बाइज्जत बरी
हाईकोर्ट में बरामदे में कोई खास चहल-पहल नहीं थी, होती भी कैसे? कौन-सा इतना बड़ा मामला था? आए दिन इस तरह के मामले आते रहते हैं और अपराधियों को छोड़ा जाता है। गवाह पुख्ता मिलने पर सजा के लायक जो होते हैं, उनको सजाएँ होती रहती हैं। कुछ वकीलों की आवाजाही, कुछ जूनियरों का आना-जाना और कुछ मुंशियों की भाग-दौड़, हर फैसले के साथ यही कुछ गहमागहमी हो जाती है और लोग आते-जाते रहते हैं। हाँ, कोई बहुत ही जरूरी या महत्व का मामला हो तो कुछ भीड़-भड़क्का हो जाता है। पक्षकारों के हेतु-मुलाकाती या नाते-रिश्तेदार जुट जाते हैं और तारीख-पेशी बढ़ने के साथ ही अपने-अपने वकीलों से आगे की समझ लेकर अपना-अपना रास्ता ले लेते हैं। आज भी वैसा असहज कुछ भी नहीं था। गए दो सालों से एक हत्या का मामला चल रहा था, उसका फैसला होना था, यहाँ-वहाँ कभी-कभार एकाध आवाज सुनाई पड़ जाती थी और पूछताछ करके लोग बरामदे की भीड़ अपने आप कम कर देते थे।
पानी काकी जरूर गुमसुम थी और रह-रहकर आकाश देखकर कुछ न कुछ बुदबुदा उठती थी। लगता है कि वह भगवान से प्रार्थना कर रही है। उसके वकील का जूनियर आते-जाते पानी काकी को तसल्ली देता और कहता -‘चिन्ता मत कर पानी काकी! वकील साहब ने अपनी सारी जिन्दगी की पढ़ाई दाँव पर लगा दी है। तुम्हारा काशी छूट जाएगा, छूट ही नहीं जाएगा, वह बाइज्जत बरी होकर कल तक जेल से बाहर आ जाएगा। तुम तो वकील साहब की फीस और मेरा ईनामतैयार रखो। पानी काकी खुश होने की कोशिश करती और फिर कुछ न कुछ बुदबुदा पड़ती।
‘छोटे साहब, आप खुशखबर तो दो, बाकी सब तो मैं करूँगी ही। कोर्ट का दस्तूर पाई-पाई चुकाकर जाऊँगी, मेरा काशी एक बार बाहर आ जाए.......।’ और इसके साथ उसके मुँह से लम्बी साँस से छूटा ‘हे भगवान!’ का निराश बोल निकल पड़ता था।
कहावत है रॉँड का बेटा साँड हो जाता है। काशी के साथ भी यही हुआ। पानी काकी भरी जवानी में रॉँड हो गई। गोद में इकलौता बेटा छोड़कर काशी के बाप ने दम तोड़ दिया। बीमारी मामूली सी थी, पर गाँव-देहात में किसी के पल्ले नहीं पड़ी और पानी काकी जलती जवानी और दो बरस का किलकता काशी गोद में लिए, अर्थी के आसपास फेरे उबरने को धाड़ मारकर खड़ी हो गई थी। तब से आज तक पानी काकी बराबर अपने पाँवों पर ही खड़ी रही थी। उलटे फेरे लेते समय ही उसने मन में अपने राम को राजी लिया था कि काशी के सहारे जिन्दगी काट लेगी। उसने जमाने की कमीनगी से अपनी जिन्दगी को बचाया। पति के बाप-दादों के जमाने से चली आ रही खेती को सम्हाला और कुत्तों-कमीनों से ज्यादा हरामी रिश्तेदारों से अपने सुहाग की सौंपी हुई अचल सम्पदा की रक्षा की। यहाँ-वहाँ मजदूरी कर-कर के वह काशी को भविष्य के लिए तैयार करती रही। जैसे-जैसे काशी बड़ा होता गया, पानी काकी बूढ़ी होती गई। उसके दिन खेतों में और रातें गाँव के मन्दिरों-देवरों में जागरण के गीत गाते कटे। अपने सत से वह कभी नहीं डिगी। दुनिया के लोभ-लालच उसे इधर से उधर हलका-सा टल्ला भी नहीं दे सके। पानी काकी गाँव