दखल (‘मनुहार भाभी’ की अठारहवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की अठारहवीं कहानी




दखल 

आए दिन भाभी समय-असमय झल्लाने लगती थीं। उनकी यह खीज सारे परिवार पर भारी पड़ती। जिस दम वे शुरु होतीं बस होती ही रहतीं। किसी की हिम्मत नहीं थी कि उन्हें टोक दे। एक तो घर में वे सब से बड़ी, फिर सारे दिन वे इस परिवार के लिए इतना खटती थीं कि हर कोई उनकी अवहेलना करने का विचार भी मन में नहीं ला सकता था। एक-एक के लिए एक-एक चीज और एक-एक बात का ध्यान रखना भाभी की दिनचर्या का खास हिस्सा था। इस घर को बसाने, बनाने और आकार देने में ये अकेली लेकिन सब से आगे थीं। भाभी कही जाती थीं लेकिन थीं तो माँ!

अमूमन बड़े सवेरे पाँच बजे के आसपास वे उठ जातीं । उठकर धरती माता को प्रणाम करतीं। अपने इष्ट देवता का नाम लेतीं। दोनों हथेलियाँ मसल कर प्रभु का नाम लेतीं। फिर सामने दीवार पर लगी देवी-देवताओं की तस्वीरों को प्रणाम करतीं। कमरे की झिलमिल रोशनी में ही बिस्तर को समेटतीं। उसकी चादरें ठीक करतीं और बस अपनी प्रातःकालीन चर्या से निवृत्त होने के निमित्त स्नानघर में घुस जातीं। कुल्ला, दतौन, हाथ-मुँह आदि से निपट कर करीब-करीब ताजा-सी लगने वाली भाभी सबसे पहले देखतीं कि परिवार के कितने सदस्य जागे हैं और चाय वगैरह के लिए उन्हें पतीली में कितना पानी रखना है। अजीब-सा नियम वह भी था भाभी का कि वे पतीली को चूल्हे पर रखते ही, सीधे जा कर आईने के सामने खड़ी हो जाती थीं और अपने ललाट पर लगी सुहाग बिन्दी को देख कर  हल्के से मुस्करातीं। उसे ठीक करतीं और फिर काम में लग जातीं।  यह वह समय होता जब सारे घर में ही नहीं आसपास के सारे घरों में जगार होने लगती। पिछवाड़े के नलों पर उधर वाली गृहिणियाँ पानी भरने के लिए बर्तन-घड़े माँजने लगतीं और नलों से जैसे-तैसे दबाव के साथ बहते पानी की आवाजों के साथ ही भोर-वार्ताएँ शुरु हो जातीं। चूँकि महिलाएँ दूर-दूर खड़ी बतियाती थीं सो कुछ ऊँचे सुर में बोलना जरूरी होता ही था। और बस यहीं से भाभी की झल्लाहट चल पड़ती। बाबूजी, बहूजी और पोते-पोती नीचे आकर अपने-अपने कप सँभालते और भाभी के हाथ से चाय लेने की प्रतीक्षा करते। तब तक तो भाभी भड़ाक से पिछला दरवाजा बन्द कर चुकी होतीं। औरतों की आवाजें उधर से ही तो आती थीं सो कुछ ऊँचे सुर में बोलना जरूरी होता ही था। और बस यहीं से भाभी की झल्लाहट चल पड़ती। औरतों की आवाजें उधर से ही तो आती थीं न?

