विकल्प (‘मनुहार भाभी’ की सातवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की सातवीं कहानी




                                विकल्प  

यह एक राजा की कहानी है।

राजा को यहाँ एकवचन भी माना जा सकता है और बहुवचन भी। आप, हम, ये, वे या और भी कोई यह राजा हो सकता है। या हो सकते हैं। अमूमन राजाओं की कथाएँ होती हैं किन्तु कथा उसे कहते हैं जिसका समापन प्रसादगुण से परिपूर्ण हो, जो सुखान्त हो। इस कहानी के नायक ‘राजा’ का कोई अन्त नहीं होता।

कहावत प्रसिद्ध है कि ‘राजा’ नहीं मरता !

न तो यह कोई लोककथा है न आत्मकथा। कल्पनालोक में एक आकाशी पंछी उड़ा और उसकी नजर इस राजा पर पड़ गई। न ऐसा कोई राजा कभी हुआ था, न शायद कभी होगा, पर ऐसे राजाओं की कमी कहाँ है? वे यहाँ हैं, वे वहाँ हैं। वे यहाँ-वहाँ सभी जगहों पर हैं। वे कहीं नहीं हैं पर वे वहाँ भी हैं जहाँ कि नहीं होना चाहिए। वे आपके, मेरे, इनके, उनके यानी कि सभी के आसपास हैं। वे राजा हैं भी और नहीं भी। उनके पास अपना सिंहासन है और वह सिंहासन दूर-दूर तक उपहास और असम्मान का प्रतीक है। यह अलग बात है कि उनके इन सिंहासनों के सम्मान और श्रद्धाकाल का एक समय था।

इतनी सारी बातें इसलिए कि ‘एक बार एक राजा था।’

उसके बाप दादों ने सदियों तक, न जाने किस-किस से लड़-लड़कर अपने राज्य को यहाँ से वहाँ तक फैलाया था। प्रजा वैसी ही सुखी या कि दुःखी थी जैसी कि राजा के राज में रहा करती है यानि कि हुआ करती है। वक्त-बे-वक्त शिकवे-शिकयत भी होते, ताने-उलाहने भी मिलते पर जनता का समय अक्सर जयजयकरों और उत्सवों में बीतता था।

कहने को कह लेते हैं कि इस राजा का राज सारे देश पर था। अब, यह सारा देश कौन सा था, इस बात को छोड़िये। इतना ही पर्याप्त है कि एक बार एक राजा था और उसका राज सारे देश पर था। उसके राजमहलों पर उड़ते हुए नेजे-निशान दूर-दूर तक दिखाई पड़ते थे। देस-परदेस में राजा का नाम था। मान था, सम्मान था, उसके एक-छत्र राज को किसी भी दिशा से कोई चुनौती नहीं थी। ऐसे में जबकि सब कुछ अच्छा-भला चलता लग रहा था, कुछ सयानों ने सोचा कि इस राजा को निपटाओ, खण्ड-खण्ड कर दो इसके राज को। इसे कहलाने भर का राजा रखो, बाकी सब छीन-छान लो। 

और अब काम शुरु हुआ। हिसाब-किताब लगाया गया। जाँचा-परखा गया कि कौन-सी एक ही चीज पर हाथ डाला जाए कि साँप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे।

