रतिराम एण्ड संस (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की छठवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की छठवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



रतिराम एण्ड संस

सगुन सेठ ने अपने लड़के का नाम सोच-समझकर ही ‘रतिराम’ रखा होगा। जब उसकी जन्मपत्री बनवाई गई तो राशि तुला आई। पण्डितजी ने कहा था, ‘राम से लेकर रतिराम तक चाहे जो नाम रख लो।’ और सगुन सेठ ने ‘रतिराम’ ही नाम चुना। बड़ा होकर रतिराम सचमुच रतिराम ही निकला। गोरा-चिट्टा, कद्दावर और हृष्ट-पुष्ट। बिलकुल पहलवानों जैसा। दूर से देखकर कोई भी उसे बनिए का बेटा मानने के लिए तैयार नहीं होता था। चौड़ी और भरपूर फैलाववाली उसकी हथेलियाँ, मजबूत कलाई और सुतवाँ नाक-नक्श। कामदेव की पत्नी रति का बेटा ऐसा ही रहा होगा। मसमसाती मूँछें और कसमसाती बाँहों की मछलियाँ रतिराम को न जाने किस लोक में लिये चली जा रही थीं। अगर कठिनाई थी तो एक ही कि बस्ती के बहुत बड़े सेठ का अकेला बेटा होने के बावजूद रतिराम की सगाई कहीं नहीं हो रही थी। यार-दोस्त रतिराम से पूछताछ करते तो दो-एक सवालों तक तो रतिराम ठीक-ठीक उत्तर देता, पर फिर एकाएक चिढ़ पड़ता। चिढ़ क्या पड़ता, करीब-करीब बौखला जाता था। उनके संवाद कुछ इस तरह के होते -

‘रतिराम ! तेरी शादी क्यों नहीं हो रही है?’

‘मेरी कोई बहन नहीं है। मेरी कोई बहन होती तो मेरी भी शादी-हो जाती।’

रतिराम का यह उत्तर सुनकर सामनेवाले के होश उड़ जाते। तब भी  बात की तह में जानेवाले लोग पूछने की हिम्मत करते, ‘क्या तू अपनी बहन से शादी करेगा?’

‘क्या तुम लोगों ने अपनी-अपनी बहनों से शादी की है, जो मैं कर लेता?’ रतिराम का तीखा जवाब होता।

‘आखिर तेरी सगाई में दिक्कत क्या आ रही है?” अगला सवाल होता।

‘मेरा बाप कमीना है।’ रतिराम बिलकुल संकोच नहीं करता।

‘क्या तू कमीन का बच्चा है?’ दोस्त आखिर बराबरी की उम्रवाले होते हैं, पूछ ही लेते हैं।

रतिराम इस मोड़ पर आकर रुआँसा हो जाता। लम्बी साँस छोड़कर कहता, ‘एक-दो नहीं, पूरी बारह कुँवारी बेटियों के बाप मुझपर बिजली बन कर बरसे हैं। मैं जिन्दा हूँ, यही बहुत है। मेरी माँ कभी भी कुआँ-बावड़ी कर लेगी। मेरे बाप ने अपने कुकर्मों से अपना वंश समाप्त कर लिया है। जात-बिरादरीवाला तो अब कोई भी मुझे बेटी देगा नहीं। विधवा से मेरा जोड़ा बनने का नहीं और परजात की लाने से मैं रहा। उमर मेरी रोज-रोज फिसल रही है। तुम लोगों में हँसने बोलने के लिए उठता-बैठता हूँ तो तुम भी मेरे छालों को फोड़ने लग जाते हो। मैं यह भी जानता हूँ कि बात तुमसे छिपी नहीं है। जब गाँव का बच्चा-बच्चा जानता है तो तुम कैसे नहीं जानोगे? पर तुम लोगों को मजा इसी में आता है कि मै....’ और रतिराम सिसकियाँ भरकर बहने लग जाता। सूनी आँखों से आकाश को देखता और कहता, ‘अगर मेरे बाप को भगवान ने मुझसे पहले या मुझसे बाद ही सही, एकाध बेटी दी होती तो वह जानता कि बेटी के माँ बाप पर क्या-क्या गुजरती है! इस गाँव में बेटियों की माँएँ किस तरह रो-रोकर मुझे और मेरे खानदान को शाप दे रही हैं, यह बात भला तुममें से कौन नहीं जानता है!’

