श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’
की सोलहवी कविता
‘कोई तो समझे’
की सोलहवी कविता
यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को
समर्पित किया गया है।
(स्व.) श्री संजय गाँधी को
समर्पित किया गया है।
फिर से लगे मुनादी
बदतमीजी बरकरार है,
निरन्तर है, जारी है
इस बार बोलने की मेरी बारी है।
अब मैं हूँ वह कठफोड़ा
जो खुली सूचना देता है पतझारों की
चाहे चिन्ता उसने
कभी नहीं की हो बहारों की।
हर पतझर के अपने कठफोड़े होते हैं
अब की बार मैं हूँ वह पक्षी।
मैं ठेठ ऊपर की टहनी पर से देख रहा हूँ
देख क्या रहा हूँ
मुझे दीख रहा है कि
बदतमीजी बरकरार है,
निरन्तर है, जारी है
इसीलिये, इस बार बोलने की मेरी बारी है।
राजघाट से प्रभा-स्मृति तक
सब कुछ स्पष्ट है।
कसमें कसमसा रही हैं
और ‘उस बूढ़े’ की चेतना को
मर्मान्तक कष्ट है।
जो बूढ़ा
माथे पर गमछा, हाथ में लाठी और
चिन्तन में सम्पूर्ण क्रान्ति का सपना लेकर
कल तुम्हारे आगे चला था।
काई की तरह चीर दी थी
जिसने सत्ता की सारी साजिशें
आज वह बूढ़ा
तिरस्कृत करके, चुप कर दिया गया है ।
रौंद दिये गये हैं उसके घरौंदे
सुलगा दिये गये हैं उसके लक्ष्य-गृह,
मानो वे लाक्षागृह हों।
बन्द हो गई है उसकी पूछ-परख
विस्मृत कर दी गई है प्रभा-स्मृति
समझना तो दूर
सुना तक नहीं जाता उसे।
छोड़ दिया गया है उसे
प्रायश्चितों और पश्चात्तापों के लिये
वह भी न जाने किन-किन के पापों के लिये।
निस्सीम क्षितिज को
निरीह, अकेला, अपलक देखता रहता है वह
उदास, निराश और हताश।
उठते हैं उसके अभय हाथ
मात्र मृत्यु याचनार्थ।
अहसास और एकाकी से अधिक
नहीं मानता वह खुद को
शायद है भी ऐसा ही
आप और मुझ-जैसा ही ।
बोट क्लब से गाँधी मैदान तक की
सारी भीड़
पसर गई है पंचायतों, विधान सभाओं
और संसद की कु्सियों पर।
फाड़ दिये गये हैं उसके वचन-पत्र
उसकी साँस तक मानी जाती है हस्तक्षेप।
उस अंधेरे ने छीना था उसका स्वास्थ्य
यह उजाला ले लेगा उसकी जान
हे भगवान!
उसकी सारी वाहिनियाँ
दत्तक ले ली हैं यदुवंश ने।
और उसके वे रक्तिम आह्वान?
एक बूढ़े की बकवास के सिवा
कुछ नहीं रहे।
क्रान्ति का प्रतिरोपण करके संसद में
उसने पसीना भी नहीं पोंछा कि
उसे मान लिया गया मात्र स्मारक-शिला।
सत्ता-संग्राम में क्षत-विक्षत शरीर
अब उससे लेते हैं केवल आशीर्वाद
बिलकुल निर्लज्ज होकर।
कैसा है यह बेशरम सिलसिला?
अब वह न हँसता है न मुसकाता है
न लिखता है कविताएँ
न करता है युग-भाष्य
क्षुब्ध होकर सब सहता है।
एक अवधूत की तरह
सम्पूर्ण क्रान्ति के श्मशान में
गुमसुम बैठा रहता है।
थक जाता है तो डायलिसिस पर
चला जाता है
सौभाग्य शायद इसी तरह दुर्भाग्य
के हाथों छला जाता है।
काटते हैं उसे नारे
खटकता है उसे आवारा अराजकता का शोर
निरीहों का बहता हुआ निरर्थक खून
झनझना देता है उसकी नसें।
हर राजपुरुष और हर राजधानी ने
कसम खा ली है उसकी नसों को निचोड़ने की।
झुलस चुकी हैं उसकी हुलस।
नेता, नीति और नीयत
सबने उँडेली है उस पर अनास्था
और अब? अब सत्ता उसी से पूछती--
सन्त का राजनीति से क्या वास्ता?
अनन्त क्षितिज पर
दूर-दूर तक पुत गई है एक अवज्ञा,
एक अनिष्ट अवहेलना।
सांध्यकाल में सूरज को
क्या-क्या पड़ रहा है झेलना?
न कोई आरोप, न कोई उलाहना
पर जठरानल से दावानल और बड़वानल
की मिताई का यह पारिश्रमिक?
वह भी अनमाँगे?
तब भी माथे पर गमछा, हाथ में लाठी
और चिन्तन में सम्पूर्ण क्रान्ति का सपना लेकर
चलना चाहता है वह हर पीढ़ी के आगे,
ताकि रक्त वक्त से मिल सके
इस निराशा की राष्ट्र-खोर झील में भी
गाँधी का एकाध स्वप्न-कमल खिल सके।
फिर से करे कोई ‘भवानी’
फिर से ‘त्रिकाल-संध्या’, पिटे ढिंढोरा
फिर से लगे ‘मुनादी’
फिर से चले किसी ‘भारती’ की प्रणम्य लेखनी
मात्र ‘कल्पना’ के लिये नहीं
किसी ‘धर्मयुग’ के लिये भी
शायद कुछ वैसा हो जाए
तुम्हारे मेरे किए भी!
-----
कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.