पूछ-परख और मनन-अध्ययन के बाद पता यह चला कि राजा के पास एक से एक अचला और कनौतीदार, हिनहिनाते चपल, अपलक और विद्युतवेगी घोड़े हैं। राजा की अश्वशाला अद्वितीय है। उसकी तुरंगवाहिनी चौबीसों घण्टे रणसज्जा के लिए तैयार तनी रहती है। वे घोड़े अरबी नहीं थे। सबके सब देशी थे। पर अरबी नस्ल के घोड़ों को भी मात करते थे, यही कारण था कि राजा को लोग ‘अरबपति’ कहते थे। राजा की अश्वशाला शक्ति के मामलों में आदर्श और ईर्ष्यास्पद थी। जब तक राजा के पास ऐसे अश्व हैं तब तक राजा का छत्र-भंग योग आ ही नहीं सकता। राजा के राजकोष में हीरे-जवाहरात भले ही कितने भी हों पर उसका अश्वबल अतुल था। समय-समय पर अस्तबल के घोड़े बदले भी जाते तो उनका स्थान उनसे ज्यादा अच्छे घोड़ों को दिया जाता था। राजा के आसपास अश्व विशेषज्ञों का मेला लगा रहता था। दूर-दूर से घोड़ों के पारखी आते और राजा की अश्वशाला पर चकित रह जाते। राजा और राजा के पुरखों के युद्धों का इतिहास इस बात का साक्षी था कि इस राजा के घोड़ों ने रण विजय के एक-से-एक आला कीर्तिमान कायम किए थे। जब ये अश्व रथों में सजते और युद्धोन्माद में हिनहिनाते हुए समरभूमि को खूँदते तो सारा आकाश इनकी हिनहिनाहट और टापों की आवाजों से भर जाता था। सामनेवाले दुश्मन का कलेजा काँप जाता। दिग्गज डोल जाते और  राजा के विजय-केतु यहाँ से वहाँ तक फहराते नजर आते। मदोन्मत्त हाथियों के माथों पर ये घोड़े आनन-फानन में अपने दोनों अगले पाँव जमा देते और एक के बाद एक मोर्चे को फतह करते शत्रु सैन्य को रौंदते चले जाते। नरसिंघों, रणभेरियों, तुरहियों और शंखों के कोलाहल में इन अश्वों का वेग देखते ही बनता था। राजा इन्हीं घोड़ों के दम पर ‘वाजिपति’ और ‘वाजिराज’ तक कहलाता था। अद्भुत था राजा का यह पशु-धन। शास्त्र इसे ‘वाजिधन’ कहता आया है। व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि इस तरह का वाजिधन राजा के पास केवल अपनी राजधानी में ही नहीं, अपने राज्य में जगह-जगह, गाँव-गाँव, चाक-चौबन्द-चौकस तौर पर पलता था। सयानों ने तरकीब निकाली। तय किया कि ‘अरबपति’ को ‘खरबपति’ बना दो। नरेन्द्र को खरेन्द्र में बदल दो। पशुधन को पशुधन ही रखो किन्तु ‘वाजिधन’ को ‘खरधन’ बनाने का रास्ता निकालो। पशु की जगह पशु रखो। चार पाँवों का स्थान चार पाँवों को दो। सींग घोड़े के भी नहीं होते तो गधे के भी नहीं। टाप की जगह टाप, पीठ की जगह पीठ। राजा को समझाया गया-अमुक घोड़ा बूढ़ा हो गया है। फलाँ घोड़ा बहुत दिनों से काम नहीं आया। न शिकार का, न संग्राम का, न सवारी का, न सरकार का। अस्तबल में सइसों को तंग अलग करता है। लगाम लगाओ तो हिनहिनाता है, काटता है। न काठी कसने देता है न जीन। रकाब का तो सवाल ही नहीं है। अभी कोई रणसंग्राम है भी नहीं। अच्छा वक्त है, इसे और ऐसे सभी घोड़ों को बदल दिया जाए।

बात समझ में आने जैसी थी। तय हुआ कि बदलाव लाया जाए। बदलाव की प्रक्रिया मन्त्रिपरिषद में तय हुई। एकाएक सभी को बदलना उचित नहीं होगा। अश्वशाला और सैन्यशक्ति का सन्तुलन बनाए रखना बहुत आवश्यक है। घोड़ों को बदलना है, उन्हें खूँटों से खोल दो। वे अश्वशाला की शान रहे हैं।