की नाक बनकर अपनी पहचान बना चुकी थी। गाँव के पास वाले कस्बे के मदरसे में उसने काशी को थोड़ा बहुत पढ़ाया भी। काशी से उसको पूरी उम्मीद थी कि वह अपने बाप का नाम, अपनी माँ का दूध और गाँव की मिट्टी का जस ऊँचा उठाएगा। देवी-देवताओं के मन्दिरों पर गाए गए रतजगे के गीतों पर पानी काकी को पूरा भरोसा था। वे किसी ऐरे-गैरे के नहीं, ठेठ सन्तों के लिखे गीत थे। काशी के कानों में वे गीत बरसों से पड़ रहे थे।
बीस बरस काशी अपने लिए अपनी माँ के द्वारा किए गए ताप और तपस्या की कहानियाँ जब सुनता, तो उसे लगता था कि उसका जीवन अगर माँ के काम नहीं आया तो वह बट्ठड़ है और उसे धिक्कार है। उसे गर्व होता था कि वह पानी काकी का जाया है। व्यवहार में वह विनम्र और बोलचाल में लिहाज वाला माना जाता था। मदरसे में उसके मास्टर उससे खुश रहते थे। किसी तरह की कोई शिकायत काशी की नहीं थी।
पानी काकी ही क्या, गाँव के किसी परिन्दे तक को भरोसा नहीं हुआ, जब गाँव में समाचार यह आया कि जिले के एक नामी-गिरामी अफीम स्मगलर की, पाँच किलो अफीम ले जाते हुए काशी पकड़ा और पकड़े जाते समय हुई छीना-झपटी में दूसरे गिरोह का एक आदमी मारा गया, जिस पर शक था कि वह पुलिस का आदमी हैं। इस मुखबिर की हत्या का इल्जाम काशी पर आया और काशी को पुलिस नेे पकड़कर हवालात में बन्द कर दिया है। पानी काकी की आँखों में लाल-पीले बादल उतर आए। वह समाचार के सत्य को सह नहीं सकी और बेहोश हो गई। बात सच थी। काशी पकड़ा गया था।
इस गिरफ्तारी के बाद पानी काकी से कई लोगों ने कहा था कि उन्हें तो बहुत दिनों से पता था कि काशी आए दिनों, किलो-दो किलो माल सायकल पर यहाँ से वहाँ लाता-ले-जाता है और उससे अपना रोज-खर्चा चलाता है। वह इस इलाके का भरोसे का ‘केरियर’ है। आसपास के दो-एक नवयुवक और भी ‘केरियर’ का यह काम करते हैं और अपनी रोटी खाते-कमाते हैं। यह कोई गुनाह नहीं है, गुनाह वो जो पकड़ में आ जाए। कहते हैं कि काशी पर पुलिस की नजर तो बहुत शुरु से थी पर उसकी शराफत के आगे सभी उसे बचा लेते थे। उस पर किसी भी हाकिम ने हाथ नहीं डाला। वह एक ‘शरीफ केरियर’ माना जाता था। माल देने और माल लेने वालों को कभी काशी पर अविश्वास नहीं हुआ। ठहराए हुए पैसों से काशी को दस-पाँच रुपए ज्यादा ही मिल जाते थे। अगर इस केस में हत्या का रगड़ा नहीं होता तो काशी पर कोई भी हाथ नहीं डालता।
पानी काकी इस चोट से करीब-करीब टूट गई थी। गाँव में उसकी इज्जत का पानी उतर चुका था। मुकदमे के लिए लोग पैसा लगाने को तैयार नहीं थे, पर सभी की नजर पानी काकी की जमीन पर थी। काकी थी कि इस कुकर्म के कुकर्मी को बचाने के लिए बाप-दादा की जमीन बेचने को तैयार नहीं थी।
पानी काकी की इस जिद की रक्षा राम ने की। जिसका माल लेकर काशी जा रहा था, उसका आदमी पानी काकी के पास आया और चुपचाप कह गया कि चिन्ता की कोई बात नहीं। काकी अपना मनपसन्द वकील कर ले और मुकदमा दम-खम से लड़े। पाई-पैसों की चिन्ता नहीं करे। बेटा वह बेशक पानी काकी का था, पर आदमी सेठ का था।
