श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की पाँचवीं कहानी
पाल्टी पोल्टी
बड़े चुनावों की घोषणा क्या हुई मेघराज पटेल की नींद हराम हो गई। उनको लगा, मानो सारे हिमालय की बरफ किसी तेज गर्मी से पिघलकर एक धक्के से ही बहकर उनके घर-आँगन और खेत-खलिहान तक पहुँच गई हो। सारा घर किसी ताते-ठण्डे पानी में डूब गया हो। न जीने के, न मरने के। जब-जब भी कोई चुनाव राजधानी से चलकर मेघराज पटेल के गाँव तक आया है, तब-तब मेघराज पटेल का दस-पाँच हजार रुपया स्वाहा हुआ है। उनका घरबार पराया-पराया होने को आता लगा। रिश्ते बनाने और निबाहने में बेजोड़ मेघराज पटेल हर चुनाव में अपने दस-पाँच दोस्तों और नाते-रिश्तेदारों से अलग-थलग पड़ते दिखे। अभी पुरानी गाँठें तो खुली ही नहीं थीं कि एक बार फिर बड़ा चुनाव माथे पर आ पड़ा। मेघराज पटेल बार-बार सहज लगने की कोशिश में असहज हो बैठे। मन-ही-मन बोलने की जगह जोर से कह बैठे - ‘गाँव में मैं पाल्टी पोल्टी नहीं चलने दूँगा। चुनाव...चुनाव...चुनाव...।’
पटेल की इस असहज आवाज को रामी पटेलन ने सुना और गोबर में लथपथ हाथों को पोंछती अपनी चाँदी की चूड़ियों को कलाई पर खनकाती सामने खड़ी हो गई। समझाती हुई बोली-‘आखिर चुनाव ही तो आया है न? कोई प्लेग या हैजा तो आया नहीं! कोई शीतला माता तो पधारी नहीं है जो इतनी फिकर पाल रहे हो। दस-बीस दिन का हो-हल्ला हो जाएगा। चालीस-पचास झण्डे उड़-उड़ा जाएँगे, सौ-पचास चाय का खर्चा माथे पड़ेगा। खाते-कमाते घर के लिए ऐसा कौन-सा वजन है जो पैसे-टके से हमारी कमर टूट जाएगी? जिसके भाग में राजभोग लिखा नहीं होगा वह क्या भोग भोगेगा? तुम क्यों अपना मन छोटा करते हो? अपने हाली-हवाली को काम पर लगाओ और रोज की तरह अपनी बैठक जमाओ। ‘सो तो ठीक है रामी! पर यह पाल्टी-पोल्टी गाँव को कितना गन्दा कर देती है! लोग रिश्ते तोड़ लेते हैं। बेबात के दींगड़े बरस पडते हैं। भाईचारे और रस-रसूख की खेती सूख जाती है। बोलचाल बन्द हो जाती है। आने-जाने के रास्ते बदल जाते हैं। सगाइयाँ टूट जाती हैं। चढ़ी हुई बारातें लौट पड़ती हैं। यह पाल्टी-पोल्टी नहीं हो तो चुनाव कितनी अच्छी चीज है? पर यह पाल्टी-पोल्टी.....।’ मेघराज पटेल ने अपना मन हल्का करने की कोशिश की। रामी पटेलन वापस गाय-मैंसों के सानी-पानी में लग गई और मेघराज पटेल न जाने क्या-क्या बोलते बुदबुदाते अपनी बैठक की ओर बढ़ लिए।
रोज के मुताबिक आसपास गाँव के चार-छह कच्चे-पक्के लोग आ बैठे और बीड़ी-तम्बाकू के दौर शुरु हो गए। वक्त चुनावों का हो तो चाहे आप मन्दिर में हों या मरघट में, घूम-फिरकर बात चुनावों पर आकर टिक ही जाती है। लोगों को न कोई काम सूझता है न कोई काज। ले-देकर बस वही एक चुनाव।
इस बार मेघराज पटेल की चिन्ता कुछ दूसरे किस्म की थी। वे एक सुलझे हुए व्यवस्थित किसान थे। एक तरह से प्रगतिशील और अग्रणी। समय को दूर तक पहचानने वाले ज्योतिषी नहीं थे, पर समय के गणित को समझते थे। आजादी आई तब वे बीस या बाईस बरस के रहे होंगे। सन् 1952 से जब से चुनाव शुरु हुए, तब से आज तक हर चुनाव में उनकी अपनी भूमिका समझदारी की ही रही है। जब तक उनके पिता जीवित थे, वे अपने तईं लिहाज और अनुशासन का पूरा ध्यान रखते थे। सरकार ने उनकी परम्परागत पटेली कई बरस पहले छीन ली, लेकिन फिर भी उनका घर ‘पटेल का घर’ ही कहलाता रहा है। लोक-लाज और कुल-मरजाद का