फैसला हुआ कि आखिर राज्य में सब ही के पास घोड़े ही तो नहीं हैं। लोगों के पास गधे भी हैं, खच्चर भी हैं। अच्छा रहेगा कि घोड़ों का स्थान गधों और खच्चरों को दे दिया जाए। इससे लगाम, रकाब, जीन, काठी और चने चन्दी का महँगा खर्चा भी बचेगा। वक्त आने पर गधे और खच्चर राजा के पाँवों में पीठ के बल लेटकर आसमान भर जयजयकार भी करेंगे। समय-कुसमय पीठ पर वजन भी उठा सकते हैं। वजन की शिकायत कभी करेंगे नहीं। कौन-सा रोज-रोज युद्ध लड़ना पड़ रहा है? जब भी युद्ध आया या रचा गया तो इतने सारे घोड़े हैं ही।

नई व्यवस्था के अन्तर्गत अश्वशाला में पहिला गधा प्रविष्ट हुआ। आसपास बँधे घोड़ों ने आपत्ति की। उस आपत्ति को कौन सुने? बदलाव की प्रक्रिया शुरु जो हो चुकी थी! सारी अश्वशाला में मातम छा गया। कनौतीदार घोड़े पहली बार अपने कानों को लटका हुआ पाने लगे। घोड़े के खूँटे से बँधे गधे ने आकाश की ओर मुँह ऊँचा किया और अपने उल्लास को भरपूर आवाज में दसों दिशाओं पर पोत दिया। इतना ही नहीं, अपनी उमंग दिखलाने के लिए उसने अस्तबल में जी भर कर पीठ के बल पर लोट भी लगाई। अश्वशाला के अश्वों के लिए यह नया दृश्य था। उन्होंने स्वयम् को अपमानित महसूस किया। आत्मग्लानि के मारे वे चुप रहे। जब राजा के कानों पर गधे का कर्कश स्वर पड़ा तो उसे समझाया गया कि अश्वशाला के अश्वों ने अपने बीच आए हुए नए पशु का स्वागत किया है और नया पशु अपने स्वागत का उत्तर दे रहा है। यह सब आपकी जयजयकार का हल्ला है। आपको बधाई!

सयानों ने दूसरे दिन के अखबारों में अश्वशाला में नई चेतना और नई शक्ति के प्रवेश पर बधाई के विज्ञापन दिए। राजा की सूझबूझ की प्रशंसा से विज्ञापनों के पृष्ठ भर गए। राजा पुलकित। सयाने आश्वस्त। 

बदलाव की प्रक्रिया अनवरत रही। एक-एक करके राजा की अश्वशाल में हर खूँटे पर अपलक घोड़े की जगह गधा बँध गया। इस गहमागहमी में कई स्थान  खच्चरों को भी मिल गए। बदलाव का यह असर सारे राज्य की अश्वशालाओं पर पड़ा। गाँव-गाँव राजा की तारीफ के विज्ञापन और गाँव-गाँव नई चेतना, नए चिन्तन और नए धन पर बधाइयों के विज्ञापन और राजा की प्रशंसा के पहाड़। राजा खुश, सयाने मस्त, घोड़े मायूस, अश्वशाला उदास, अश्वघोष ठप्प।

कुछ समझदार लोगों ने राजा को दूरदर्शिता से काम लेने की सलाह दी। सलाह सुनी गई। लेकिन मानने का प्रश्न ही नहीं। बदलाव को क्रान्ति तक की संज्ञा दी जाने लगी। घोड़े अस्तबल से निकलते रहे और जहॉँपनाह मुँह लटकाए पनाह लेते रहे। मनोबल उनके पास रहा नहीं। कायाबल भी टूटने लगा। ढूँढ़-ढूँढकर इस तरह के घोड़ों को राजा के दुश्मनों ने सम्हाला। उनको ढाढ़स दिया। उनकी स्वामी-भक्ति को टटोला। जिन्होंने बहुत ज्यादा स्वामी-भक्ति और सिद्धान्तों की दुहाई दी, वे कहीं के नहीं रहे। कुछ ने मन मारकर हालात से समझौते कर लिए। जहाँ-तहाँ किसी न किसी खूँटे से बँध गए। नए सइसों ने नए ढंग से उन पर अपना खुर्रा चलाया। नए निर्देश, नया प्रशिक्षण और नया भविष्य उनको समझाया गया। मुँह लटकाए वे नए सवारों और नई एड़ों के लिए खुद को तैयार करने लग गए।