एक पल को पानी काकी को लगा कि देखो इस खोटे धन्धे का ईमान! गन्दे लोगों के पास इतना चरित्र होता है, यह पानी काकी के लिए चौंकाने वाली बात थी। एक तरफ दुनिया है कि काकी की जमीन खाने पर तुली है दूसरी तरफ अनदेखा और अनजाना सेठ है कि अपने आदमी को बचाने के लिए थैली खोल कर बैठा है। इतना ही नहीं, पानी काकी को उसने यह भी कहलवाया कि जब तक काशी जेल से नहीं आ जाता, तब तक काकी का सारा खर्चा भी सेठ ही देगा, काकी किसी तरह की चिन्ता नहीं करे। सेठ सामने तो आएगा नहीं, पर काकी की पीठ पर से हाथ हटाएगा भी नहीं। मामला ऊँची से ऊँची कोर्ट तक लड़ने की तैयारी कर ले, सेठ का आदमी चुपचाप आकर काकी को रकम देता रहेगा। सवाल धन्धे और विश्वास का है। काशी करोड़ का है। अगर वह फँस गया है सेठ ने यह माना है कि सेठ खुद या उसका अपना बेटा फँस गया है।
पानी काकी ने खुद को समेट कर अपने जीवन को नए सिरे से जीना शुरु किया। सेठ के आदमी को काकी ने धन्यवाद देकर अपने खुद के लिए किसी भी तरह की सहायता लेने से मना कर दिया। वह भगवान से डरने वाली एक सती माँ थी। भगवान ने उसे इकलौता बेटा दिया है और उसके सामने अभी सारा रँडापा काटने के लिए पड़ा है। बुरा पैसा वह अपने काम में नहीं लेगी। यह पैसा कोई गौमाता का गोबर नहीं है, जिससे वह अपना आँगन लीप ले। रहा सवाल कोर्ट में मुकदमा लड़ने का, सो सेठ जाने और उसका वकील। काशी छूट कर आ गया तो ठीक और नहीं भी आया तो भगवान की मरजी। अपनी मेहनत-मजदूरी वह कर लेगी। अपने पेट की चिन्ता उसे न कल थी, न आज है। आबरू का पानी हो गया, सो हो ही गया है। और पानी काकी भाग्य के नाम पर सब कुछ लिखकर मन्दिर के जागरणों में जाने-आने लगी। उसने अपनी दिनचर्या सहज जीने की नई कोशिश की। समाज ने पानी काकी की डोर को जहाँ से टूटी थी, वहीं से जोड़ने में कोई हीला-हवाला नहीं किया। साल भर तक मामला सेशन कोर्ट में चला और जैसा कि होता है, अपराधी को साँस खत्म होने तक फाँसी की सजा सुना दी गई। मामला काशी की तरफ से हाईकोर्ट में चला गया, अपील हो गई।
आज उसी हत्या के मामले का फैसला होना था। दो साल मुकदमा यहाँ चला। काशी ने ये तीन साल न्यायालयीन जेल में निकाले। तारीख-पेशी पर जब हथकड़ी-बेड़ी में काशी लाया जाता तो एक नजर पानी काकी उसकी सेहत पर डाल लेती। वार-तेवार जेलों में जाकर उससे एकाध चक्कर मिल आती और अपने दिनों का जोड़-बाक़ी करती रहती। उम्र उसकी दिनानुदिन कम होती जा रही थी। जागरण में गीत-भजन गाते समय उसके सुर में कम्पन जरूर पैदा हुआ था, पर सुर टूटा नहीं था। कभी-कभार उसे एक रोशनी जैसा कौंध कर सन्देश देता था कि तेरा काशी आ जाएगा। और हाइकोर्ट में कुछ तो पानी काकी का भाग्य, कुछ वकील साहब की मेहनत, कुछ गवाह-पुरावा, कुछ बहस और कुछ काशी की किस्मत, कुल मिलाकर जज साहब ने कोर्ट उठने के समय फैसला सुनाया कि ‘साक्ष्य के अभाव में काशी को बाइज्जत बरी किया जाता है।’ काशी ने फैसला सुना और धन्यवादी नजर से न्यायाधीश महोदय की ओर देखा। उसकी फिसलती हुई नजर अनायास पानी काकी पर भी पड़ी औेर काशी की आँखों से आँसू बह निकले।
