श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की चौथी कहानी
सादर अपमानित
यह तीसरा साल है जब होली की रात को शकु मासी सो नहीं पा रही है। गये साल भी यही हुआ था। इस साल आशा थी कि वैसा नहीं होगा पर मन में जो दगदगा था वही हुआ और बीच वाला साल तो बिल्कुल वैसा ही निकला जैसा कि पहले वाला था। गए साल से पहले वाले साल शकु मासी को पहली बार लगा था कि इस गाँव में उसे सादर अपमानित किया जा रहा है। लोग मिलते हैं तो मुँह सामने सम्मान-मान की बात करते हैं, आदर देते हैं पर जहाँ समाज के बीच जगह का मुद्दा आता है वहाँ शकु मासी और उसके परिवार को पूरा का पूरा टाल दिया जाता है। पहले तो वैसा कभी हुआ नहीं था पर भगवान जाने, गए कुछ सालों से इस गाँव में कैसी पीढ़ी तैयार होती जा रही है कि न मान का सवाल रहा न मर्यादा का ख्याल। शकु मासी को बीते दिन याद आने लगे।
इस गाँव में शकु मासी ही पहली महिला थी जिसने समाज को एक तरह से रूढ़ियो और कुरीतियों से लड़ना सिखाया। आई वह बेशक महाराष्ट्र से है पर उसका सारा परिवार मूलतः गुजरात का निवासी था। भानु काका के साथ आज से चालीस-पचास साल पहले शकु मासी इस गाँव में आई। उस जमाने का डॉक्टर जहाँ चाहता वहाँ अपनी जड़ जमा सकता था पर अन्न-जल शकु मासी को यहाँ खींच लाया। शकु मासी और भानु काका का नया-नया विवाह हुआ था। भानु काका के घर में कुछ कहा-सुनी हुई, काका ने डॉक्टरी पास की ही थी, सामने सवाल था गृहस्थी जमाने का। भानु काका का जलवा और जलाल जवानी पर था। शकु मासी भी कम नहीं थी। मोमबत्ती जैसी शकु मासी की सुती हुई काया और गुलाबी रंगत लिए दिपदिपाता चेहरा, गुजराती कद और काठी। न जाने क्या सूझी कि दोनों ने मन बना लिया - ‘चलो मालवा में कहीं घर-संसार बसाएँगे।’ और यह जोड़ा अपना रक्त संस्कार लेकर मालवा के इस कस्बे में आ गया। भानु काका ने अपना दवाखाना शुरु किया और शकु मासी ने अपनी सामाजिक चहल-पहल। शकु मासी को ‘मासी’ सम्बोधन इस कस्बे ने ही दिया। मालवा के लोगों ने जब शकु मासी को पहली-पहली बार अपने रसीले अन्दाज में भाभी कहकर पुकारनें की कोशिश की तो शकु मासी को उसमें रस तो लगा पर रस का स्वाद कुछ ज्यादा ही मीठा मालूम हआ। मासी को लगा कि यह मालवा है। शायद ऊँगली पकड़कर पहुँचा पकड़ना इसी तरह शुरू होता होगा। उसने अपने गुजराती रिश्तों की गुहार लगाई, पड़ोसियों को समझाया कि गुजरात में महिला को बहन कहकर बुलाते हैं। साल-दो साल जरूर लगे पर मालवा ने भी अपना मन आखिर मासी सम्बोधन पर समझा लिया। शकु मासी ने भी मान लिया कि चलो माँ से ज्यादा मासी प्यारी। माँ या बहिन नहीं मानो तो मासी ही मान लो। और शकु मासी मान गई। वह भाभी सम्बोधन पर सन्नाती थी। मासी पर महक उठी, बोलने लगी। सभी से हँसना, बोलना और सहज रहना मासी का स्वभाव था। उसका सारा सौन्दर्य मालवा में ही निखरा। भानु काका ने अपनी जवानी और शकु मासी को इसी कस्बे में अर्पित कर दी। काका की दिनचर्या बहुत व्यवस्थित और खूँटे से बँधी रहती। घर से अस्पताल और अस्पताल से घर। बाद में जाकर जब अस्पताल और घर एक ही जगह बन गया तो काका ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आने-जाने