रामकन्या
साक्षात् भगवान राम भी इस गली की रामकन्या से पूरा नहीं पटक सकते। एक तो ब्राह्मण की बेटी, दूसरे, फिर ब्राह्मण की धर्मपत्नी, तीसरे नाम भी रामकन्या, चौथे तन से साँवली, साँवली क्या, करीब-करीब मेघवर्णी और पाँचवें, मन से एकदम पूनम की चाँदनी। दूध की धोई। बात करने बैठ जाए तो आपकी हाँ में हाँ इस तरह करती चली जाएगी कि अन्ततः आप उसकी हाँ में हाँ करने लग जाएँगे। जब उठेगी तो आप उसके साथ होंगे, वो आपके साथ नहीं होगी।
रामकन्या को कई बातों पर गर्व है। वो खुद भी कहती है कि “हाँ! जो मन हो वो आप मानो, पर मैं उस जमाने की ‘मीडल’ पास हूँ जिस जमाने की ‘मीडल’ के आगे आज के बी. ए.-एम. ए. पानी भरते हैं। हाँ साहब, मेरा रंग इतना साफ नहीं है। इसमें मेरा क्या कसूर? हजार, मेरी माँ का रंग गोरा था, लेकिन अब अपने बाप का क्या करुँ? पिताजी साँवले थे, रामकन्या भी साँवली हो गई। पर माँ-बाप ने नाम सोच-समझकर ही रखा। नाम रखा रामकन्या। अब रामजी कौन से गोरे थे! वे तो मुझसे भी ज्यादा साँवले थे। साँवले ही क्या, वे तो बादलों के रंगवाले थे। सीता माता गोरी थीं या नहीं? अब किस शास्त्र में लिखा है कि रामजी और सीताजी के दोनों बेटे किस रंग के थे! साँवला-गोरा सब चलता है। कोई माँ को जाता है कोई बाप को।” और रामकन्या रंग से सीधे रूप पर आ जाती है, ‘देख लो! मेरा रूप, नाक-नक्श ठीक है या नहीं? मैं कोई बादलों में बैठी बिजली तो हूँ नहीं, लेकिन आज भी पूजा-पाठ के बाद जब तुलसी माता को पानी चढ़ाने अपने चबूतरे पर जाती हूँ तो वो.....’ और यह कहते-कहते रामकन्या लजाकर अपना पल्लू मुँह में ठूस लेती। उसके गहरे साँवले गालों पर माँग का कुंकुम उभर आता। वह आरक्त हो जाती।
रामकन्या का पति तहसील में एक सामान्य कारकून था। गोरा-चिट्टा ब्राह्मण और नाक-नक्श से बिलकुल आर्यन। रामकन्या के गरूर का एक कारण यह भी था। मन की दूधिया रामकन्या एक तो कभी मिडिल को मिडिल नहीं बोल पाई और दूसरे, बीसवी सदी के जाते-जाते भी उसे यकीन नहीं हो पाया कि आदमी चाँद पर पहुँच गया है और आदमी की गाड़ियाँ मंगल पर उतर गईं हैं। ‘मिडिल’ को रामकन्या ‘मीडल’ बोलती थी और अपने ‘मीडल’ पर उसे बहुत गर्व था।
मुहल्ले में हर दोपहर आज इसके यहाँ तो कल उसके यहाँ महिलाओं की बैठकें होती रहती हैं। रामकन्या उन बैठकों में पहले ही क्षण बातचीत का सिरा अपने हाथ में ले लेती। औरतों को तो बात से मतलब! ये करे या वो करे। किसे फर्क पड़ता है? बस, रामकन्या पूछ बैठती, ‘अब इन गपोड़ियों को कौन कहे कि चाँद पर पाँव रखने की गप मत लगाओ। इनके लोक और परलोक दोनों बिगड़ जाएँगे। अब किसी ने नरक में जाने की हठ ही पकड़ ली तो रामकन्या क्या करे!’ इन बैठकों में पढ़ी-लिखी लड़कियाँ भी होतीं। साइंस पढ़नेवाली छात्राएँ भी होतीं। वे खिलखिलाकर हँस पड़तीं। रामकन्या उनकी तरफ मुड़ती, ‘फी-फी क्या कर रही हो? शादी के बाद करवाचौथ करनी है या नहीं? छठ का व्रत रखना है या नहीं? चाँद को देखे बिना काम चलेगा नहीं। दो-चार गप्पियों ने गप मार दी और तुमने मान भी ली!’
लड़कियाँ रामकन्या को छेड़तीं। पूछती, ‘आण्टी! आप अपनी बहू गोरी लाएँगी या काली?’