भाभी की तकलीफ यह थी कि बस्ती कितनी शोरगुल से भरी पड़ी है। अच्छा यह होता कि वे किसी गाँव में जा बसी होतीं। बच्चों के पास रहने की ललक ने सारा सत्यानास कर दिया। वैसे भाभी की बातों में वजन अवश्य था। जैसे वे जब तल्ख होकर कहतीं कि ‘अजीब शहर है यह। बड़े सवेरे मुँह झाँकरे एक के बाद एक मन्दिरों पर जोर-शोर से लाउडस्पीकर बजने लग जाना भला कैसे अच्छा लग सकता है? अगर बजाना ही हो तो एक मन्दिर पर बजा लो। सारे शहर में भगवान जी सुन लें और अपना काम करें। लेकिन यह मन्दिर-मन्दिर होड़ लगी हुई है। उसने सारा सवेरा तहस-नहस कर दिया है। एक का राग दूसरे में घुस जाता है। पहले की आरती दूसरे की वन्दना में उलझ कर न जाने कैसा मन कर देती है? न सुनने में अच्छा न समझने में भला। राम जाने कौन-सी कम्पीटीशन मची हुई है इन भगवानों में?’ अपने आवेश को कुछ उतार पर लाने के बाद वे फिर बाबूजी से पूछतीं, ‘इन मस्जिद वालों को क्या हो गया है? सुबह-सुबह एक मस्जिद का सायरन बजता है और लगते ही दूसरी का भी शुरु हो जाता है। एक पर अजान शुरु हुई नहीं कि दूसरी पर नमाज के लिए अजान लगने लग जाती है। अरे भाई! एक ही अजान पर उठकर अपनी-अपनी मस्जिद में क्यों नहीं चले जाते हो? बात तो वो की वो है। मन्दिरों पर तो आरतियाँ और वन्दनाएँ अलग-अलग हैं। यह बात समझ में आती है। लेकिन अजान तो एक की एक ही लगनी है। फिर अलग-अलग लाउड स्पीकर और अलग-अलग अजानदार! क्या एक के जगाए दूसरा नहीं जागेगा? मस्जिदें दस हो सकती हैं पर अजान तो वो की वो है न! उधर वालों ने भगवान को तंग कर रखा है। इधर वालों ने अजान पर अजान गूँध कर रख दी।’

बाबूजी चाय पीते-पीते भाभी को समझाते, ‘भागवान! क्यों इस माथापच्ची में पड़कर कच-कच करती रहती है? अपना नहाओ-धोओ और पूजा-पाठ करके राम का नाम लो। न जाने कहाँ-कहाँ दिमाग लगाए झल्लाती रहती हो!’

और भाभी पल भर भी माफ नहीं करतीं - ‘अब मेरे पास दिमाग है तो मैं लगाती हूँ। किसी के पास नहीं हो तो क्या लगाए? अब सुन लो! एक के बाद एक करके इस कॉलोनी में ये ब्रेड बेचनेवाले लड़के कितने चक्कर लगाते हैं? किसी ने गिने? एक.....दो....तीन....चार....पाँच....। मैं तो गिनते-गिनते अधमरी हो गई। जिसको भी लेनी होती है वह पहले ही फेरे में ले लेेता है। लेकिन ये हैं कि गला फाड़ते हुए गली को चीरे जा रहे हैं।

गला और गली वाली बात पर बच्चे हँस देते। भाभी जरा साँस लेतीं। फिर लगता कि उनके गले में अभी कई वाक्य फँसे पड़े है जो निकलने का रास्ता टटोल रहे हैं। यह वह समय होता जब बहू स्नानघर से निकल कर रसोई की तरफ आती थी। बहू आते ही पहले बाबूजी के और फिर भाभी के पाँव छूती। माथे पर पल्ला डाले बहू को इस तरह पाँव छूते देखते ही भाभी के खीज-भरे शब्द पीछे खिसक जाते और एक ही साथ कई आशीषें बरस पड़तीं। फिर थोड़ा-सा चिढ़ते हुए हुए अपने आप से कह पड़तीं, “क्या जमाना आ गया है? अब इसे यूँ भी नहीं कह सकती कि ‘दूधो नहाओ पूतों फलो’! आँचल में दूध तो है लेकिन जितने थे वे आ चुके थे। अब रखा ही क्या है?” और सलज्ज चुपचाप चाय के बर्तन समेटने लग जातीं।

भाभी फिर शुरु हो जातीं, “जब तक बहू, तू सब्जियाँ नहीं खरीदेगी तब तक ये सब्जीवाले  यहीं चक्कर लगाते मरेंगे। जो भी लेना हो वह पहले ही फेरेे में ले लेना वर्ना सारी दोपहरी ये लोग तंग करेंगे। इन मरों को न तो सब्जियों के नाम ही पूरी तरह मालूम हैं, न ये बेचना ही जानते हैं। टमाटर को ‘टमेटा’ बोलेंगे और पालक को जाने किस तरह ‘पालकी’ बोल कर चिल्लाएँगे।......भई! मैं तो इस कालोनी में मर गई।”