समय बीतता चला गया। सयानों को करीब-करीब सभी कुछ अनुकूल लगने लगा। उनका गणित ठीक बैठ रहा था। राजा देखते-देखते ‘अरबपति’ से ‘खरबपति’ हो चुका था। वाजिपति से खरपति हो चुका था। नरेन्द्र से खरेन्द्र हो चुका था। करीब-करीब पूरी अश्वशाला पशुशाला और पशुशाला से भी खरशाला में बदल चुकी थी। खर-स्वर से सारा आकाश निश्चित समय पर भर जाता था। चार-चार घण्टों के अन्तराल से हर गधा अपनी बारी पर रेंकता था और समय पाते ही पीठ के बल लोटना लगाता। चने-चन्दी का स्थान चने के सूखे डण्ठलों ने ले लिया था। अश्वशाला का अर्थभार निरन्तर कम होता चला जा रहा था और सैन्य शक्ति शून्य की ओर बढ़ती जा रही थी। राजा की सत्ता का छत्रभंग योग सन्निकट लगने लगा। सयानों ने आकलन कर लिया कि अब जब भी रणभेरी बजेगी राजा कहीं का नहीं रहेगा। उनको अनुष्ठान पूरा होता लगा। वे उल्लसित थे। 

और अन्ततः एक दिन राजा को सूचना मिली कि उसके बैरी-दुश्मन समर के लिए सन्नद्ध हो रहे हैं, युद्ध आसन्न है। समय बचा नहीं है। अपनी सेनाओं को सजाने का हुक्म दिया जाए। राजाज्ञा जारी हुई। मन्त्रिपरिषद ने राजाज्ञा पर मुहर लगा दी। शत्रु सैन्य रणांगण में आ पहुँचा। विश्वस्त गुप्तचर बराबर सूचनाएँ दे रहे थे। राजा के सेनापति ने समस्या सामने रखी-‘श्रीमान्! रथों में जोता किसे जाए? सारथियों को घोड़ों का प्रशिक्षण है, गधों का नहीं। अश्व का विकल्प गधा या खच्चर कैसे हो सकता है? घोड़ा, घोड़ा है, गधा, गधा।’ सेनापति का अगला सवाल था-‘महाराज! अगर हम किसी तरह एकाध रथ में गधा जोत भी दें तो क्या श्रीमान् स्वयं उस गधे वाले रथ पर रथारूढ़ होकर समरांगण में जाना स्वीकार कर लेंगे? यदि अन्नदाता तैयार हों तो मैं कोशिश करूँ।’

राजा हाथ मलता बैठा अपना भविष्य आँक रहा था। राजा का हर सेनानी इस मनःस्थिति में उदास, निराश और हताश बैठा हुआ था। उधर रणक्षेत्र में शत्रुओं के घोड़े हिनहिना रहे थे। नरसिंघे, रणसिंघे, तुरहियाँ और शंख गूँज रहे थे। अपने-अपने राजा की जय के निनाद उठ रहे थे। राजा के कानों में उसके अपने अस्तबल से निकाले गए कई वायुवेगी अश्वों की हिनहिनाहट की आवाज गूँज रही थी। वह पहचानता था कि यह किस घोड़े की आवाज है और वह यह भी जानता था कि किस घोड़े का पराक्रम कैसा है।

उधर युद्ध-भय से भीत खच्चरों और गधों में बदहवासी का दौरा पड़ा हुआ था। वे राजा के चरणों में लोट सकते थे। उनकी लेटन में भी उनका स्वार्थ निहित था-अपनी पीठ की खुजली मिटाना। वे गला फाड़कर रेंक रहे थे। यह राजा की जयजयकार का हल्ला नहीं था, यह अपने बचाव का क्रन्दन था। वे खूँटों से रस्सियाँ तुड़ा-तुड़ाकर इधर-उधर भाग रहे थे। रथों में जुतने का उनका योनि संस्कार था ही कहाँ?

