आम की व्यथा
अच्छा-खासा हरा-भरा आम था। एक सदी से भी ज्यादा पुराना। फल आते। खूब बौराता। कोयल रात-दिन कूका करती। बन्दनवारों में उसके हरे-कच्चे पत्ते घर-घर बाँधे जाते। मन्दिरों, देवालयों और मंगल कलशों पर उसके पत्ते शोभा पाते। पतझर अपना लाख जोर लगाता, पर उसे पूरा नहीं लील पाता। प्रकृति और प्रभु की दी हुई विकट जिजीविषा थी उसमें। आते-जाते राहगीर उसकी छाँह में आराम करते, अपना सत्तू-पानी खाते-पीते और यात्रा की थकान उतारते। आम क्या था, एक तरह का मोद-मंगल था। अकसर गाँव के प्रेमी-युगल उसके नीचे मिल बैठते। सावन आते-आते मनचली, मस्तानी ग्राम-गोरियाँ उसपर झूला बाँध देतीं, खूब पेंगें मारती, मंगल गीत होते। दूर-दूर तक इस रसाल के रसीले फल प्रसिद्ध थे। इसकी कच्ची केरियाँ अचार के काम आतीं, पक्की केरियाँ चाव से चूसी जातीं। समझदार लोग इस आम की गुठली सँभालकर रखते। पास के अपने-अपने खेतों की मेड़ों पर आषाढ़ आते ही बो देते। इसकी आयु देखते हुए लोगों ने आस-पास अपने-अपने देवी-देवता बैठा दिए। सिन्दूर, अगरबत्ती, फूल, नारियल, मेवा, प्रसाद सभी समय-समय पर चढ़ता-बँटता, मनौतियाँ होतीं, पलने बँँधते। और इस आम के वृक्ष को लोगों ने ग्राम-देवता के साथ-ही-साथ ‘आम-देवता’ की मान्यता दे दी। विशाल घेरा और छतरीदार घेराव, हरे-कच्चे पत्ते और अरुण आभा से दिपदिपाते नए-नए कोंपल-पल्लव, मंगल-ही-मंगल। चाहे जैसी मुराद लेकर लोग आते और अपनी मनौती का सूत्र बाँधकर चले जाते। वांछा फलती-फूलती तो वापस आकर, उसके तने से टिककर अपने इष्ट देव से प्रार्थना करते, धन्यवाद देते, उपकार मानते और जीवन को धन्य मानते। दसों दिशाओं-में आम का यश उसकी सुवास की तरह ही फैला हुआ था।
अनायास एक दिन रातों-रात उसके माथे पर आकाश से अमरबेल आकर बैठ गई। आम ने माथे पर वजन महसूस किया और मन-ही-मन मुसकराकर रह गया। उसने कान लगाकर सुना, उसकी कोंपलें, उसके नए-नए पत्ते अमरबेल से लड़ रहे हैं। जमकर बहस हो रही है।
पत्तों ने अमरबेल से दाँत पीसते हुए पूछा, ‘न तेरी कोई जड़, न तू मिट्टी से जुड़ी हुई। आकर बैठ गई हमारे बाप के माथे पर। तुझे पता है, तेरा पग-फेरा कितना विनाशकारी है! जिस तरह रातों-रात आई है उसी तरह रातों-रात भाग जाना।’
अमरबेल ने अट्टहास लगाया। उत्तर दिया, ‘मैं अपने मन से तो आई नहीं हूँ। मुझे भी ईश्वर ने भेजा है। मेरा पग-फेरा कितना विनाशकारी है, यह कहनेवाले तुम कौन होते हो? माना कि तुम इस आम की टहनियों से जुड़े इसके बेटे-पोते हो, इसके वंशज हो, इसके पल्लव हो, पर क्या तुमने यही सीखा है कि घर आए मेहमान से संस्कारहीन व्यवहार किया जाए? मुझे भगवान ने भेजा है, मैं अपने मन से नहीं आई हूँ। मुझे ठेठ ऊपर का हुक्म है। मुझसे कुछ मत कहो। जो कहना है, ऊपरवालों से कहो। जैसा मेरा जीवन, होगा वैसा मैं जीऊँगी। तुमसे जो हो, वह कर लेना। बकबक बन्द करो।’
रात-दिन कुहू-कुहू करनेवाली कोयल अमरबेल की इस उपस्थिति के साथ ही आम की सबसे ऊँची झमकारी पर से उड़ गई।
आम ने जिन्दगी देखी थी। वह अपना भविष्य भली-भाँति पढ़ चुका था। उसकी जड़ें मिट्टी में गहरी थीं। उसने बिना मौसम की इस बहस को बन्द करने की कोशिश की। चुपचाप अमरबेल से कहा, ‘जब तू आ ही गई है माथे पर, तो आराम से बैठ। हल्ला-गुल्ला मत कर। जब तक ऊपरवाला चाहेगा तेरा वजन मैं सह लूँगा। तेरे लायक जो भी खाना-पीना इस घर में हो, वह तू मौज-शौक से खा, पर मेरे बच्चों से झगड़ा मत कर। तू जो भी जगह घेरती है, वह आखिर इन बच्चों से ही तो छीनकर घेरेगी न? जो भी दाना-पानी लेगी, वह इनके मुँह से ही तो छीनेगी न? इनका चिढ़ना वाजिब है। रहा सवाल मेहमान बनकर आने का, सो जब तक तेरा मन हो, तू रह ले। मैं मर जाऊँगा, पर तुझसे कभी नहीं कहूँगा कि जा, चली जा। बेशक मेरे सौ-पचास बेटे-पोते तेरी चपेट में आकर मुझसे हमेशा के लिए बिछड़ जाएँगे पर मैं कुछ नहीं बोलूँगा। तेरे न तो पत्ते, न कोई फूल, न कोई फल, तू क्या जाने कि बेटे-पोतों का हक कितना और कैसा होता है। आराम से अपना समय काट। बस, चीखना-चिल्लाना और अधिकार जमाना बन्द कर दे। जान लेनी हो तो मेरी ले लेना, मेरे बाल-बच्चों से कुछ मत कह।’
