी उसे समय मिलता, वह पड़ोस के बच्चों को पढ़ाती। सारा प्रकरण देखकर सरकार के लोगों ने बाती को अपनी ससुराल में ही स्थानान्तरित कर दिया था। अपने समय पर वह स्कूल जाती। वहाँ से आते-जाते प्रेस पर भी कुछ काम देख लेती। अपनी सास का हाथ बँटाती। पूरन मास्टर की हलकी-फुलकी डाक भी निपटाती और अपना घर चलाती। घर में सहजता लौटती चली आ रही थी।

इस विवाह के सवा साल बाद ही बाती ने विशु को जन्म दिया। लड़की की आशा में प्रार्थना करते पूरन मास्टर ठहाकों में खो गए। उनके मुँह से अपनी तीसरी पीढ़ी के लिए निकला - ‘भई वाह!’

एक बार फिर सारे दिन चर्चाएँ बदल गईं। वैसा ही फिर होने लगा जैसा कि दिनेश के पैदा होने के बाद हुआ था। जमाना बदल गया था। दुनिया इतने बरस आगे बढ़ चली थी। पूरी एक चौथाई शताब्दी हाथ से खिसक गई थी। बाजार महँगे हो चले थे। जीवन जटिल होता जा रहा था। पूरन मास्टर रिटायरमेंट की तरफ बढ़ रहे थे। और घर में विशु ने जन्म लिया। बहुत सोच-समझकर पूरन मास्टर ने बच्चे को नाम दिया-‘विशेष’ और यही विशेष लाड़ प्यार में हो गया ‘विशु’।

कृष्णा ने जितना ध्यान विशु पर दिया शायद उतना ध्यान उसने अपने जाये और अपने धाए दिनेश-उमेश पर भी नहीं दिया था। विशु सौ फीसदी अपने बाप पर ही गया था। वैसा ही गुदगुदा वैसा ही गुलगुला, वैसा ही गद्दर, वैसा ही लाल-सुर्ख, वैसा ही कश्मीरी सेब जैसा और वैसा ही खिलन्दड़ा, सलोना, प्यारा-प्यारा सा बच्चा। कभी इसकी गोद में तो कभी उसकी गोद में कभी इसके कन्धे पर तो कभी उसके कन्धे पर, कभी प्रेस पर तो कभी स्कूल में। कृष्णा के साथ वह गाँव के मन्दिरों पर दर्शन कराने भी ले जाया जाता था।

पहले विशु के दाँत आए। परिवार प्रफुल्ल। मिठाइयाँ बँटीं। ग्यारह महीने के विशु ने पाँव ले लिये। वह चलने और मचलने लगा। परिवार प्रसन्न हो गया। पर कृष्णा का माथा ठनका। वह कातर हो उठी। उसने रो-रोकर माँ का पूजाघर तर कर दिया - “माँ! ‘वैसा’ मत करना।” वह आशंकित और आतंकित लगती थी। उसे लग रहा था कि हो न हो, भाग्य उसके साथ फिर छल करने जा रहा है। उमेश के साथ भी तो यही हुआ था न! मास्टर उसे ढाढस देता, दिनेश समझाता, उमेश तरह-तरह के इशारे करता। पड़ोसनें पचास तरह के व्रत-उपवास सुझातीं। कृष्णा का सारा समय देवी-देवताओं और व्रत-उपवासों ने ले लिया।

और आज तेरह महीनों का विशु अनायास बोल पड़ा, ‘म.....मा.....न.....न.....प.....पा.....दे।’ पड़ोसियों ने जो ब्यौरा दिया उससे पूरन मास्टर को ज्ञात हुआ कि इधर विशु का पहला बोल फूटा और उधर कृष्णा गूँगी हो गई। बस। मास्टर समझने की कोशिश कर रहा था कि गुत्थी क्या है। कृष्णा सहज थी, पर सारा वातावरण असहज था।