में ही अपना दिन पूरा कर लेते। मरीजों की भीड़ का आलम यह रहता था कि भानु काका सुबह का खाना दिन में तीन बजे खाते और रात का खाना कभी भी बारह बजे से पहले नहीं खा सके। मरीज देखने बाहर भी जाना-आना पड़ता तो काका अकेले नहीं होते। इलाके में काका देवता की तरह पूजे जाते। शकु मासी को काका से कभी शिकायत नहीं रही। यही हाल शकु मासी का भी था। बेशक मासी का सामाजिक जीवन काका से ज्यादा व्यस्त था पर कस्बे में यह जोड़ा आदर्श माना जाता था। मानसिक सम्बन्धों का लोग उदाहरण देते समय इस जोड़े का ससम्मान उल्लेख करते थे। कस्बा विशेष बड़ा नहीं था इसलिए हर घर में शकु मासी और भानु काका आत्मीय आदर पाते थे।
बात खाली कस्बे तक ही सीमित नहीं थी। इस परिवार का आभा-मण्डल पूरे अंचल को प्रभावित कर रहा था। शकु मासी का योगदान इस दिशा में बहुत बड़ा था। मासी पहली महिला थी जो बिना घूँघट के इस गाँव में आई और छा गई। गुजरात का गरबा उसी ने कस्बे को पहली बार सौंपा। एक समय था जबकि मालवा का ‘बाना’ ही यहाँ खेला जाता था। शनैः-शनैः हर उम्र की महिलाओं और कुँआरियों ने दुर्गा-अम्बा माँ के गरबे अपना लिए। शकु मासी के पहले गाँव की महिलाएँ हल्दी-कुंकुंम का मतलब भी नहीं समझती थीं। मासी ने महाराष्ट्र की यह अमानत भी मालवा की झोली में डाल दी। यहाँ तक तो खैर, कोई बात नहीं थी पर सारा गाँव उस दिन चकित रह गया जब मासी ने कस्बे के छोटे से बाजार में अपना एक अभिसार स्टोर डाला और खुद उस पर बैठकर बाजार की रौनक ही बदल दी। अभी तक बाजार में बेचने के लिहाज से केवल साग-सब्जी वालियाँ बैठा करती थीं। मासी ने जन-जीवन की सनातन परम्पराओं को तोड़कर समूचे बाजार की भाषा ही बदल दी। लोग हाट-बाजार में बोलना सीख गए। भानु काका के काम को तो लोग डॉक्टरी काम में मानते थे पर शकु मासी के प्रतिदान को तो गाँव की पीढ़ियों ने खुद पर एहसान के तौर पर माना था। मासी के मुँह का गुजराती नमक मालवा की हवा खा-खाकर नई चमक देने लगा था। गाँव में आई तब मासी रूपाली थी, इधर मासी सरूपाली होती चली गई। मासी एक तरह से गाँव का मौसम कहलाने लगी, कहलाने क्या लगी, हो ही गई। गाँव के वासियों के लिए मासी एक तरह से अपने-अपने मजहब का पंचांग बन गई। धर्म किसी का भी हो मासी सभी के वार-त्यौहार अपनाती और मनाती। कोई भी देवस्थल ऐसा नहीं बचा था जहाँ मासी की मनौती नहीं हुई हो और चढ़ौती नहीं चढ़ी हो। होली-दीवाली, ईद-बकरीद, संक्रान्ति, गुड़ी पड़वा, राखी, दशहरा, तीज, गणगौर, राते-नवराते मासी के आँगन में सभी मनाए जाते और भानु काका सोल्लास सभी में शामिल ही नहीं होते अगुआई भी करते। कभी-कभार मासी को यह कहते भी सुना गया कि इस गाँव में पंजाबी तो है पर कोई सिख परिवार नहीं है, एक-आध सिख परिवार होता तो यहाँ बैसाखी भी धूमधाम से मनती। लोगों से वह अक्सर कहती भी थी कि शहर के किसी गुरुद्वारे में जाकर वहाँ से ज्ञान ग्रंथी से कहो, सुनो और एक-आध सिख परिवार माँग कर लाओ और इस गाँव में बसाओ। मासी एक तरह से अपने कस्बे की उमंग बनती चली गई। स्कूल जाते-आते बच्चे मासी के आँगन की रंगत देखकर ही यह अनुमान लगा लेते थे कि आज किस धर्म का कौन-सा पर्व है। भानु काका और मासी का यह परिवार मालवा की मिट्टी में रग-रग, रेशे-रेशे से एकाकार हो गया था। घर के भीतर गुजराती और आँगन में फर्राटे से मालवी बोलता हुआ यह जोड़ा सभी का अपना ही नहीं एक तरह से बहुत ही अपना कहलाता था।