जैसे-जैसे दिन चढ़ता और दिनचर्या आगे बढ़ती, भाभी पर झल्लाहट का दौरा भी तेज होने लगता। नहा कर पूजा-पाठ से निपटते-निपटते वे पहले ही भविष्यवाणी कर बैठतीं, ‘देखना! मैं अभी से कह रही हूँ वो बर्तनवाली आज नहीं आएगी। जहाँ दो पैसे ज्यादह मिलेंगे वहाँ राख लेकर बैठ जाती है। इनको कितना ही घर जैसा रखो, ये रहेंगे वो के वो।’ बाबूजी फिर समझाते, ‘भली मानस! उनकी अपनी भी परेशानियाँ हो सकती हैं। अगर वो नहीं भी आए तो हल्ला करके क्या मिल जाएगा? बहू है, तुम हो और मैं भी हूँ। अपने ही जूठे बर्तन मलने में कौन सी शर्म लगती है?’ 

बाबूजी का कहा पूरा होता तब तक तो भाभी बरस पड़तीं, ‘हाँ! मेरा नरक पक्का करके ही दम लोगे। अब मेरी थाली आप माँजने बैठ जाएँगे तो.....हे राम! मरद जात को अक्कल दे प्रभु!’ और यह सुनते-सुनते बाबूजी ‘अक्कल’ खरीदने बाहर निकल जाते। भाभी इसी बीच बहू से कहतीं, ‘देखा बहू! बर्तनवाली को छतरी तान कर छाया-छाया में ही लिवाने पधार गए हैं तेरे ससुरजी!’

भोजन करने के बाद भाभी जब आराम करने को होतीं तो ठीक उसी समय पड़ोस वाला सुनील अपना टेप रेकार्डर फुल वाल्यूम पर लगा कर कपड़ों पर इस्तरी करने लग जाता। भाभी बिस्तर पर पड़ी-पड़ी बिफरती रहतीं। बहू जानती थी कि भाभी सुनील को कुछ नहीं कहेंगी। और यह भी जानती थीं कि सुनील दस-पाँच मिनिट भाभी को चिढ़ाने के लिए ही यह शरारत करता है। लेकिन सुनील का टेप रेकार्डर ठण्डा पड़ते-पड़ते मूँगफली के ठेले वाला और उससे सौ-पचास गज पीछे ही ‘बुड्ढी के बाल’ वाला आ पहुँचता। सारी कालोनी टेप रेकार्डरों के कर्कश हो-हल्ले से भर जाती। भाभी एकाध मिनट दाँत पीसतीं और जबड़े भींच कर तकिए से सिर लगाने की कोशिश करतीं।  हल्ले का यह रेला गुजरता कि भाभी की चिन्ता अपने आरोह तक पहुँच जाती। बिजली के बल्ब की ओर देखते-देखते वह कमरे की दीवारों से कहने लगतीं, ‘अब इस राँड के कोयले होंगे। छिनाल भला एक जगह कैसे टिकेगी? रण्डो! तू आज मत जाना। इसे अपना ही घर मान ले और यहीं टिक कर रह जा।’ यह सब भाभी का बिजली से उवाच होता।

सख्त चिढ़ थी भाभी को टी.वी. पर आने वाली कार्टून फिल्मों से। बच्चे जब-जब कार्टून फिल्में देखते भाभी घायल शेरनी की तरह दहाड़ने लग जातीं। जब बच्चे कहते कि, ‘भाभी! ये फिल्में यूरोप-अमेरिका की हैं’ तो भाभी हैरान होकर पूछतीं, ‘राजा भैया! क्या उनके देशों में कोई राम-लछमन नहीं होते? क्या वहाँ सीता माता नहीं हैं? क्या वहाँ के देवी देवता खर्च हो गए? न कोई सूरत न कोई शक्ल। सवेरे से साँझ तक तुम लोग इन टेढ़ी-मेढ़ी शक्लों की उछलकूद देखकर क्या सीख रहे, हो?’ और हाथ जोड़ कर बिजली से प्रार्थना करतीं, ‘हे बिजली माता! तू चली जा, थोड़ा चैन पड़े इन चूहे-बिल्लियों से। क्या तो इनमें देखने को है और क्या समझने को? लेकिन चिपके पड़े हैं इस गन्दगी से! हजारों रुपए खर्च करके अच्छे भले घर में यह गटर घुसेड़ ली। पता नहीं कब कौन भगीरथ पैदा होगा और कब कोई गंगा लाएगा? सारी उम्र अपने बच्चों को इस गटर में कीड़ों की तरह जीते देखना भी मेरे ही भाग में लिखा था। हे विधाता! तेरा खोज जावे।’ बच्चे समझ जाते कि भाभी कुछ ज्यादह ही तैश में आ गई हैं। टी.वी. बन्द करके कामों में लग जाते।

