यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
अजन्मे शिशु की याचना
(परिवार नियोजन पर एक मुक्त-छन्द रचना।)
(परिवार नियोजन पर एक मुक्त-छन्द रचना।)
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
मुझे कल्पना में ही रखो
अभी अजन्मा ही अच्छा हूँ
सदा तुम्हारा ही बच्चा हूँ
मुझे विवश मत करो कि
मैं पलने में आऊँ।
मेरा मन बेहद निराश है
मेरा धीरज टूट गया है
जहाँ पड़ा हूँ, वहीं ठीक हूँ
मुझे अजन्मा ही रहने दो
ओ मेरी अनजानी जननी!
ओ मेरे अनजाने बापू!
जो भी मेरे भाई-भगिनी
भले एक, दो या कि तीन हों
उनको पालो, उनको पोसो
तुम उनको परवान चढ़ाओ
उन्हें योग्य संस्कार दिला कर
खूब पढ़ाओ
उन्हें देश का दर्द बताना
पूज्य शहीदों की राहों पर
उन्हें लगाना
मुझे अजन्मा ही रहने दो
जहाँ पड़ा हूँ वहीं ठीक हूँ
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
मुझे कल्पना में ही रखो।
मुझे जनम देकर भी बापू
क्या पाओगे?
देख रहा हूँ समझ रहा हूँ
मुझको सब कुछ सूझ रहा है
मेरी बँधी मुट्ठियाँ ज्यों ही
पहली-पहली बार खुलेंगी
माँ उन पर चुम्बन दे उससे पहले ही
कुछ बद्तमीज मेरे हाथों में
एक-आध झण्डा दे देंगे
ईंट या कि पत्थर दे देंगे
एक-आध डण्डा दे देंगे
मुझे कहेंगे,
खिड़की तोड़ो, शीशे फोड़ो
आग लगाओ, क्रान्ति जगाओ
या फिर डामर का डब्बा देकर के
हुकुम करेंगे
अमुक-अमुक भाषा को पोतो
और अगर मैंने ‘ना’ की तो
तुम खुद सोचो, क्या गुजरेगी
इसीलिए कहता हूँ बापू!
मुझे अजन्मा ही रहने दो
जहाँ पड़ा हूँ वहीं ठीक हूँ
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
मुझे कल्पना में ही रखो
जननी! तुम आँसू लाती हो?
मेरे लिए बहुत व्याकुल हो?
माफ करो माँ!
मुझको सब-कुछ सूझ रहा है
खुली आँख से देख रहा हूँ
मैं यदि आया भी तो जननी!
मेरा पहला बोल उगेगा
उससे पहले ही कुछ घातक
मेरे रतनारे ओठों पर
सड़े, गले, गन्दे नारे जड़ देंगे
और मुझे लाचार करेंगे
कण्ठ खोलकर उनको चीखूँ।
भरी भीड़ में शामिल दीखूँ।
उस दिन तुम ज्यादा रोओगी
बोलो! क्या सुख से सोओगी?
माँ, मुझसे यह नहीं बनेगा
मुझे अजन्मा ही रहने दो
मुझे कल्पना में ही रक्खो
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
जहाँ पड़ा हूँ वहीं ठीक हूँ।
इसका मतलब यह मत लेना
मुझको भारत से नफरत है
मेरा भी मन रोता है माँ!
उस धरती पर जनमूँ मैं भी
जिस धरती पर देही पाने
देव, फरिश्ते तक रोते हैं
लेकिन मेरे प्यारे बापू!
मुझ कपूत का जो दुखड़ा है
पहले उस पर गौर करो तुम
मुझे अजन्मा ही रहने दो।
क्या मैं उस धरती पर आऊँ
‘सुजला’, ‘सुफला’ दो शब्दों का
पावन मतलब
सात समन्दर पार लदे बन्दरगाहों पर
ढूँढ़ा जाता है?
जहाँ पुष्ट बाँहों में फँसा पेट भी
भीख या कि कर्ज लाकर खाता है।
क्या मैं उस धरती पर आऊँ
जिसके यौवन के पंजों में
धरती की छाती चीरे वो
हल ना होकर
वे अखबार रहा करते हैं
जिनमें छपी हुई होती हैं
परदेशी कर्जे की खबरें?
जहाँ कान खुश होते हैं
वे खबरें सुन कर
‘फलाँ देश ने आज हिन्द को
मदद करी है स्वीकृत?’
मुझे अजन्मा ही रहने दो
मुझे कल्पना में ही रक्खो
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
मैं अभी अजन्मा ही अच्छा हूँ
सदा तुम्हारा ही बच्चा हूँ
मुझसे नहीं सहा जाएगा
जब मुझको भी कहा जाएगा
चलो! कोयना या बिहार के
पीड़ित श्रम को लूट खाएँ हम
सरहद को कट-पिट जाने दो
झूठे या थोथे नारे पर
टूट जाएँ हम।
मुझे अजन्मा ही रहने दो
मुझे कल्पना में ही रक्खो
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
मुझे विवश मत करो कि
मैं पलने में आऊँ।
वैसे भी दायित्व आप पर बहुत बड़ा है
मुझ से पहले ही आँगन
सारा-का-सारा भरा पड़ा है
मुझको ईश्वर का वरदान न मानो
अपने क्षुद्र असंयम के धब्बे से
उस गरीब को दाग नहीं दो
पतझर के पंजों में फँसी हुई
बगिया को आग नहीं दो।
बुद्धि, विवेक, ज्ञान सबके सब
साथ नहीं दे पाते हैं तो
द्वारे पर विज्ञान खड़ा है
इस युग का भगवान खड़ा है।
उसको पूर्ण समर्पण कर दो
कंचन काया अर्पण कर दो
उससे अभय दान लेकर के
अपने युग की पीर हरो तुम
मुझ कपूत को क्षमा करो तुम।
मुझको इतना-भर बतला दो
मेरा पलना कहाँ बँधेगा?
कहाँ जगह है?
किसका दूध मिलेगा मुझको?
डब्बे का?
वो भी परदेसी?
माँ की चुसी शुष्क छाती में
ना तो दूध और ना लोहू
पहले वाले अधनंगे हैं
अधभूखे हैं,
उनका दर्द बँटाऊँ या फिर
उनका दुःख बढ़ाऊंँ मैं?
समाधान का इच्छुक याचक
घोर समस्या की संज्ञा लेकर
कैसे भू पर आऊँ मैं?
मुझे अजन्मा ही रहने दो
ओ मेरे अनजाने बापू!
ओ मेरी अनजानी जननी!
मुझे कल्पना में ही रक्खो
अभी अजन्मा ही अच्छा हूँ
सदा तुम्हारा ही बच्चा हूँ।
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।
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