पहुँचना था सोमवार को, पर मनोमय बाबू शनिवार को ही पहुँच गए। पहुँच क्या गए, जा धमके! वैसे तो संगोष्ठी वालों ने लम्बे-चौड़े पत्राचार में बार-बार सुझा दिया था वे अपने शहर से किस तारीख को, किस गाड़ी से चलें, कहाँ गाड़ी बदलें। अगर सीधी गाड़ी लेनी है तो कहाँ से लें। किस समय चलें, किसे सूचित करें और संगोष्ठी वाले मुकाम पर सोमवार की सुबह तक आराम से पहुँच जाएँ ताकि गाड़ी पर उन्हें लिवाने की व्यवस्था संस्था की ओर से सादर-ससम्मान कर ली जाए। पर मनोमय इतनी सारी हिदायतों और इतने सारे आग्रहों को पानी की तरह पी गए? उन्होंने सोचा कि क्यों न वे शनिवार को ही वहाँ पहुँच जाएँ ताकि वहाँ पूरे दो दिन मिल जाएँगे और संगोष्ठी में पढ़ने वाला अपना पेपर वे वहीं तैयार कर लेंगे। रविवार की शाम तक अपना सारा काम निपटाकर आराम कर लेंगे और सोमवार को कार्यक्रम निपटाकर समिति वालों से आगे कार्यक्रम तय कर सकेंगे।
इसी निर्णय विशेष के कारण वे समिति वालों को फोन पर सूचना देकर शनिवार को ही वहाँ जा धमके। संयोजकों के सामने पाई-पैसे और व्यवस्था की समस्या जरा कठिन हो गई। एक तो होटल का किराया दो दिन के बदले पाँच दिन का लगेगा और फिर वे कार्यक्रम के पहले आए और बाद में जाएँगे, इसलिए उनका और उनसे मिलने आने वालों का भोजन, चाय-नाश्ता और नगर भ्रमण तथा आसपास के दर्शनीय स्थलों की यात्रा हेतु कार, टैक्सी वगैरह का खर्च भी तो समिति पर ही पड़ेगा! आप मनोमय बाबू से यह तो कह नहीं सकेंगे कि मान्यवर! यह अतिरिक्त व्यय-भार संस्था वहन नहीं कर सकेगी।
समिति ने अपनी विशेष बैठक में मन मारकर फैसला किया कि अब ओखली में सिर दे ही दिया है तो दो-चार मूसल ज्यादा पड़ रहे हैं तो पड़ जाने दो। सो, मनोमय बाबू का अच्छा स्वागत किया गया। फूल-हार, आला-माल, मान-मनुहार, ताँगा-टैक्सी, चाय-भोजन वगैरह में कहीं कोई कमी न रहे, उसका विशेष ध्यान रख लिया गया। उन्हें किसी तरह आभास भी नहीं होने दिया गया कि वे संस्था पर विशेष भार डाल रहे हैं। लेकिन हर संस्था के पास ऐसे अवसरों के लिए व्यवस्थापक भी तरह-तरह के हुआ करते हैं। इस विशेष व्यवस्था का दायित्व अर्थशास्त्र के श्रेष्ठ जानकार देवेन्द्रजी को दे दिया गया। देवेन्द्रजी ने एक ही गोट ऐसी फिट कर दी कि मनोमयजी भी खुश और समिति भी बाग-बाग। जब तक मनोमय जी स्टेशन से होटल लाये जाते तब तक देवेन्द्रजी ने होटल मैनेजर को पटाकर वह कमरा ही बदलवा दिया जो मनोमय बाबू के लिए बुक किया गया था। पहले ठीक सामने वाला कमरा था। देवेन्द्र बाबू ने बिलकुल पिछली तरफ वाले कमरे में से एक कमरा सुरक्षित करवा कर संस्था को दो सौ रुपए रोज की राहत दिलवा दी। पाँच दिन का सीधा एक हजार रुपया बच गया। इस एक हजार रुपए की मनोमय बाबू के लिए अतिरिक्त व्यय की राशि बनाकर सभी ने चैन की साँस ली। चूँकि सामने वाला कमरा दो दिन बाद से बुक था और मनोमय बाबू दो दिन पहले आ गए हैं इसलिए कह दिया गया कि नहीं है। एक बार पिछली लाइन में जम गए तो फिर कौन दो दिन बाद वापस सामान यहाँ-वहाँ उठाता है? वैसे भी मनोमय बाबू लिखने-पढ़ने वाले आदमी हैं। एक बार जम जाएँगे तो फिर बस जम ही जाएँगे।