और शाम को पाँच बजे से लेकर रात के आठ-नौ बजे तक भाभी का कष्ट दूसरी तरह का होता। एक का स्कूटर आ रहा है तो दूसरे का जा रहा है। उसकी सायकल आई तो इसकी गई! स्टेशन की सवारियाँ लेकर टेम्पो आया और पास वाले दरवाजे पर खड़ा हो गया। उसकी जानलेवा आवाज बन्द ही नहीं हुई कि पीछे से गाँव जानेवाला कोई ट्रेक्टर आकर माँग रहा है। सड़क इतनी सजीव हो जाती कि भाभी करीब-करीब निर्जीव जैसी होकर आँखें मूँद लेतीं। आसपास के मन्दिरों के लाउडस्पीकर फिर आरतियाँ बजाने लगते। इसी बीच बज उठती टेलिफोन की घण्टी। बहूजी लपकतीं रिसरवर उठाने को। भाभी कहतीं , ‘इस मरे की दुम उखाड़ कर रख दे एक तरफ। फेंक दे बाहर.....।’

रात को खाना खाने सारा परिवार एक साथ बैठता। भाभी जानती थीं कि यह समय वह है जब कि दिन भर का थका-माँदा परिवार चैन से खाना खाकर सोने की तैयारी में होता है। लेकिन बाबू जी, बहूजी और बच्चे जानते थे कि खीज पर पुछल्ला लगेगा जरूर। खाना खाते-खाते भाभी बाबूजी से कहतीं, ‘मेरा मन करता है कि मैं कुछ दिन मुन्ना के पास चली जाऊँ। वह वहाँ अकेला है। उसको मदद भी हो जाएगी और इस रोज-रोज की किच-किच से मेरा पिण्ड भी छूट जाएगा। इस बस्ती में हम लोग न तो अपनी जिन्दगी जी सकते हैं न अपनी मौत मर सकते हैं। रात-दिन की भाँय-भाँय। पता नहीं आप लोग इस नरक में इतने मजे से कैसे जी लेते हैं? मैं तो अधमरी हो गई। जिन्दगी के हर पल में कितना दखल है यहाँ? मुन्ना को फोन कर दो। वह आकर मुझे अपने साथ ले जाए। यहाँ आप हो, बहू है, बच्चे हैं, बच्चों की परीक्षाओं के बाद सभी वहाँ रह लेंगे.....। बाबूजी शान्त-चित्त होकर भाभी को सुन लेते। फिर एक ही वाक्य बोलते-‘किसी भी डाल पर घोंसला बना लो चिड़िया रानी! पंछियों की चहल-पहल हर पेड़ पर होनी ही है। मुन्ना जिस शहर में रहता है वह शहर तुम्हारी इस बस्ती और इस कालोनी से पचास गुना ज्यादा बड़ा है। वहाँ पैदल चलने के लाले पड़ रहे हैं। अभी यहाँ हम लोगों के सामने जो कुछ बोल रही हो हम सुन तो रहे हैं। वहाँ बोलोगी तो शायद कोई सुन भी नहीं पाएगा। वहाँ चौबीस घण्टे गुजारना भी मुश्किल है महारानी! जरा मुन्ना से पूछ तो ले?’ हार कर भाभी कहतीं, ‘भई।! इतना दखल कैसे सहा जाए?’

परिवार सोने के लिए अपने-अपने बिस्तरों पर जाता कि तभी पड़ोस में सुनील का टेप रेकार्डर बजने लगता और भाभी कहतीं, ‘सवेरा होने दे सुनील! देखती हूँ कि कल तेरे ये ढोल-मँजीरे कैसे बजते हैं?’
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कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

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