इन तीन सालों में काशी कितना बदल गया था! उसने भरे इजलास में मना किया था कि हत्या उसने नहीं की थी और जो माल पकड़ा गया, वह उसका नहीं था, न उसके पास से पकड़ा गया था। पुलिस ने उसे रंजिश में बन्द किया है। यह बयान एक जमा-जमाया और रटा-रटाया बयान था। हर अपराधी यही कहता है। कहते हैं कि जेल में जाना तो आसान है, पर जेल से निकलना बहुत कठिन है। तरह-तरह की खानापूरियाँ, तरह-तरह की औपचारिकताएँ, यह कागज, वह कागज, इसका सर्टिफिकेट, उसका प्रमाण-पत्र, यह ले, वह दे, करते-करते, पूरा एक सप्ताह लगा काशी को बाहर आने में।
बड़ी जेल के दरवाजे पर पानी काकी और गाँव के दो-चार साथी-संगाती काशी के लिए खड़े थे। कहते हैं कि उस भीड़ में सेठ का आदमी भी कोई न कोई था जरूर। काशी बाहर आया और आते ही माँ से लिपट गया। पानी काकी ने अपने आँचल में काशी का सिर छिपाकर उसे सीने से लगाया। खूब रोया काशी और किसी के चुपाए, चुप नहीं हो सकी पानी काकी।
किसी ने कहा, ‘अभी एक पत्थर और पड़ा है रास्ते में। पुलिस इस मामले को दिल्ली सुप्रीम कोर्ट में ले जाएगी।’ तभी एक अनजाने आदमी ने कहा, ‘अब क्या होना-जाना? जो फैसला यहाँ हो गया है, वही वहाँ भी समझो।’ यूँ कहकर वह आदमी दूसरी तरफ बढ़ लिया। कहने वालों ने कहा कि यही सेठ का आदमी था। जब तक काशी वापस घर नहीं पहुँचता सेठ का आदमी उसके लिए धन-साधन जुटाए चलता रहेगा।
पूरे तीन साल और एक सप्ताह बाद काशी गाँव में आया था। सूरज ढलने को था। पानी काकी ने सबसे पहले उसे बड़े मन्दिर जाकर देव-दर्शन कर आने को कहा।
पाँच-पच्चीस लोगों का हुजूम काशी के आसपास ही चल रहा था। सब उसे तरह-तरह की नजर से देख रहे थे। कोई बोल रहा था तो कोई अनमनेपन से ही साथ में चल रहा था। सभी काशी के अपने थे पर उसे सब कुछ पराया लग रहा था। वही गाँव, वही गाँव की होटल, वही गली, वही मुहल्ला, पर काशी को लगा कि कुछ भी उसका नहीं है। दरवाजों पर खड़ी, उसकी मुँह-बोली भाभियाँ और काकियाँ, बुआएँ, बहिनें सभी उसे ऐसी नजर से देख रही थीं, जिसका कि वह आदी नहीं था। न वह किसी से बोला न कोई उससे। चुपचाप मन्दिर गया और दर्शन करके अपने घर पहुँचा। माँ ने कहा-‘नहा ले काशी, फिर खाना परोस देती हूँ।’ काशी नहाने की तैयारी में लगा और पानी काकी ने चूल्हें में लकड़ियाँ लगाकर खाना बनाने की शुरुआत की।
काम की उमंग, काकी का उल्लास पता नहीं चूल्हे से उठे धुएँ के पहले ही गुबार में गायब हो गया। अपने सगे बेटे के लिए वह खाना बना रही थी पर उसे आज लगा ही नहीं कि एक माँ अपने पेट की आँत के लिए खाना पका रही है। पानी काकी ने थाली लगाई, नहाकर काशी चूल्हे के पास उसी तरह खाने के लिए आ बैठा, जिस तरह तीन साल पहले बैठा करता था।
