श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की बीसवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की बीसवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
लताड़
इतने बरसों की हो गई आजादी
ऐ भाई बुद्धिवादी!
अब तो तुम मूर्खतापूर्ण तटस्थता छोड़ दो।
यह तटस्थता-मात्र तटस्थता नहीं,
जड़ता हो गई है
इस जड़ता को तोड़ दो।
‘कोउ नृप होउ हमें का हानि’,
इस आधी चौपाई में
तुमने एक चौथाई शताब्दी नष्ट कर दी।
बुरा मत मानो यार !
इस बेवकूफी में तुमने
एक पूरी पीढ़ी भ्रष्ट कर दी।
छूटा हुआ तीर
बीता हुआ समय
और बोला हुआ बोल वापिस नहीं आता।
अभी भी समय है
समय क्या, ठीक-ठीक समय है
इससे ज्यादा अँधेरा
घर-आँगन में कभी नहीं था।
पतझर के खूँटे
इतने मजबूत कब गड़े थे?
घुटन इतनी है कि
मुर्दे तक छटपटाने लगे हैं
हर आँख बेचैन है
हर मनुष्य यदि वह मनुष्य है तो
निरीह है, कातर है,
आकाश में तारे कम, नारे ज्यादा भर गये हैं।
धरती बँटना चाहती है,
पर बँट नहीं पाती,
गरीबी हटना चाहती है,
पर हट नहीं पाती,
कुछ ऐसा लगता है कि
तुम बोलो तो कुछ बने।
विप्लव प्रतीक्षा में है
क्रान्ति ठिठक कर खड़ी है,
और तुम्हारे मुँह पर
जड़ता की कुण्डी चढ़ी है।
तुम्हें नष्ट ही होना है न
तो मेरा कहा मानो
बिजली की तरह कौंधो
और नष्ट हो जाओ
ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ो
और मौत की तरह स्पष्ट हो जाओ।
-----
रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
-----
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.