और सभी ने देखा कि रात-दिन उस पर टें-टें करनेवाले हजारों हरियल तोतों ने अपना डेरा आस-पास के दूसरे वृक्षों पर लगा लिया। उनकी नजर अपने प्यारे आम पर थी। पर अमरबेल की सोहबत में एक पल भी नहीं बैठना चाहते थे।
आम ने अमरबेल से गहरी साँस लेकर कहा, ‘देखा तेरा आना? तेरे आते ही मेरे अच्छे-भले गाते-चहचहाते साथी-संगती मेरा आँगन छोड़कर चले गए। मेरी रौनक समाप्त होती चली जा रही है। भगवान जाने तू जाएगी, तब तक मेरे पास क्या बच पाएगा! मेरे सारे घर में आग लगी हुई है। बाल-बच्चे सभी एक-एक कर छूटते जा रहे हैं।
अमरबेल को अपने जीवन में पहली बार आम का जीवन-रस पीने को मिला था। उसे उसकी उम्र बढ़ती लग रही थी। भला आसानी से कैसे छूट जाए ऐसा आसरा? उसने आम से जोर जमाते हुए कहा, ‘मेरे आने पर सारे खानदान ने आसमान सिर पर उठा लिया है। वो देख, मुझसे भी ऊपर और तेरे सबसे छोटे राजदुलारे पत्ते के भी माथे तक चढ़कर आ गई है कड़वी गिलोय। ये कड़वी बेल ठेठ वहाँ से यहाँ तक चढ़ गई। न तू कुछ बोला, न तेरा परिवार कुछ बोला। क्या तुझे दिखता नहीं है? जैसी वो आई वैसी मैं भी आई। घर आनेवालों से दूज-भाँत करते हो तुम लोग?’
अब अट्टहास करने का समय आम का था। वह सिर से पाँव तक पुलकित हो गया। उसने देखा कि वास्तव में गिलोय उसके सबसे ऊँचे सिर-मौर से भी ऊपर तक जा पहुँची है। यह भी सही है कि वह रेशे-रेशे से कड़वी भी है। आम ने अमरबेल से दृढ़ता के साथ कहा, ‘हाँ, यह कड़वी गिलोय, तू जैसा कहती है वैसी ही है और तू जहाँ तक देख रही है वहाँ तक चढ़ भी गई। पर पगली, तुझमें और इसमें एक फर्क है ही।’
‘क्या फर्क है?’ अमरबेल ने पूछा।
‘फर्क यह है कि एक तो यह उसी मिट्टी से अपनी जड़ के साथ पैदा हुई है जिस मिट्टी से में पैदा हूँ। यह अगर कड़वी भी है तो मेरी माँ-जायी है, मेरी सगी बहन है। यही कारण है कि यह ठेठ मेरे तने से शुरु हुई और मुझसे लिपटी-लिपटी मेरे माथे से भी ऊपर चली गई। तब तक मुझे पता ही नहीं चल पाया कि यह आ भी गई और इतनी ऊपर उठ भी गई। यह सारा जीवन-रस मेरी माँ मिट्टी से ही लेती है, तेरी तरह मुझसे नहीं। दूसरी बात तू ही देख। बेशक यह कड़वी और रेशे-रेशे से अस्वीकृत है, तब भी इसके आने पर मेरे परिवार ने किसी तरह का प्रतिरोध नहीं किया। यहाँ तक कि मुझपर बैठकर गाने-चहचहानेवाले मित्र भी नहीं उड़े। पर तेरा मामला बिलकुल दूसरा है। एक तो तेरी अपनी कोई जड़ नहीं है, अपना जीवन जीने के लिए तू जो भी प्राण-रस लेगी, वह मुझसे ही लेगी। मेरे बाल-बच्चों का हक मारेगी। फिर तू सीधे माथे पर आकर बैठ गई है। इस कड़वी गिलोय में कम-से-कम इतना संस्कार तो है कि वह मेरे पाँव छूती हुई , लिपटती-लिपटती माथे तक पहुँची है। वह अगर मेरे कलेजे से लिपटी है तो उसने अपने कलेजे की ऊष्मा भी मुझे दी है। तू आकाश से आई, माथे पर बैठी और उलटा हक भी जमा रही है! गिलोय हक कहाँ जमा रही है? कड़वा ही सही, पर उसके पास अपने फूल-पत्तों का एक हरा-भरा परिवार है। वह मेरे बाल-बच्चों को चूम रही है, सहला रही है। उसे जड़, जमीन और जिस्म का मतलब मालूम है और वह आई तो किसी न किसी बीमार के काम आकर ही जाएगी। पर तू है कि......’