हर तरफ से निराश पूरन मास्टर ने अन्तिम किन्तु पहला निर्णय लिया। उसने मन-ही-मन कहा-‘चलो, निकलो इस घर से। सवेरा न जाने कौन-कौन सी समस्याएँ लेकर आएगा। छोड़ दो इस गाँव को।’ वह अपने मित्रों से मिलने निकल पड़ा। दो-एक घण्टों में उसने एक जीप की व्यवस्था की। सभी को उसमें लादा। कृष्णा से कहा, ‘चलो, हम सबसे पहले बात करते हैं तेरी अम्मा उस देवी मैया से जिसके कि मन्दिर पर तू साल-छह महीनों में दौड़-दौड़कर जाती है और उसको न जाने कितनी तकलीफें, न जाने कितनी तरह से आज ये मनौती, कल ये मनौती कर-करके देती रहती है।’ बाँधा सामान। यात्रा के जरूरी कपड़े और दो-तीन दिन खाने के लिए आटा-दाल बाँधकर मास्टर ने जीप में पीछे बैठा कृष्णा को, बाती को, उमेश को और सोए हुए विशु को खुद अपनी गोद में लेकर मास्टर ड्राइवर के साथवाली सीट पर बैठ गया।

ग्यारह बजते-बजते जीप ने गाँव छोड़ दिया। मास्टर ने ड्राइवर को तीर्थ का पता दिया। यही कोई साढ़े तीन सौ किलोमीटर का सफर रहा होगा। भागते, दौड़ते, ठहरते यह सफर चलता रहा। ड्राइवर सहित छह यात्रियों में दो तो गूँगे ही थे - ’उमेश और कृष्णा।’

सुबह दस बजते-बजते मास्टर सपरिवार अपनी मंजिल पर था। साल-छह महीने में वे लोग वैसे भी आते-जाते रहते थे, सो सब-कुछ तो परिचित था ही। अतिथिशाला में सामान रखकर परिवार नहाया। विशु की किलकारियाँ और अटपटे बोल सारे वातावरण को नया अर्थ दे रहे थे।

स्नान के बाद सास-बहू ने पूजा का थाल सजाया। मन्दिर के नियमानुसार पूजा गीले आँचल में होनी थी, सो एक वस्त्र दोनों ने गीला ही पहना। उमेश और विशु को साथ में लिया। नगाड़ों, ढोलों, घण्टों, घड़ियालों और मंगल गीतों के धार्मिक, दिव्य और भव्य समवेत स्वरों में परिवार ने मन्दिर की पहली सीढ़ी पर पाँव रखा। पूरन मास्टर ने देखा कि कृष्णा विह्वल होकर काँप रही है। उसने सहारा दिया। विकलांग बेटा, विकलांग बहू, अबोध बच्चा और अब कृष्णा भी करीब-करीब विकलांग। पूरन मास्टर ने मन्दिर के विशाल और गगनचुम्बी शिखर को देखा। फिर प्रार्थना में उसके दोनों हाथ जुड़ गए। सहारा देकर वह सारे परिवार को ऊपर, माँ के आँगन तक ले गया। रास्ते में सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते लोग तरह-तरह से अपनी-अपनी प्रार्थनाएँ और जयकारे उचार रहे थे। यह आँगन सभी का आँगन था। माँ का आँगन। न कोई किसी से जाति पूछता था, न धर्म। यहाँ सब बराबर थे।

आँगन में जाते ही दर्शनार्थियों की नजर सीधी माँ की-विशाल मूर्ति पर पड़ती थी। दर्शन का पहला रोमांच यहीं पर होता था। उसके बाद पूजा का प्रावधान था। ज्यों ही कृष्णा ने मैया का पहला दर्शन किया कि वह कातर-विह्वल और करीब-करीब अचेत सी होकर वहीं आँगन में लोट गई। मछली की तरह तड़पती कृष्णा बदहवास होकर रोए जा रही थी। शब्द उसके मुँह पर थे ‘माँ.....माँ.....माँ.....माँ.....” और वह सारी सुध-बुध खोकर अनन्त, अटूट आँसुओं से नहाए चली जा रही थी।