आजादी के साल दो-चार साल पहले से भानु काका यहाँ आए थे। आधी सदी होने आई, कहीं कोई दुराव नहीं लगता था। पर गए तीन-चार सालों से मासी को यह अहसास खाए जा रहा था कि हो न हो गाँव की पीढ़ियों के मन में कोई इस गाँव की आत्मीयता और अपनेपन की जड़ों को चुपचाप खोद रहा है। कहता कोई नहीं है, मुँह पर, सभी आदर और सम्मान की बात करते हैं पर मन-ही-मन अलगाव का फोड़ा लाल भठार होने लगा है। मासी रह-रहकर घुटती थी। मासी के दो जवान बेटे अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करके परदेश में जा बसे। मासी को तब भी नहीं लगा था कि उसका अपना यहाँ कोई नहीं है। एक अमेरिका में है और दूसरा जाम्बिया में। साल-दो साल में बच्चे आज भी आते हैं, उत्सव-समारोह सभी होते हैं पर भानु काका ने कभी यह नहीं माना कि बेटों की गैरहाजिरी में आँगन सूना है। अपनी अकेली बेटी का विवाह मासी ने बड़ी उमंग के साथ गुजरात में ही किया। तब भी डॉक्टर साहब ने गाँव में शानदार रिसेप्शन करके सारे गाँव को अपने आँगन में न्यौता दिया था। कहीं कोई परायापन नहीं लगा।
मासी और काका अपने रंग में उत्साह सहित जी रहे थे पर गए तीन-चार सालों से मासी किसी अपशकुन को महसूस कर ही नहीं रही थी, अपनी अधड़ाई आँखों से देख भी रही थी। उसको लगने लगा था कि कोई असभ्यता हमारी संस्कृति को खाए चली जा रही है अगर नई सभ्यता का मतलब अलगाव और बिखराव ही है तो मासी की नींद बेशक सबसे पहले हराम होगी ही।
मासी के सामने आज फिर वही मुद्दा था। होली की रात थी और आज आधी रात के बाद फिर इस गाँव के, अपने आपको पढ़-लिखे कहने वाले दस-पाँच नए लड़के चुपचाप दबे पाँवों घर-घर में अपना होली बुलेटिन डालेंगे। उस बुलेटिन में गॉँव के और आसपास के इलाके के कई जाने-माने छोटे और बड़े लोगों के नाम होंगे और उन नामों के आगे वे उपाधियाँ और उपाधि-सूचक वाक्य होंगे जिनसे कि उन लोगों के प्रति इस मिट्टी के अपनेपन का परिचय मिलता हो। इस छोटे-से पर्चे में गालियाँ होती हैं, गन्दगी होती है, ताने होते हैं, फब्तियाँ होती हैं। आदमी के जाने-अनजाने रिश्तों पर उजास होता है। उसकी दबी-छिपी कुण्ठाओं, कुचालों और काप्रवृत्तियों पर चाबुक जैसी मार होती है। पर इस सब में इस मिट्टी से जुड़ाव का अपनापन और सादर सम्मान होता है। आधी रात के बाद नए लड़के इस पर्चे को गाँव की चौपाल और चौराहे की किसी-न-किसी दीवार पर चिपका भी देते हैं और फर्राटेदार सायकलों पर निकलकर चुपचाप घरों के दरवाजों या खिड़कियों की दरारों में से ठेठ भीतर तक सरका जाते हैं। रात के दो बजे से प्रभात चार बजे तक लड़के यही काम करते हैं।