समिति के दो आदमियों की ड्यूटी कुछ ऐसी लगा दी कि वे दिन में तीन-चार बार मनोमय बाबू की पूछ-परख के लिए अवश्य आएँ और दस-बीस मिनट अगली कतार वाले कमरों में ध्वनि प्रदूषण, मुख्य सड़क की धूल, रास्ता चलते लोगों की चिल्लपों और सामने वाली गेलरी से लगे दरख्तों पर बन्दरों की उछलकूद का अच्छा-खासा वर्णन करके मनोमय बाबू को मनोवैज्ञानिक दबाव से दबाए रखें। एक आदमी पिछले कमरों की शान्ति-सुरक्षा और सेवा की तत्परता का सन्तुलित बखान करे। कमरे की खिड़की से छनकर आने वाली चाँदनी की चर्चा करे और और पंछियों के कलरव की प्रातःकालीन ध्वनि का सरस वर्णन करे। होटल में अखबार वाला, लाण्ड्री वाला और बूट पालिश वाला आखिरी लाइन से काम शुरु करता है, इससे अवगत कराए। चूँकि रसोईघर पिछली तरफ है सो घण्टी बजते ही बैरा भी उधर ही से आता है, यह जानकारी भी मनोमय बाबू को देता रहे। यानी कि मनोमय बाबू को समिति ने अपने अर्थशास्त्र से बाहर कदम नहीं रखने दिया। संगोष्ठी सोमवार को थी और शनिवार की अपराह्न से ही यह सारी जमावट जम गई। मनोमय बाबू सन्तुष्ट, समिति खुश। गनीमत है कि मनोमय बाबू चार दिन पहले नहीं आए वर्ना देवेंद्र बाबू होटल ही बदल देते।
होटल में मनोमय अपनी पहली रात काटने की तैयारी में थे। रात का खाना खा चुकने के बाद उन्होंने सोचा कि परसों वाले पेपर के लिए चर्चा-बिन्दु लिख लें। उन्होंने कमरे की खिड़की खोली, हवा के एक ताजे झोंके ने उनका मनोनुकूल स्वागत किया। टेबल लैम्प जलाया। कमरे की दूसरी बत्तियाँ बन्द कीं। लिखने की टेबल के सामने वाली कुर्सी खींचकर वे बैठने ही वाले थे कि उनकी नजर होटल की पिछली वाली सड़क के सामने वाले हिस्से पर एक मैदाननुमा बाड़े पर पड़ी। उन्होंने देखा कि बाड़े में कई तरह की मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। कुछ करीने से रखी हुई तो कुछ यहाँ-वहाँ, जैसी-तैसी खड़ी, गड़ी और पड़ी थीं। दो-तीन लोग उन मूर्तियों को तिरपाल से ढाँक रहे थे। एक आदमी उस बरामदे को बाहर से ताला लगा रहा था जिसमें कई मूर्तियाँ रखी हुई थीं।
मनोमय बाबू की सारी मानसिक तैयारी धरी रह गई। वे बिजली की अधमरी रोशनी में उन मूर्तियों को देखने की कोशिश में खिड़की से सटकर खड़े हो गए। कई मूर्तियों को वे खूब पहचान रहे थे। कई थीं जिनके बारे में वे स्वयं जानना चाहते थे। उन्होंने मन-ही-मन फैसला किया कि वे सवेरे की चाय के बाद सीधे इस बाड़े में चले जाएँगे। मूर्तिकार से मिलेंगे। कुछ जानकारी लेंगे। घण्टे-दो घण्टे कलाकार के साथ बिताएँगे फिर आकर स्नानादि से निवृत्त होकर खाना-वाना खाएँगे। अपराह्न तक आराम करेंगे और शाम को पेपर लिखने की तैयारी करेंगे। कल रात तक उनका पेपर तैयार हो जाए। परसों पेपर पढ़ना ही है। इसी ऊहापोह में वे कमरे में चक्कर लगाते रहे। कभी बिस्तर पर लेटते तो कभी खिड़की के पास खड़े होकर फिर उन मूर्तियों को देखते। आधी से ज्यादा रात मनोमय बाबू ने इस तरह बिताई। हालाँकि मूर्तिकला उनका विषय नहीं था, न यहाँ वे इस विषय का पेपर पढ़ने आए थे पर मूर्तिकला में उनकी रुचि थी और वे इस तरह के कलाकारों और कलाकारों के पारिवारिक संघर्षों की जानकारी लेने में रुचि रखते थे।