रामकन्या फिर पिल पड़ती, “देखो भई! ये आण्टी-वाण्टी मुझे मत कहो। काकी कह दो, मौसी कह दो, बुआ कह दो, पर यह ‘आण्टी’ क्या होती है? मेरे मन में कहीं कोई न तो गाँठ है, न कोई आँटी। जिसके मन में कोई आँटी हो, कोई गाँठ हो उसे कहना ‘आंटी।” फिर बहूवाली बात पर आ जाती, ‘देखो! मेरा पण्डत गोरा, मेरा बेटा गोरा, मेरी बेटी गोरी। अब इतने गोरे परिवार में एक साँवली रामकन्या ही बहुत है। बहू तो मैं चाँदनी ही लाऊँगी। बादल का जमाना खतम, बिजली का शुरु।’ और रामकन्या उन्मुक्त हास्य से कमरे को भर देती।
औरतें भी कम छेड़छाड़ नहीं करतीं। पूछतीं, ‘रामकन्या! आपके पण्डत काम क्या करते हैं?’
और इस सवाल को सुनते ही रामकन्या का चेहरा एक अतिरिक्त दर्प से दिपदिपा उठता। अपने मंगलसूत्र के पैंडल को ब्लाउज से बाहर निकालकर लटकाती और जवाब देती, “मेरे पण्डत की मत पूछो। मेरा पण्डत तहसील में ‘कलेक्टर’ है।’ इस ओहदे और ऑफिस का बखान रामकन्या जिस शान से करती, उसपर वह खुद ही मुग्ध रह जाती। औरतें जानती थीं कि कलेक्टर तहसील में नहीं होता, पर रामकन्या की हाँ में हाँ भरती औरतें बड़े मजे से मन-ही-मन रस की चुस्कियाँ लेती रहतीं।
आस-पास के मुहल्ले तक में रामकन्या का एक रूप बहुत लोकप्रिय था। किसी के भी यहाँ जरण, मरण, परण या सगाई-तिलक जैसा कोई भी काम हो, रामकन्या सबसे पहले वहाँ तैयार मिलती । मौत-मरण के लिए रामकन्या ने एक गमछा और एक फटी-गली सी साड़ी अलग ही रख रखी थी। अपने दैनिक भ्रमण में रामकन्या हफ्ते-दो हफ्ते का चार्ट मन-ही-मन बनाए रखती थी कि किसके यहाँ कौन बीमार हैं और उस आँगन में कब गमछा-साड़ी लेकर जाना पड़ सकता है। बदकिस्मती से कहीं कोई इस तरह का रोना-धोना हो जाता तो ढाढ़स बँधानेवालों में रामकन्या सबसे पहली टुकड़ी में शामिल मिलती। घर का सारा काम हाथ में ले लेती और सारा महिला समाज रामकन्या के भरोसे आश्वस्त हो जाता।
शादी-विवाह के मौकों पर भी इसी तरह का रोल रामकन्या का रहता। पीले चावल और हलदी की डिबिया रामकन्या के यहाँ सबसे पहले इसलिए पहुँच जाती थी कि शादीवाले रामकन्या के सहारे घर का तीन-चौथाई काम हलका कर सकें। उस घर पहुँचते ही रामकन्या पहला काम जो करती वह होता था अपने ही साँवले बदन पर हलदी करना। हलदी का लेप तैयार नहीं होता तो रामकन्या पहले हलदी का लेप तैयार करती, फिर आस-पासवाली महिलाओं के चेहरों पर उस लेप को जबरदस्ती लगाती और बड़े आराम से अपने हाथ-पाँव और मुँह पर हलदी करने बैठ जाती। बन्ना-बन्नी भी खुद ही गाना शुरु कर देती। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण एक काम और भी था, जिसे रामकन्या अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर करती। वह काम था ‘खोड़îा’ निकालना। लड़के की शादी के समय जब दूल्हा बारात लेकर शादी करने चल पड़ता, उसके बाद लगनवाली रात घर-मुहल्ले की औरतें शादी का नकली स्वाँग रचाती हैं। एक महिला दूल्हा बनती, एक दुलहन, शेष महिलाएँ बाराती बनकर, टूटा-फूटा टिन-कनस्तर बजा-बजाकर सारे मुहल्ले में बारात निकलने का स्वाँग किया जाता। रामकन्या इस ‘खोड़्या’ जुलूस में दूल्हा बनना अपना हक मानती थी। उसके दुपट्टे से गठबन्धन बाँघे नकली दुल्हन पीछे-पीछे रोने का नाटक करती हुई रोती चल रही है, माथे पर मोड़ बाँधे, कन्धे पर खपच्ची की तलवार धरे, मर्दानी धोती पहने, लम्बे कोट-कुरते पर अच्छे से बूट पहनकर पान चबाती आगे-आगे चलती रामकन्या सारे मुहल्ले के एक-एक मरद को लाख-लाख टके की गालियाँ देती। यहाँ से वहाँ तक जुलूस लेकर घूमती। और लड़के के घर वापस पहुँचते ही अपनी नकली दुलहन को लेकर सुहागरात के लिए कमरे में बन्द हो जाती। बाहर कनस्तर पिटता रहता, भीतर से तरह-तरह की आवाजें आती रहतीं। और विजयी मुद्रा में रामकन्या जब कमरे से बाहर निकलती तो सारा मुहल्ला तालियों-गालियों और अजीब-अजीब तरह की फब्तियों से भर जाता। कनस्तर की आवाजें और भी तेज हो जातीं। दुलहन भीतर से ही फूला हुआ पेट लेकर निकलती और बाहर सोहर के गीत शुरु हो जाते। किसी औरत को दाई बनाया जाता। बच्चा होता। नाल काटी जाती। और पूछा जाता कि लड़का है या लड़की? रंग कैसा है? माँ पर गया या बाप पर? हवा में एक जुमला उछलता कि ‘ये तो पड़ोसी पर गया है।’ और बस, रामकन्या वहीं अपनी साड़ी खोलती। उसमें बल देकर उसका सोंटा बनाती और फिर एक-एक की पीठ पर सटासट सोंटे पड़ने शुरु हो जाते। रात का तीसरा पहर इसी तरह बीत जाता। रामकन्या थी ही पूरे मुहल्ले की रौनक।
लोगों को लगता था कि उदासी और आँसुओं से रामकन्या का कोई लगाव नहीं है। उसे मुँह लटकाए आज तक किसी ने नहीं देखा। टूथपेस्ट वालों की नजर नहीं पड़ी वरना रामकन्या के मोती जैसे दाँतों और खिलखिलाते चेहरे को अपने विज्ञापनों में आराम से काम में ले सकते थे। लेकिन उनका दिल्ली-मुम्बई से मोह छूटे तब न! रामकन्या को किसी ने यह कह दिया तो वह बहुत गम्भीर हो गई। फिर कह बैठी, ‘मेरा फाट़ू कोई छाप तो दे अखबार में! उस अखबारबाले की जिन्दगी ठीक करके नहीं बता दूँ तो मेरा नाम रामकन्या नहीं। फोटू छपे किसी ऐसी-वैसी का, मेरा भला क्यों छपे?’ रामकन्या कभी भी नहीं मान सकी कि अखबारों में भली औरतों के भी फोटो छपते हैं।
पिछले अठारह-बीस बरसों से रामकन्या ने इस मुहल्ले को यह रौनक बख्श रखी है। वह खुद भी नहीं जानती है कि उसके कारण यह मुहल्ला कितना सजीव है! बीमारों की तीमारदारी और लोगों के सुख-दःख में रामकन्या अपना सुख-दुःख, अपनी बीमारी भूलकर लगी रहती है।
आज पण्डत कचहरी से लौटे तो जरा ज्यादा ही खुश थे। रामकन्या मुहल्ले में किसी घर में अपराह्नवाली बैठक में चहक रही थी। अनायास घर से बुलावा आ गया। अपनी बात अधूरी छोड़कर रामकन्या घर की तरफ भागी। घर पहुँची तो पण्डत ने खुशखबरी दी। बताया कि उनका ‘प्रमोशन’ हो गया है। रामकन्या पहले तो ‘प्रमोशन’ का मतलब ही नहीं समझी। जब उसे समझाया गया कि पण्डत की तरक्की हो गई है और अब तनख्वाह का पैसा बढ़ जाएगा, कुछ पुराना पैसा भी मिल जाएगा, तो रामकन्या ने माथे पर पल्ला ठीक से लेकर कमरे में रखी देवमूर्तियों के सामने दीपक जलाया। सुहाग बिंदिया पर कुंकुम नए सिरे से लगाया, शीशे में मुँह देखा और पण्डत का मुँह मीठा कराने के लिए आगे बढ़ी।
पण्डत ने कहा, ‘प्रमोशन तो हो गया, लेकिन साथ ही अपना तबादला भी हो गया है। जिले की दूसरी तहसील में जाकर नौकरी करनी होगी। वहाँ जगह खाली है। यहाँ पोस्ट खाली नहीं है।’
रामकन्या मुँह बाए देखती रह गई, ‘क्या कहा? हमें यह गाँव, यह मुहल्ला छोड़कर कहीं और अपनी गिरस्ती बसानी पड़ेगी?’
‘हाँ रामू!’ पण्डत का चिन्तित उत्तर था।
‘मैं मर जाऊँंगी, पर यह मुहल्ला नहीं छोड़ूँगी। आपको जाना हो तो जाओ। फाड़कर फेंक दो इस कागज को। किसने माँगा था राज कचहरी से यह परवाना? क्या होता है यह परमोसन? रामकन्या यहीं जिएगी, यहीं मरेगी।’
पण्डत को लगा कि रामकन्या फूट-फूटकर रोने लग जाएगी। वह दहाड़ मार बैठेगी। पण्डत ने घबराकर दरवाजा बन्द कर लिया रामकन्या ने बन्द होते दरवाजे को एक झटके के साथ खोल दिया। रोते-रोते वह बाहर निकली। अपनी अधूरी छोड़ी बैठक में शामिल होने के लिए रास्ते में आ गई। पण्डत ने रामकन्या को आवाज देने की कोशिश की, लेकिन वह भला कहाँ ठहरनेवाली थी! उसने पूरी ताकत से कहा, ‘नहीं जाऊँगी! नहीं जाऊँगी!! नहीं जाऊँगी!! आपको जाना हो तो जाओ।’
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‘बिजूका बाबू’ की तीसरी कहानी ‘चमचम गली’ यहाँ पढ़िए।
‘बिजूका बाबू’ की पाँचवी कहानी ‘तेल का खेल’ यहाँ पढ़िए।
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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