पूरा ध्यान तब भी मेघराज पटेल ने बराबर रखा है। गाँव-शहर से जो भी हाकिम-हुक्काम या अफसर-कारिन्दा आता, सीधा पटेल की पौर में ही पहुँचता था। आसपास से कोई नेता-वेता आता तो वह भी पटेल की बैठक में ही पहली हाजिरी देता। मेघराज पटेल, रामी पटेलन और उनके लड़के-बच्चे, हाली-मवाली और चाकर-चहेते परिवार की इस विशेष स्थिति का ध्यान रखते। सभी का स्वागत करते। जलपान और भोजन-थाली की व्यवस्था करते। दो-ढाई हजार की आबादी का छोटा-सा गाँव। हजार-बारह सौ मतदाता। कुल मिलाकर एक पोलिंग बूथ का जमावड़ा। पर पाल्टी-पोल्टी, मेघराज पटेल को गहरे तक अधमरा कर देती थी। बार-बार पटेल का मन उफान पर आता और वह कड़वा-विषैला डर रह-रह कर उनके मुँह तक आ जाता था। वे चुनावों के जबरदस्त हिमायती थे, पर जब से चुनावों की पाल्टी-पोल्टी ने लोगों के दिलों में दरार डालनी शुरु कर दी, तब से वे चौकन्ने हो गए थे।
‘अब इस बार के चुनावों को ही लो।’ आसपास बैठे लोगों तक पटेल अपना मन पहुँचा रहे थे - ‘डेढ़ बरस में यह चौथा चुनाव आ गया। गिन लो। पहले दिल्ली का बड़ा चुनाव, फिर विधानसभा का बड़ा चुनाव। फिर पंचायतों का आधा-अधूरा चुनाव और अब फिर दिल्ली का बड़ा चुनाव। महीने अठारह भी पूरे नहीं हुए। यानी कि साढ़े चार महीनों में घूम-फिरकर एक चुनाव आ गया। बैठाओ साठ महीनों के लिए, पन्द्रह महीनों में ही घर वापस आ जाते हैं। कोई नौ महीने तो कोई चार महीने। एक रुपया लेकर जाते हैं, चार आने में ही खर्च कर देते हैं। खाली हाथ, खाली जेब और रोनी सूरत लेकर फिर चौपाल पर आ खड़े हो जाते हैं। लाओ वोट, लो चुनाव। अब हमारा गाँव-देहात अपना पेट पाले कि इनके लिए रोज वन्दनवार बाँधता बैठे?’
‘पटेल बा! परजातन्त्र का यही आनन्द है।’ किसी ने मेघराज पटेल को टोका।
‘कहना ही हो तो लोकतन्तर कहो। परजातन्तर गन्दा और गलीज शब्द है। क्या हम किसी मरे-पिटे राजा की परजा हैं जो हमारा तन्तर परजातन्तर कहलाए? ये राजे-महाराजे मरे-मराए साँप हैं। इनसे डरने की जरूरत नहीं है। पवित्र और परम शब्द है लोकतन्तर। हम सब मिलकर भारत माता के लोक-पुत्र हैं।’ पटेल के विवेचन ने टोकने वाले की बोलती बन्द कर दी।
शायद कोई पढ़ा-लिखा नवयुवक कह बैठा - ‘पटेल बा! लोकतन्त्र को यह पार्टी-पोलिटिक्स सजीव और सक्रिय रखती है। चुनावों के बहाने......!’ मेघराज पटेल ने नौजवान को बीच में ही लपक लिया - ‘बेटे! मैं बस इस पाल्टी-पोल्टी से तंग आ गया हूँ। पाल्टी-पोल्टी एक-दूसरे में बुराइयाँ देखती है। उन्हें थू-थू और तू-तू, मैं-मैं तक उछालती है। लोकतन्तर एक-दूसरे में अच्छाइयाँ देखने का शास्त्र है। चुनाव हमेशा अच्छे और बहुत अच्छे के बीच में होना चाहिए। पर इस पाल्टी-पोल्टी ने इन चुनावों को बुरे और बहुत बुरे के बीच में किसी एक को चुनने की कगार पर खड़ा कर दिया है। अब अगर आपको चोर और-पागल में से किसी एक को चुनना है तो आप चोर को ही चुनेंगे, पागल को नहीं। चोर को आप सजा तो दे सकते हैं! पागल को तो ख़ुद ही सम्हालो भी और पालो भी। उसकी गाली भी खाओ और गन्दगी भी साफ करो। देखा न कि पाल्टी-पोल्टी ने हमें....।’
गरम-गरम चाय की बड़ी देगची और आठ-दस कप एक थाली में उठाए हाली के साथ रामी पटेलन ने बैठक में अनायास अपनी आवक दर्ज करवाई और बोली - ‘बात भी करते जाओ और चाय भी पीते जाओ। गाँव वाले मिलकर तय कर लें कि इस चुनाव में हमारा गाँव क्या करे?’