रात को विलम्ब से सोने के कारण मनोमय बाबू का रविवार का सवेरा जरा विलम्ब से शुरु हुआ। उन्होंने कमरे की पिछली बालकनी वाला दरवाजा खोला। चाय का ऑर्डर देकर बालकनी में खड़े हो गए। मूर्ति वाला परिसर सामने फैला पड़ा था। रात को वह जितना दिखाई पड़ रहा था उससे कहीं या लम्बा-चौड़ा परिसर था। वे प्रातःकालीन चर्याओं से निवृत्त हए। अखबार देखे। कमरे से बाहर निकले। ताला लगाया और सीढ़ियाँ उतरकर सीधे रिसिप्शन पर गए। एक वेटर से कुछ पूछा। उसे लेकर मुख्य सड़क पर आ गए। उसने पीछे वाली सड़क के मोड़ को इशारे से बताया। सूरज कुछ खास गरम नहीं हुआ था। पैदल ही चल पड़े। कोई पचास-साठ मकान पार करने के बाद सड़क ने जो मोड़ खाया तो गली सीधी उस सड़क से जुड़ गई जा मनोमय बाबू को अपने गन्तव्य तक ले जाती थी।
कोई सत्तर-बहत्तर साल का एक थका हुआ शरीर परिसर को जिस तरह देख कर मूर्तियों को करीने से लगा रहा था उससे मनोमय ने अनुमान लगा लिया कि हो न हो, यह परिवार का या तो मुखिया है या परिसर का मालिक है। उड़ती-सी नमस्ते के बाद वयोवृद्ध महानुभाव ने बताया कि वही उस परिसर का मालिक है और अपनी उम्र के बारह-तेरह बरस पूरे होते-होते उसने अपने पिता से छेनी-हथौड़ी लेकर पत्थर तराशने शुरु कर दिए थे। परिवार में तीन पीढ़ियों से यह कलात्मक काम होता चला आ रहा है। इन दिनों उसका पैंतालीस साल उम्र वाला बेटा यह काम करता है।
बुजुर्ग कलाकार ने मनोमय बाबू को सादर बैठाया और चाय की व्यवस्था करने के लिए भीतर चले गए। मनोमय बाबू ने समय गँवाना उचित नहीं समझा। वे एक-एक मूर्ति के सामने जाते और उससे बातें करते-से लगते। इनमें राष्ट्रीय महापुरुषों की मूर्तियाँ भी थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी थीं। कई मूर्तियाँ पत्थरों की थीं तो कुछ सीमेन्ट की। पत्थरों की मूर्तियाँ प्रायः सजीव थीं। सीमेन्ट की मूर्तियाँ प्राणवत्ता के लिए प्राणपण से संघर्ष करती लग रही थीं। जो भी चालीस-पचास मूर्तियाँ वहाँ रखी हुई थीं, उनमें से शायद चार या पाँच सूरतें ही ऐसी थीं जिन्हें मनोमय पहचान नहीं पा रहे थे। तब तक चाय-बिस्कुट की ट्रे हाथ में लिए उस बूढ़े मूर्तिकार का अधेड़ कलाकार बेटा आ गया। बुजुर्गवार ने अपने बेटे का परिचय मनोमय से करवाया और वे अपने काम में लग गए। उनका बेटा और मनोमय करीब-करीब एक ही आयु-वर्ग के थे, सो पुरानी पीढ़ी ने स्वयं को अपने आप से दूर कर लिया।
मनोमय बाबू ने मूर्तिकला की प्रशंसा की। जो मूर्तियाँ सामने पड़ी थीं उनकी बारीकियों को देख-परख कर उनकी तारीफ की। फिर पूछा, ‘ये सीमेन्ट की मूर्तियाँ आपने कब बनाना शुरु कीं? यह कला आपने शुरु की या आपके पिताजी और दादाजी ने?’