दूसरी तरफ सयाने मिल-बैठकर सारे राज्य को सूबों में बाँट रहे थे। अपनी-अपनी सूबेदारी तय कर रहे थे। अपना-अपना राजा और अपना-अपना प्रधानमन्त्री बना रहे थे या बन रहे थे। देश के लिए नई मन्त्रिपरिषद आकार ले रही थी। राजा ने कातर भाव से अपने प्रधानमन्त्री की तरफ देखा। प्रधानमन्त्री ने अभिवादन करते हुए निवेदन किया, ‘महाराज! अब दो ही रास्ते हैं। या तो शत्रु की शर्तों पर युद्धविराम या फिर पराजय स्वीकार करते हुए सत्ता का सम्मानजनक हस्तान्तरण। युद्धविराम होगा नहीं और सत्ता का हस्तान्तरण रुकेगा नहीं।’
अपने दरबार पर अपनी अन्तिम दृष्टि दौड़ाते हुए राजा ने एक प्रश्न सभी से किया-‘आखिर हमसे चूक कहाँ हुई?’

प्रधानमन्त्री का सधा-सधाया उत्तर आया-‘देव! सर्जित लोकप्रियता और अर्जित लोकप्रियता में बड़ा फर्क होता है। घोड़ों की लोकप्रियता अर्जित थी जबकि गधों और खच्चरों की लोकप्रियता सर्जित थी। वे ज्ञापनों और विज्ञापनों में लोकप्रिय बने रहे। अश्व ‘लोक’ में लोकप्रिय थे। वे अपनी तपस्या के साथ अश्वशाला से चले गए। सर्जित लोकप्रियता वाले पीठ के बल लेट लगा रहे हैं। एक बात और भी है राजन! विकल्प, कल्प से हमेशा श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम, उत्तम और अति उत्तम होना चाहिए। यदि विकल्प, कल्प से कमतर है तो उस विकल्प सहित कल्प का पतन अवश्यम्भावी है। आप वाजिपति रहे तब तक सिंहासन पर रहे। शनैः-शनैः आप खरपति होते चले गए तो अपना पतन स्वयं देख रहे हैं?’

राजा ने एक लम्बी साँस छोड़ी। प्रधानमन्त्री ने अन्तिम वाक्य कहा, ‘राजन्! मन्त्रिपरिषद सदैव नरेन्द्र की रहती है, खरेन्द्र की नहीं। प्रणाम।’

आप इस कहानी को अपने-अपने राजाओं तक पहुँचा सकते हैं। यदि आप स्वयं ही किसी न किसी राजसिंहासन के राजा हैं तो यह कहानी आप पर भी चस्पा हो सकती है। अपने आप पर महरबानी कीजिए और घोड़ों के खूँटे पर गधा मत बाँधिए। गधा चापलूस है। पीठ के बल आपके पाँवों में लोट लगाने लग जाएगा। घोड़ा समर्थ है। आपको अपनी पीठ पर लेकर सारे संघर्ष क्षेत्र को रौंद देगा। जान पर खेल जाएगा पर पीठ नहीं दिखाएगा।

ऐसी कहानियाँ कहानीकारों से समाप्त नहीं होतीं। इसे आप अपने हिसाब से समाप्त कर लीजिएगा।
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मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
 
  
 
 
 
 
 
   



  
 
 
 
 
  

 
   

 
  
   

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