मासी ने डॉक्टर साहब को हिलाकर जगाया -‘देखो! अभी घड़ी-आध घड़ी में सायकलों के सरसराटे होने वाले हैं। होली का बुलेटिन पहुँचता ही होगा। मैं जानती हूँ कि यह बुलेटिन बापू दादा के प्रेस में छपता है। सारी दुनिया जानती है कि उनका लड़का राजा इसे छापता है। किसी से छिपा नहीं है कि उपाधियाँ देने वाले इस मण्डल में कौन-कौन लड़के शामिल हैं। नाम तो रखा है इस बुलेटिन का ‘सादर’, पर गाँव के भद्र और अग्र परिवार के मुखिया का नाम इसमें नहीं हो तो उसका कितना अपमान होता है? औरतें जिस हुलस के साथ अपने-अपने पतियों और परिजनों के नाम, बुलेटिन में से पढ़-पढ़कर सुनाती हैं उसका अन्दाज तुम क्या लगाओगे? उसमें गए तीन साल से तुम्हारा नाम नहीं आ रहा है। मुझे बहुत बुरा लगता है।’ डॉक्टर साहब ने करवट बदलते हुए समझाने की कोशिश की - ‘शकु! इन छोटी-छोटी बातों पर मन छोटा करने की जरूरत नहीं है, सो जा। मुझे भी सोने दे। लड़के-बच्चे हैं, भूल-भाल जाते होंगे और वैसे भी ऐसा कौन सा भारत-रत्न का अलंकार है जो नहीं मिलने पर बुरा मान लें। सब चलता रहता है। लोग तो पहले ही कह देते हैं कि बुरा न मानो होली है।’ लेकिन डॉक्टर साहब की समझाइश मासी के मन को बहला न सकी। सम्बोधित तो डॉक्टर साहब को कर रही थी लेकिन मानो पूरे गाँव चेतावनी दे रही थी - “देखो। मैं आज साफ-साफ कह देती हूँ अगर इस बार भी बुलेटिन में तुम्हारा नाम नहीं छपा तो चाहे वह मुन्ना हो कि सलीम, चाहे वह कैलाश हो कि अरविन्द, मैं एक-एक का गला पकड़कर पूछूँगी कि सामने तो मासी-मासी और काका-काका करते हो, मान और सम्मान का वास्ता देते हो पर जब तुम अपनेपन के साथ सभी को याद करते हो उस दिन, केवल उसी दिन मासी और काका का नाम क्यों भूल जाते हो? गए तीन सालों से मैं ‘सादर’ में अपना या तुम्हारा नाम ढूँढ़ रही हूँ। पूछती मैं किसी से नहीं हूँ, पर बातें सामने आ ही जाती हैं। औरतें बातें करती हैं कि ‘सादर’ में बाहर वालों के नाम नहीं छापे जाते जो लोग यहीं के हैं। बस उनको ही याद किया जाता है। मैं पूछती हूँ कि.........।”
और मासी बह चली। डॉक्टर काका ने एक कोशिश और की, समझाने का यत्न किया पर मासी का मन शायद इस ‘सादर अपमान’ को पचा नहीं पा रहा था - “देख लेना अगर इस बार भी ‘सादर’ में मेरा, तुम्हारा नाम नहीं निकला तो मैं....।” और मासी फफक कर रो पड़ी। उसकी हिचकियाँ बँध गईं - ‘मैं पूछती हूँ, आज चालीस साल से ज्यादा हो गए इस गाँव में। हमें मिट्टी में रचने-बसने में और कौन-सी कसर रही है? कौन-सी कमी है? क्या नहीं किया हमने और क्या करना बाकी रहा? वार, तेवार, मौत, मरण, शादी, विवाह, रस्म, रिवाज, गीत, गाली......’ और ‘गाली’ शब्द पर आते-आते मासी का गला रुँध गया। भानु काका की छाती पर अपनी जवानी के दिनों की तरह सिर पर रखकर आँसू पोंछती मासी बोली - “गीत के वक्त गीत और गाली के वक्त अगर गाली नहीं मिले तो तुम ही बोलो, बुरा नहीं लगेगा? मैं तो इनसे बस आज की रात एक गाली माँग रही हूँ। यह मेरा हक है। सभी को गालियाँ दे रहे हो। मुझे भी दो। जैसे सभी के मरद वैसा मेरा भी मरद। सभी का सुहाग, मेरा भी एक सुहाग वैसा ही है। मुझे टालते क्यों हो?’ इस गाँव में मेरे तीन बच्चों की नाल कटी है। मुझे जीना-मरना यहीं है। मेरी सारी जवानी इसी मिट्टी में मिली है। राजमहल जैसी तुम्हारी काया यहीं खँंडहर होती जा रही है। ये लोग और कौन सी परीक्षा लेना चाहते हैं? सच कहती हूँ, अगर आज ‘सादर’ में मेरा, तुम्हारा नाम नहीं मिला तो मैं.....”