पूरन मास्टर के आँसू भी आज बाँध तोड़कर बह चले थे। अगर परेशान था तो बस, उमेश। विशु को समझाने को यहाँ कुछ था ही नहीं। वह चारों ओर देखकर फिर बोला ‘मा.....मा.....दा.....न.....न.....दे.....पा।’ बाती ने स्थिति को सँभाला। पूजा का प्रावधान पूरा हुआ। नारियल और प्रसाद चढ़ाया गया।

कृष्णा ने विशु को माँ के चरणों में सुलाते हुए कहा, ‘ऐसी कठिन परीक्षा मत ले माँ! ले! मैंने अपना वचन निभा दिया। तूने मेरी लाज रखी। अपने पति तक से मैंने तेरी इस मनौती को कितने बरस तक छिपाए रखा है। किस तरह मेरे दिन कटें होंगे? किस तरह-मैंने उम्र के ये बरस काटे? माँ.....माँ.....’ और पागलों की तरह वह फिर रोने लग गई। 

दूसरे श्रद्धालुओं ने इस परिवार को आँगन के एक कोने में सरकाया। गुत्थी उस कोने में जाकर खुली। कृष्णा ने कहा, ‘जिस दिन दिनेश ने उमेश की शादीवाला व्रत लिया था उसी दिन मैंने भी मन-ही-मन माँ की कसम खाकर गाँठ बाँध ली थी कि चाहे बेटा हो या बेटी, पर जिस दिन उमेश की पहली सन्तान अपना पहला बोल बोलेगी, मैं उसी पल से अपने को गूँगा बना लूँगी। न किसी से कुछ कहूँगी न कोई इशारा या लिखत में किसी को समझाने की कोशिश करूँगी। उस दिन घर

में जो-जो भी लोग होंगे, उन सभी के साथ इस माँ के आँगन में अपने आँचल से बुहारी दूँगी और अपनी जबान माँ के आँगन में, माँ के सामने ही खोलूँगी। इसमें चाहे मुझे कितने ही दिनों तक गूँगा बने रहना पड़ जाए। मैं अपनी ओर से कोई प्रयत्न नहीं करूँगी। कितने बरस तक मैंने डरावने सपने देखे हैं। यह तो मास्टर को जाने या अनजाने सबसे पहले यहाँ आने की प्रेरणा हो गई, वरना चाहे जो हो जाता, मैं अपनी कसम नहीं तोड़ती। जब भी बोलती, बस यहीं आकर बोलती।’

पूरन जैसा पढ़ा-लिखा मास्टर इस हटौटी पर हैरान था। बाती विशु का सिर सहलाती सब सुन रही थी।

पूरन ने पूछा, ‘आखिर ऐसी गाँठ बाँधने का कारण क्या था?’

छोटा सा उत्तर था कृष्णा का, ‘मुझे डर था कि कहीं गूँगे का बेटा या बेटी भी वैसा ही नहीं हो जाए जैसा कि बाप है।’

पूरन हँसा, “अगर ऐसा ही होता तो फिर न तू गूँगी-बहरी, न मैं, फिर अपना उमेश कैसे गूँगा बहरा हो गया? अपने देवी-देवताओं को तुम लोग कितनी तकलीफें देती हो। उन्हें कभी तो आराम से रहने दो!’

सारा परिवार वापसी के लिए नीचे उतरने-के लिए खड़ा हुआ। कृष्णा ने विशु को एक बार फिर से माँ के चरणों में लिटाया। लेटते-लेटते वह फिर बोला, ‘मा.....मा.....मा.....न.....न.....पा.....दे.....दा.....!’ और पूरन मास्टर चकित था यह देखकर कि उसके साथ-ही-साथ कृष्णा भी बोले चली जा रही थी, “मा.....मा.....मा.....न.....न.....पा.....दे.....दा.....।’

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‘बिजूका बाबू’ की पहली कहानी ‘बिजूका बाबू’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की तीसरी कहानी ‘चमचम गली’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली - 110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

 

 

 



 


 

 


 

 

 


 


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