मनोमय बाबू को लगा कि उनका यह सवाल शायद अच्छा नहीं था। कलाकार उदास होकर बोला, ‘जब पत्थरों से पेट नहीं भर पाता था तो मैंने सीमेण्ट का काम शुरु किया। मेरे दादाजी और पिताजी इस तरह की कला के विरोधी रहे हैं। पिताजी तो आज भी सीमेण्ट की मूर्ति नहीं बनाते। वे मिट्टी की मूर्ति बनाना ज्यादा शान का काम मानते हैं।
मनोमय बाबू इस कला-आस्था पर विचार में पड़ गए। उन्होंने बात को आगे बढ़ाया - ‘कोई सीमेण्ट की मूर्तियाँ अपने आँगन में बनवाना चाहे तो क्या आप वहाँ जाकर इस काम को कर सकते हैं?’
‘हाँ मान्यवर! मैं वहाँ जाकर भी यह काम कर ही नहीं सकता हैं अपितु कर ही रहा हूँ।’ कलाकार का उत्तर था।
‘आजकल किसकी मूर्तियाँ उस तादाद में बन और बिक रही हैं जो आपको प्रतिष्ठा की रोटी दे दे?’ मनोमय बाबू की नई जिज्ञासा थी।
कलाकार एक फीकी हँसी हँसते हुए बोला, ‘इस बात को छोड़िए। यह बताइए आपके पधारने का निमित्त क्या है?’ कलाकार ने प्रतिप्रश्न किया।
‘मैं अपने शहर में आपको बुलाकर कुछ मूर्तियाँ बनवाने का काम देना चाहता हूँ। यह मेरा प्रिय विषय है। वैसे आजकल का ट्रेण्ड क्या है?’ मनोमय बाबू ने बात को एक और शेड दिया।
‘इन दिनों एक नया ट्रेण्ड है कान्फ्रेंस मूर्तियों का।’ कलाकार ने बिस्कुट की प्लेट आगे सरकाते हुए कहा।
‘यह कान्फ्रेंस क्या होती है?’ सवाल था मनोमय का।
‘देखिए यह एक नया सिलसिला है। हर एक गाँव में अलग-अलग समूहों के अलग-अलग नेता होते हैं। गाँव-देहात छोटा होता है। मुख्य चौक या चौराहा एक ही होता है। लोग चाहते हैं कि उनके यहाँ गाँधी, नेहरू, शास्त्री, इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी, बाबा साहेब आम्बेडकर, राजेन्द्र बाबू यानी कि सभी की मूर्तियाँ लग जाएँ। तब फिर गाँव यह तय करता है कि किसी एक चौराहे या चौपाल पर एक ही चबूतरा या स्टैण्ड बनाकर किन्हीं तीन-चार या पाँच नेताओं की मूर्तियाँ इस तरह बाना दी जाएँ मानो ये सभी विचार-विमर्श कर रहे हैं। यानी कि कान्फ्रेंस हो रही है।’ कलाकार ने बात तफसील से कहने की कोशिश की।
‘इससे क्या लाभ होता है?’” मनोमय बाबू ने बात को कुरेदा।
कलाकार हँसा। बोला, ‘बात यह है कि किसी अकेले नेता की मूर्ति लगा दी जाए तो इन दिनों गाँव-देहात में चुनावों के कारण कभी-कभी ऐसी उत्तेजना पैदा हो जाती है कि उपद्रवी लोग उत्पात करने के इरादे से मौका पाकर उस मूर्ति को तोड़ देते हैं या विकृत कर देते हैं। जब अपने-अपने मन पसन्द नेताओं की मूर्तियाँ एक ही साथ बातें करते, विचार-विमर्श करते लग जाती हैं तो उन्हें एकाएक कोई नहीं तोड़ता। छोटे-बड़े उत्सव-समारोहों में सभी को एक साथ फूल-मालाएँ पहना दी जाती हैं और गाँव में शान्ति रहती है।’