डॉक्टर ने मासी को बाँहों में लिया। पुरानी ऊष्मा उनके ओंठों पर तैर गई - “शकु! तू सो जा। जिससे भी लड़ना-झगड़ना हो कल, परसों, नरसों। अरे! कल गुलाल होगा, रंग होगा। फिर रंग पंचमी है, उसके बाद शीतला सप्तमी, फिर नहानी तेरस, सारा पखवाड़ा पड़ा है। क्यों अच्छी भली होली को बदरंग करती है? सभी से हँस, बोल और मस्त रहा कर। तेरा दिल इतना बड़ा है पर राम जाने दिमाग इतना छोटा कैसे होता जा रहा है? भगवान जाने इस छाले को तूने पाल कैसे लिया है? फोड़ दे तो सारा खारा पानी बह जाएगा। मिठास की बात कर। चल सो जा और सोने दे।’
तभी मासी ने बाजू वाले चढ़ाव की सीढ़ियों पर किसी के उतरने की दबी पदचाप सुनी। मासी समझ गई कि होली मण्डल वाला कोई-न-कोई ‘सादर’ की प्रति खिड़की में सरकाकर चुपचाप नीचे उतर रहा है। मासी ने सामने वाली खिड़की का एक पल्ला खोला। देखा कि सलीम ने सायकल पर पेडल लगाया ही है, वह अगले घर की ओर बढ़ रहा था। कमरे में सामने वाली घड़ी में रात के साढ़े तीन बज रहे थे, नगरपालिका के वेपर लैम्प की रोशनी खुले किवाड़ के बहाने कमरे के भीतर तक पसरी पड़ी थी। मासी ने आँखें पोंछते हुए खिड़की वापस बन्द की। सशंकित मन और काँपते हाथों से खिड़की की चौखट के नीचे फँसा हुआ, तह किया हुआ ‘सादर’ का अंक खींचा। सफेद कागज पर लाल स्याही से इंच-इंच पर छपा हुआ यह कागज मासी को मौत के वारण्ट की तरह लगा। मन में एक दगदगा तो था ही, इस बार भी डॉक्टर का नाम इन हरामियों ने जानबूझ कर नहीं छापा होगा। ये कमीने कहते हैं कि भूल गए मासी, पर मासी जानती है कि जो गहरे तक याद रहता है उसी को भूला जाता है। यह भूलना नहीं, टालना और अपमान करना होता है। मासी ने डॉक्टर साहब को ‘सादर’ का अंक सौंपा। कहा - ‘मुझे अभी पढ़कर सुनाओ कि तुम इसमें हो कि नहीं?’