‘करना क्या है? सामने वाला चौराहा खुला पड़ा है। हर उम्मीदवार के नाम के दो-दो बाँस मैं खुद गाँव की तरफ से गाड़ दूँगा। अपने-अपने झण्डे लगा दो। किसी का भी तीसरा झण्डा नहीं लगे। गाँव में किसी के ढालिए पर भी नहीं। मेरे घर की दीवारें सभी के लिए खुली पड़ी हैं। हर पाल्टी अपने पाँच पोस्टर मुझे दे दे। मैं अपने हाथ से अपनी दीवारों पर लगा दूँगा। अपने नामों और चुनाव-चिह्नों से मेरे गाँव की साफ-सुथरी दीवारें मत रंगो। रहा सवाल सभा करने का। सो एक कोई दिन तय कर लो और मैं बना देता हूँ सामने वाले चबूतरे पर अपना देहाती मंच। दो घण्टे सभी बोल लो। चाहो तो एक ही साथ। चाहो तो अलग-अलग। लाउडस्पीकर का खर्चा मेरा। क्यों कॉँय-काँय, भाँय-भाँय करते हो? क्यों लेते हो
प्राण मेरे ग्राम देवता का? सुख-चैन की नींद वो भी सोएँ और हम भी। बाद के दिनों में घर-घर चिटें बाँटने का काम हमारा गाँव खुद ही कर लेगा। कोरी चिटें छपी-छपाई खूब मिलती हैं। हजार-डेढ़ हजार कुल चाहिए। पंचायत खरीद ले या हम लोग खरीद लेंगे। पढ़े-लिखे बच्चे उन्हें लिख देंगे। हम लोग मिल-बैठकर बाँट भी लेंगे। क्यों जीपें भर-भरकर लोगों को यहाँ तक भेजते हो? वे गाँव में पाल्टी-पोल्टी का जहर बोकर जाते हैं और वह फसल न हमारे काटे कटती है न हमें रास ही आती है। सारा रोना इसी बात का तो है।’ मेघराज पटेल बोले जा रहे थे। गले उतरे-उतरे, नहीं उतरे, न सही। पर हर उम्र के लोग चुपचाप पटेल को सुन जरूर रहे थे।
पटेल की इस प्रस्तावना में कई लोगों को अपना दस-बीस दिनों का कमाऊ-धन्धा चौपट होता दिख रहा था। कई भाई लोगों के आर्थिक गणित गड़बड़ा रहे थे। कोई सुन्न था तो कोई मुन्न। खदबदा सभी रहे थे पर बोले कौन?