‘क्या यह बिल्कुल नया ट्रेण्ड है?’ मनोमय बाबू चकित थे।
‘हाँ। बल्कि यह ट्रेण्ड एक और मोड़ ले रहा है। वह यह है कि इस तरह के काम में जो भी सज्जन या गाँव का मातबर आदमी पहल करता है, उन्हें भी नेताओं की मूर्तियों आसपास, कहीं-न-कहीं हाथ जोड़कर बैठा हुआ बना दिया जाता है या खड़ा कर दिया जाता है। इससे उन भले आदमी की और उसके परिवार की जिम्मेदारी हो जाती है कि वे इस अमानत की रखवाली करें। उसकी व्यवस्था करे। ऐसा आदमी या तो सामाजिक हैसियत से शामिल किया जाता है या फिर राजनीतिक और कहीं-कहीं आर्थिक भी।’ कलाकार खुलता चला जा रहा था।
मनोमय बाबू के लिए सर्वथा नया पृष्ठ था जिसे वे एक तरह से पढ़ रहे थे।उनका ध्यान कहीं और था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे कि आखिर हम कहाँ जा कर साँस लेंगे? उन्होंने पूछा, “इस तरह की कान्न्फ्रेंस बनाने का पारिश्रमिक आपको कितना मिल जाता है?’
कलाकार ने लम्बी साँस भरी और बोला, ‘इसका पैसा मूर्तियों की संख्या में नहीं मिलता है। इसका पारिश्रमिक सीमेण्ट के तौल पर तय होता है। आप जितनी बोरी सीमेण्ट की कान्फ्रेंस बनवा रहे हैं, पैसा उस आधार पर मिलेगा।’
मनोमय बाबू गहन विचार में डूबते-से लगे। तभी कलाकार के पिताश्री उनके पास आ गए। अपने पुत्र को कुछ देते हुए जाने लगे। मनोमय बाबू ने उन्हें रोका। पूछा, ‘बाबा! कैसा लग रहा है आपको इन दिनों?’ बाबा बिना कुछ बोले भीतर चले गए।
अधिक जानकारी लेने पर मनोमय बाबू को पता चला कि जो मूर्तियों यहाँ-वहाँ रखी पड़ी हैं, उनमें अधिकांश या तो ऑर्डर पर बनाई गई हैं या बिक-बिका गई हैं। उनके ग्राहक कभी भी आकर उन्हें उठा सकते हैं। अब बिकी यही कोई आठ-दस होंगी। सीमेण्ट वाली मूर्तियाँ सैम्पल के लिए बना कर रख रखी हैं।
समय आगे बढ़ता जा रहा था। मनोमय बाबू की सारे दिन की चर्चा शेष थी। पर उदासी के दौरे पड़ने शुरु हो गए थे। कलाकार के लिए तो यह रोजमर्रा की बातें थीं। वे उठने का मन बना ही रहे थे कि बूढ़े बाबा फिर से पास आकर खड़े हो गए।
उन्होंने मनोमय बाबू को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘आप हमारे अजनबी मेहमान हैं। न आपने हमारा नाम-पता पूछा, न हमने आपका पूछा। साफ बात है कि आप पढ़े-लिखे आदमी हैं। शायद कहीं, कुछ लिखने-पढ़ने या बोलने-कहने पधारे होंगे। मैं वहाँ अपना काम करते-करते सुन रहा था। आपने इससे पूछा था कि आजकल किसकी मूर्तियाँ ज्यादा बिक रही हैं। और इसने कह दिया था कि छोड़िए भी। मेरे शहर के अजनबी! मेरे मेहमान!! आपने यह नहीं पूछा कि किसकी मूर्तियाँ नहीं बिक रही हैं? सवाल तो यह होना था।’