भानु काका करीब-करीब झुँझला से गए थे। उनके मन में भी एक टूटन थी जरूर। वे मन-ही-मन जानते और मानते थे कि मासी सच कह रही है। उसका रोना बिलकुल सही है। पर आखिर वे इस परिवार के मुखिया थे। संयम और शालीनता का उदाहरण तो उन्हीं को समाज में देना था। करीब-करीब खीजते हुए उन्होंने ‘सादर’ का अंक फैलाया, मन ही मन पढ़ना शुरु करने से पहले मासी से उन्होंने सिगरेट माँगी। उसे सुलगाया, ओंठों से लगाया और वे उस करीब-करीब गन्दे, अभद्र, असांस्कृतिक, अशालीन, असभ्य भाषा और भावना से परिपूर्ण गाली-गलौज वाली शब्दावली में अपना नाम ढूँढ़ने लगे। जिन शब्दों और फब्तियों पर महीनों चर्चाएँ होती हैं, उन सभी शब्दों, वाक्यों और उपाधियों को भानु काका बिना किसी क्रिया-प्रतिक्रिया के, ठण्डे मन से पढ़ते चले गए। मासी गीली और गहरी आँखों से उन्हें अपलक देख रही थी और बिल्कुल बेसब्र होती जा रही थी - ‘दो पन्ने पढ़ने में चार घण्टे लगा दिए? कहते क्यों नहीं कि....’ और मासी ने देखा कि डॉक्टर साहब के जबड़े एक पल को भिंचे और उनकी आँखों पर दो मोती चमक आए हैं। लगा कि डॉक्टर साहब सिसक पड़ेंगे। मासी समझ गई कि अपमान बरकरार है, नाम नदारद है। अब मासी का नम्बर था। उसका मरद उसके सामने रुआँसा हो रहा था। मासी का महकता मन अपनी सारी महक छोड़कर एकदम रूखा हो गया। निचला ओंठ काटते हुए वह कह उठी - ‘मैं जानती थी कि ये लफंगे तुम्हारा सम्मान सहित अपमान करने पर तुले हुए हैं। सवेरा होने दो, एक-एक को मैंने नहीं निपटाया तो मेरा नाम भी शकु नहीं। डॉक्टर! तुम कल से मेरा नाम बदल देना।’ डॉक्टर साहब ने चश्मा उतारा, आँखें पोंछीं, सिगरेट की राख झाड़ी और सादर का पिछला पृष्ठ मासी के सामने फैलाते हुए एक जगह माचिस की तीली से लकीर खींचने की कोशिश करते हुए अपनी आँखें मूँद लीं। मासी ने अपना चश्मा ढूँढ़ा। नहीं मिला तो डॉक्टर का चश्मा नाक से उतार कर अपनी नाक पर चढ़ाया। मासी को लगा कि किसी का बहुत ही गन्दा उपाधिकरण हो गया है कि खुद डॉक्टर भी पढ़कर सुनाने का साहस नहीं कर पा रहा है। वर्ना डॉक्टर पढ़ ही देता। लोग-लुगाई में आखिर छिपा हुआ है ही क्या, जो रात को साढ़े तीन बजे भी डॉक्टर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है?
मासी ने डॉक्टर के चश्मे से तीली के नीचे वाली लाइन को पढ़ा-चौंक कर वह करीब-करीब चिल्ला सी पड़ी। तीन साल का उसका गुस्सा धुआँ होने के मोड़ पर खड़ा हो रहा था। उसने केवल डॉक्टर का नाम पढ़ा, उपाधि पढ़ी भी नहीं और डॉक्टर की ओर देखते हुए मासी तनावमुक्त हो गई। उपाधि पढ़ने के बाद मासी बोली - “स्साले कितने लुच्चे हैं! देखो तो क्या उपाधि ढूँढ़कर लाए हैं? लिखा है भानु काका और आगे लिख दिया है-‘बूढ़ी मुमताज का जवान शाहजहाँ’ और मासी की खिलखिलाहट से सारा कमरा धुल गया। बोली-‘आने दो सवेरे, इन बेगम के गुलामों को। रंग खेलने के बहाने हरामी न जाने कहाँ-कहाँ की ज्यामेट्री......।” जवान शाहजहाँ ने एक सादर मुस्कान के साथ अपनी बूढ़ी मुमताज को देखा और कहा-‘चल! लाइट बुझा और सो जा। सवेरे-सवेरे दस तो गालियाँ बक दी हैं। होली की रात है, राम का नाम ले, क्या हरामी-हरामी मचा रखा है? हिश्त।’
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कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
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