अमरबेल ने खुद को बहुत ही अपमानित और असहाय पाया। वह तिलमिला गई। बुझे मन से चिल्ला पड़ी, ‘ठीक है! ठीक है! अगर ऐसा ही है तो मैं इस कड़वी गिलोय से पहले ही चली जाऊँगी। अपनी सगी बहन से लाड़ लड़ा लेना खूब जी भरकर। अपने भतीजों के लिए बड़ी सौगातें लाई है न यह!’
‘बुरा मानने की आवश्यकता नहीं, बावली! सभी जानते हैं कि तू जब वापस जाएगी तो क्या तेरी हालत होगी और क्या मेरी। तू जिसके भी माथे पर बैठ जाती है, उसका सारा जीवन-रस नष्ट हो जाता है। तू जब तक खुद नहीं सूखती तब तक अपनी जगह से जाती नहीं। जहाँ-जहाँ तेरा स्पर्श हुआ है, वह सारा अंजर-पंजर सूखकर काठ हो जाएगा। तुझे ऊपरवाले ने नहीं भेजा होता तो मैं तुझे धक्के भी दे देता। पर तू ऊपरवाले की भेजी हुई आई है, तेरा स्वागत है। मैं कोशिश करूँगा कि अपने बाल-बच्चों को भी समझा सकूँ। पर जो कुछ हो रहा है, वह सब तेरे सामने है, तू देख ही रही है। ऊपरवाले को यह सब बताने के लिए तू खुद भी तो यहाँ से जीवित जानेवाली नहीं है। तू भी तो रेशा-रेशा मरकर ही यह घर छोड़ेगी। चिन्ता मेरी एक ही है कि एक तो तू खुद भी मर जाएगी, दूसरे जहाँ-जहाँ तक तेरी छाया-माया है वहाँ-वहाँ तक मुझे भी सुखा देगी। रोना यह नहीं है कि तेरे कारण मेरे फल तक सूख जाएँगे। जिन मीठे आमों के कारण आज मैं संसार में पहचाना जाता हूँ, वे रसाल, वे महमहाते आम खाने के लिए पीढ़ियाँ तरस जाएँगी। इतना भर भी होता तो मैं मन को समझा लेता। पर क्या कहूँ!’ और आम की साँसें लम्बी चलने लगीं। वह चुप होता लगा।
‘अपनी बात पूरी कर ही दो दादा।’ गिलोय ने कहा।
‘क्या तो कहना है और क्या अपनी बात पूरी करनी है, बहना! इस अमरबेल के कारण मेरे कुल का नाश हो जाएगा, उसका भी मुझे मलाल नहीं है। दुःख यह है कि अगर मेरा फल सूख गया तो मेरा बीज मर जाएगा। कहीं ऐसा नहीं हो कि मेरा गोत्र ही नष्ट हो जाए। ऊपरवाले अगर मिट्टी से-जुड़े होते तो इस विनाश का अदाज लगाते। खैर। मैं अपना माँ मिट्टी से अधिक प्राणवत्ता और जीवन-रस माँगूगा, अपनी जड़ों को मजबूत रखूँगा और इस अमरबेल की विदाई तक इसे अपने माथे पर बैठाए रखूँगा।’
‘अमर रहो मेरे लाल! खूब जीयो! एक ममता भरा स्वर आकाश में यहाँ से वहाँ तक व्याप्त हो गया।
यह आवाज मिट्टी माँ की थी।
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‘बिजूका बाबू’ की आठवी कहानी ‘शिखर सम्मान’ यहाँ पढ़िए।
‘बिजूका बाबू’ की दसवी कहानी ‘ओऽम् शान्ति’’ यहाँ पढ़िए।
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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