मनोमय बाबू को लगा कि बूढ़े बाबा ने उनके दोनों कान कसकर पकड़ लिए है और वे उन्हें वर्तमान की दो दिशाओं की ओर खींच रहे हैं। अपराध भाव से उन्होंने सहमति दी, ‘हाँ बाबा! आपका कहना सच है। मैंने यह नहीं पूछा कि किसकी मूर्तियाँ बिक नहीं रही हैं।’
बाबा बोले, ‘ले जा बेटा! इन्हें इस सवाल का उत्तर दिलवा दे?’
कलाकार का मन नहीं था तब भी वह मनोमय बाबू को पीछे-पीछे आने का संकेत करते हुए बरामदे को पार करता हुआ अपने बड़े हॉल में ले गया। वह एक पर्दे के पीछे रखी मूर्ति की ओर इशारा करके कुछ कहने ही वाला था कि बाबा बीच में आकर खड़े हो गए। मनोमय बाबू से बोले, ‘ये जो पर्दे के पीछे आप देखने जा रहे हैं, सचमुच ये मेरे तीन बेटों की कान्फ्रेंस मूर्तियाँ हैं। आज से चालीस साल पहले मैंने इन्हें बड़े मन से बनाया था। ये तीनों एक ही दिन, एक ही साथ मुझे इस धरती पर अकेला छोड़कर चले गए। आज तक मैं इन्हें याद कर-करके रोता रहता हूँ। मैंने चाहा था कि मेरी ये कलाकृतियाँ किसी चौराहे पर स्थापित कर दी जाएँ पर आज तक यह सम्भव नहीं हो सका। अब बात इतनी आगे बढ़ गई है कि मैंने अपने इस कलाकार बेटे से कह दिया है कि मेरे जीते-जी इस कान्फ्रेंस को यह बेचे नहीं। मैं मूर्ख था जो सोचता था कि इनका कोई खरीददार निकल आएगा। पर ये क्या तो बिकेंगी और क्या कोई इन्हें खरीद पाएगा!’ और बूढ़े बाबा ने अपने कला-साधक हाथों से खुद ही वह पर्दा परे कर दिया। पर्दा हटते ही मनोमय बाबू पता नहीं कौन से देवता का नाम लेकर चीखे और जमीन पर बैठ गए। कान्फ्रेंस करती हुई ये मूर्तियाँ थीं अमर शहीद भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की।
बाबा ने पर्दे की वह मोटी चादर मनोमय बाबू को थमाते हुए कहा, ‘आप जब बाहर जाएँ तो इस पर्दे को वापस लगाते जाएँ।’ और अपने कलाकार बेटे को हिदायत दी, ‘पीना चाहें तो इन महाशय को एक बार और चाय पिला देना वर्ना ठण्डा पानी पिलाए बौर जाने मत देना। भला ये अपने यहाँ कब-कब आते हैं?’
मनोमय बाबू को वहाँ से उठाना, उनसे पर्दा लगवाना, उनको चाय पिलाना और अपने परिसर से विदा देना मूर्तिकार के लिए एक बड़ी समस्या है।
मनोमय बाबू के पेपर का क्या होगा?
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कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
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