‘पटेल बा! आपकी बात अगर मान ली गई तो हमारा गाँव सारे देश में आदर्श हो जाएगा। दूर-दूर से लोग इसे देखने आएँगे। अखबार, रेडियो, टी.वी. सब। सब दूर मेघराज पटेल का जैकारा लगेगा। गाँव का भाग खुल जाएगा पटेल बा। पर ये जो दस-बीस दिनों की रौनक गाँव में रहती है, वह मारी जाएगी। रसोई तो बनेगी पर रह जाएगी अलोनी। लोकतन्त्र का स्वाद मर जाएगा।’ बैठक में चारों तरफ से कुछ ऐसा ही विचार उठा। कुछ लोगों का ‘चाय-पानी’ जैसा वाक्य उछल पड़ा।
‘हाँ भैया! हाँ। चाय-पानी तक तो बात फिर भी ठीक थी पर बात दारू-पानी तक चली गई है। चतुर, सयाने और चालाक लोग एक चुनाव में दो-दो, चार-चार महीनों का दारू-पानी निकाल लेते हैं।’ पटेल ने जैसे पूरी बैठक की पीठ पर चाबुक मार दिया। सभी सकते में आ गए। मेघराज पटेल कुछ भारी मन से तान्त्रिक मीमांसा पर उतर पड़े - ‘पूरे चार साल और ग्यारह महीनों तक हमारे नेता लोग शराब की बुराइयाँ करके उपदेश झाड़ते हैं। हर सामाजिक समारोह में शराब छुड़वाते हैं। सन्तों, महन्तों और धरमधुरीणों से कसमें दिलवाते हैं। पर चुनाव के एक ही महीने में उन्हीं लोगों को शराब पिलाने की होड़ लगा देते हैं, जिन्हें कि सारी जिन्दगी कसमें खिलाते हैं। है न पाल्टी-पोल्टी? पता नहीं कौन तो उस शराब को पीता है और पता नहीं कौन कैसे पिला देता है? ऐसी पाल्टी-पोल्टी इस गाँव में क्यों चले? इसे कौन रोकेगा? आप कोई रोको या नहीं, मैं जरूर रोकूँगा। गाँव में दारू कुट्टे कितने बढ़ गए हैं? क्या हालत हो रही है उनके परिवारों की?’ पटेल ने सारी बैठक पर एक भरपूर नजर फेंकी। कई लोग सिर नीचा किए चाय के खाली कपों को प्लेटों में रखते इधर-उधर सरकाने लगे।
‘सुनो!’ पटेल शायद पूरे खुल जाना चाहते थे। ‘पोलिंग बूथ स्कूल के बाड़े में बनता ही आया है। हर पाल्टी को पोलिंग एजेण्ट हम लोग खुद दे देंगे। उनके भोजन-पानी की व्यवस्था उनके अपने घरों में रोज की तरह होती रहेगी। आखिर बाहर वाले पोलिंग एजेण्ट यहाँ आकर क्या करेंगे? न वे किसी को जानें न पहचानें? मेरी बात अगर मान ली जाए तो बोलो कहाँ हुआ खर्चा पाई-पैसा? प्रतिष्ठा और जन-धन सब बचा कि नहीं?’
‘पटेल बा! आप नहीं मानोगे। इस बार सच्चा लोकतन्तर लाकर ही रहोगे। ऐसा हो जाए तो भारत माता कितनी सुखी हो जाए?’ मेघराज पटेल के एक बचपन के साथी ने हल्का-सा विनोद करते हुए कहा - ‘पर इन बिना सींगों के बछड़ों से तो पूछ लो? ये क्या करेंगे? क्या आपका उपदेश इनके गले उतरा भी? अगर आपकी बात मान ली गई तो गाँव-गलियों में जिन्दाबाद-मुर्दाबाद जैसे नारों का क्या होगा? रंग-बिरंगे घोषणा-पत्रों को क्या रद्दी में बेच देंगे ये लोग? आपकी उम्र तो कट गई पर इनकी उम्र का तो रंग ही अब जमा है। क्यों इनकी उमंग से खेलते हो?’
सारी बैठक में हँसी की लहर दौड़ गई। वातावरण पर से मानो एक बोझ उतर गया। सूरज माथे को आने लगा था। लोग उठ-उठ कर जाने लगे। मेघराज पटेल ने उठती-बैठती बैठक से फिर एक बार निवेदन किया - ‘अपनी-अपनी दुकानदारी शौक से करो, पर देखो भई! अपने गाँव को इस पाल्टी-पोल्टी से बचाओ। चुनाव हमारे लोकतन्तर का नया त्यौहार है। गये चालीस सालों से मैं चुनावों को देख रहा हूँ, भोग रहा हूँ, भुगत रहा हूँ। बड़े, छोटे और अंचायत-पंचायत तथा उप-चुनाव और शामिल एवम् अलग-अलग करके 15-16 चुनाव मैं देख चुका हूँ। पहले चुनाव हेल-मेल बढ़ाते थे। अब वे.....मैं क्या कहूँ! सभी जानते हैं चुनाव जरूरी हैं पर चरित्र बदचलन नहीं हो यह और भी जरूरी है। इस चुनाव में हम वैसा कुछ कर सकें तो भारत माता को बड़ी इज्जत मिलेगी!’