पता नहीं अनायास काकी को क्या हुआ। उसने थाली उठाई और काशी से कहा-इधर दरवाजे के बाहर आ जा बेटा! आगे-आगे पानी काकी और पीछे-पीछे काशी। पानी काकी ने दरवाजे के बाहर बाएँ हिस्से पर जमीन को अपने आँचल से साफ किया, काशी को बैठने का इशारा किया। काशी कुछ समझ नहीं पाया। वह वहीं खड़ा रहा। पड़ोस-मुहल्ले के दो-चार लोग यूँ ही इकट्ठे हो गए। माँ के हाथ में थाली है और बेटा खड़ा-खड़ा देख रहा है।
‘काशी बेटा! थाली पकड़।’ पानी काकी ने पुचकारते हुए कहा। काकी की आँखें छलछला रही थीं। काशी ने थाली पकड़ी। काकी ने ढलते सूरज को अपने ढालिए से देखते हुए कहा, “बेटा! अन्न देवता की थाली तेरे हाथ में है। मेरी आँखों में आँखें डालकर एक बार कह दे कि तू बेकसूर है। मैं तेरी माँ हूँ, ये देख मेरा ऑँचल, आज आँसू ही नहीं, दूध से भी गीला है। तू मौत के मुँह से वापस आया है, मेरे काशी! पर किसी एक माँ का एक जवान बेटा दुनिया से चला भी गया है। कोरट की बात कोरट में खत्म हो गई। माँ की कोरट भगवान की कोरट से बड़ी होती है। जो भी बोलना हो, मेरी आँखों में आँखें डालकर बोल दे बेटा! मैं मान लूँगी। लेकिन तेरी पलक भी अगर झपकती है तो मेरा दूध सूख जाएगा। वहाँ जज साहब बोले जरूर थे कि तुझे बाइज्जत बरी किया है। पर बेटा! वहाँ तो बस ‘बरी’ हुआ है। ‘बाइज्जत बरी’ तो तुझे यहाँ होना है। तेरे हाथ में अन्न भगवान है और तू माँ की कोरट में खड़ा है। बेटा! यह मेरे दूध का सवाल है। बोल तेरा मन देवता आज जो भी बोल देगा पानी काकी उसे मान लेगी। मुझे भरोसा है बेटा कि मेरा दूध झूठ नहीं बोलेगा। सूरज नारायण अपने घर जा रहे हैं और तेरे हाथ में अन्न की थाली है और सामने माँ।”
काशी आँसुओं से तर हो चुका था, हाथ की थाली छूटने को थी। बोलने की कोशिश में वह बस माँ-माँ ही कह पा रहा था। काशी के हाथ की थाली पानी काकी ने अपने हाथ में ली, काशी को सहारा दिया। काकी ने देखा कि काशी की पलकें ऊपर उठ नहीं रही हैं, वह बोल नहीं पा रहा है।
पानी काकी ने काशी को वहीं जमीन पर बैठाया, उसके सिर पर हाथ फिराते हुए कहा- “तेरी नजरें माँ से मिल नहीं पा रही हैं। कोई चोर तेरी आँखों में उतर आया है। कोई बात नहीं बेटा! जब तक मैं यहाँ हूँ, जब भी तुझे भूख लगे रोटी माँग लेना। पर बेटा! अब तुझे खाना खाने के लिए बैठना चूल्हे से दूर, दरवाजे के पास इसी जगह पड़ेगा! आते-जाते लोग देख तो लें कि एक ‘बाइज्जत बरी’ आदमी माँ की कोर्ट में किस तरह की सजा भुगत रहा है?” कहकर पानी काकी चूल्हा सँभालने अन्दर चली गई।
काशी ने काँंधे का गमछा मुँह में ठूँसा। शायद वह अपनी निकलती हुई चीख को रोकने की कोशिश कर रहा था। थाली में दाल की कटोरी और ताजी रोटी पर काशी के आँसू टप-टप गिर रहे थे। रास्ते आने-जाने वाले लोग एक पल को वहाँ ठिठकते और फिर आगे बढ़ लेते।
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कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
बेहद मर्मस्पर्शी ।निशब्द एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी हूँ ।
ReplyDeleteजी। दादा की कहानियों में यह कहानी मेरी सर्वाधिक प्रिय कहानियों में सबसे पहली है।
Deleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।