मेघराज पटेल की बैठक में रोज इसी तरह की बातें होतीं। हर बैठक में वे अपनी बातों को पहले से ज्यादह वजन के साथ रेखांकित करते। पार्टी-पोलिटिक्स की बुराइयों का डरावना चित्र बताते। लोकतन्त्र की शुद्धता और चुनाव-सुधार पर बल देते। अपने गाँव को चुनाव-सुधार की प्रयोगशाला तक बनाने का व्रत लेते। सभी का मन टटोलते और रामी पटेलन को अपने व्रत में सहभागिनी बनाने का नैष्ठिक प्रयत्न करते। कहते थे कि वैसे तो में मतदान तक गाँव में ही रहूँगा। कहीं जाऊँगा-आऊँगा नहीं, पर यदि दो-एक दिनों के लिए कहीं नाते-रिश्ते, ब्याह-शादी में चला भी जाऊँ, तो गाँव पर नजर रखना। पाल्टी-पोल्टी पर अंकुश लगाना। लगाम खींचना और रस-रसम बिगाड़ना मत। चुनाव के दस्तूर में फँस जाने का यही वक्त है।
उधर चुनाव के चतुरों ने समझ लिया था कि अगर मतदान तक पटेल यहाँ गाँव में ही विराजे रहे तो सारा चुनाव अलौना हो जाएगा। दारू-पानी, कपड़े-लत्ते, भोजन-भक्षण, चहल-पहल, सभा-जुलूस, हार-गुलाल, फूल-फोटो, नारे-पनारे सब धरे रह जाएँगे। चारा-चाँदी सब चौपट हो जाएगा। कोई चुनाव-सुधार का ठेका इसी गाँव ने लिया है! जब संसद कानून बना देगी और सरकार लागू कर देगी तब की तब देखी जाएगी। यह बेमौसम मल्हार आखिर अपना मेघराज ही क्यों गा रहा है? कुछ करो! ‘पाल्टी-पोल्टी’ जैसा शब्द कम से कम इस चुनाव में तो उससे छीन लो। अगले चुनाव के वक्त नए सिरे से देखा जाएगा। बस हो गई योजना शुरु!
एक दिन-
एक शानदार जीप गाड़ी से दो-चार झकाझक कपड़े पहने लोग उतरे। फटाफट फोटो लिए पटेल और पटेलन के। अपनी प्रचार संस्था का परिचय दिया। भारत में वे कैसा चुनाव-सुधार चाहते हैं। उस पर उनके महान विचारों और रामी पटेलन के सक्रिय योगदान पर राजधानी के अपने स्टूडियो में शूटिंग करके इस पवित्र फिल्म को सारे देश में चुनावों से पहले वे दिखाना चाहते हैं। दोनों का पारिश्रमिक मुँह-माँगा और राजधानी में भ्रमण तथा आवास का सारा खर्चा भी उनका। यही पॉँच-छह दिनों का कुल काम था।
नारेबाजों ने मेघराज पटेल के जैकारों से आकाश गुँजा दिया। चुनाव-सुधार की सफलता पर इष्टदेवों और ग्राम देवताओं की मनौतियाँ मानीं। एक घण्टे के भीतर-भीतर ही पटेल और पटेलन को जीप में ठूँस दिया। फूल मालाओं से जीप को लाद दिया गया। मेघराज पटेल और रामी पटेलन कभी गद्गद् तो कभी हतप्रभ। कभी अवाक् तो कभी औचक।
जीप ने गाँव का नाला पार किया। धूल का गुबार जीप को ढँके हुए था। चार-पाँच भाई लोग खिलखिलाकर हँस रहे थे। कनखियों से देखते हुए एक ने कहा, ‘भारत का चुनाव-सुधार हमारे गाँव से जा रहा है। चलों हम अपने चुनाव के स्वागत की तैयारी करें। बधाई!’ और मेघराज पटेल के गाँव में हमेशा वाला चुनाव शुरु हो गया।
वही, ‘पाल्टी-पोल्टी’ वाला अपना चुनाव।
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कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
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