दोस्त लोग अपनी-अपनी राह लेते और रतिराम भारी मन से अपने काम में लगजाता। महीने-पन्द्रह दिनों में एक-दो नए लोगों को लेकर दोस्त लोग फिर रतिराम को घेर लेते और इसी तरह के फफोले फोड़कर फूट लेते।

घर में रतिराम की माँ बस इसलिए जिन्दा थी कि उसके सामने रतिराम का मोह जिन्दा था, वरना वह बहुत पहले ही अपनी जान दे चुकी होती।

लक्ष्मी से भरा-पूरा घर। अच्छा-भला खून। जाना-माना खानदान और उसमें भी एकाकी बेटे की करी-कराई सगाई छूट जाए। भला रतिराम की माँ कैसे सह लेती? बात इतनी ही होती तो कोई चिन्ता नहीं थी, पर रतिराम की माँ को अब सारा आकाश अन्धा और धरती वीरान नजर आने लगी थी। बात जिस मुकाम पर जाकर टूटी थी, वहाँ कोई मोड़ ही नहीं था। उसे पक्का भरोसा हो गया था कि अब उसके बेटे को कोई बेटी नहीं देगा। किया-कराया सब सगुन सेठ का और सजा भुगत रहा है रतिराम। बहू के मुँह को तरस-रही है रतिराम की माँ। न कहीं उठने की, न बैठने की। किसी रीति-रस्म में जाए तो यही पूछताछ, ‘रतिराम की सगाई कहाँ हों रही है? सुना है, फलाँ गाँव से कोई रिश्ता लेकर आया है।’ और आँचल से मुँह ढाँपकर रतिराम की माँ रोने लग जाती। अपमान की पराकाष्ठा यह थी कि जात-बिरादरी की पढ़ी-लिखी लड़कियों ने रतिराम का नाम तक बदलकर तानेकशी में ‘रतिराम एण्ड संस’ कर दिया था। रतिराम की अनपढ़ माँ कई दिनों तक तो इसका मतलब ही नहीं समझी, पर जब किसी ने इसका मतलब समझाया तो वह फूट-फूटकर रो पड़ी। अब कोई यों नहीं कहता था कि रतिराम की माँ आ गई है, सारा गाँव कहता था, ‘वो रही रतिराम एण्ड संस की माँ।’ सगुन सेठ को भी ‘रतिराम एण्ड संस का बाप’ कहकर लोग चटखारे लेते रहते थे।

सगुन सेठ को अपने किए का मलाल शायद ही कभी रहा हो। वे सहज और सामान्य ढंग से अपनी छोटी सी दूकान पर बैठे ग्राहकों को निपटाते रहते या फिर अपना खाता-बही किया करते थे। न कोई क्रिया, न प्रतिक्रिया। लगता ही नहीं था कि उनके बेटे की एक सगाई छूट गई है और अब उसकी सगाइयों का सारा भविष्य नष्ट हो गया है। बिरादरी में कोई भी उसे बेटी देनेवाला नहीं है। वे समय पर दूकान खोलते और समय पर मंगल कर देते।

ढेर सारे रुपए ब्याज पर चल रहे थे। घर में कमी थी तो बस एक बहू की। वैसे कोई अभाव नहीं। एक-एक पायदान चढ़ते-चढ़ते वे नगर सेठ के रुतबे तक पहुँचने की जद में आ चुके थे। बाजार में आते-जाते लोग उनसे खरी-मसखरी भी कर लेते थे। वे भी चुहल करने से चूकते नहीं थे। मजाक का उत्तर मजाक से देते, कटाक्ष का उत्तर कटाक्ष से। ग्राहक से बातचीत बिलकुल सेठ की तरह करते। गाँव कोई बडा था नहीं। सो गाँव का छोटा-बड़ा हर हर आदमी उनसे ‘जय गोपाल’ तो करता ही, पर साथ-ही-साथ मासूम सा सवाल भी कर लेता था, ‘रतिराम एण्ड संस कहाँ है? उससे जरा काम था।’ और सगुन सेठ कुछ उत्तर देते उससे पहले सामनेवाला ‘ये जा, वो जा’ हो जाता था। सेठ समझ जाते थे कि हो गई चोट, पर वे कर भी क्या सकते थे?

गाँव में सगुन सेठ का समाज ‘बड़ा समाज’ कहलाता था और पूरा गाँव दूर-दूर तक इसी समाज के नाम से इज्जत पाता था। पर सगुन सेठ के कारनामों से आज गाँव की हालत यह हो चली है कि बड़ी बिरादरी का कोई आदमी न तो इस गाँव की बेटी-लेने के लिए-तैयार होता है, न यहाँ कोई अपनी बेटी देना ही पसन्द करता है। बड़े समाज के लोगों का दम घुट रहा था पर हर साँस लाचार हो चली थी। सभी विवश थे। डेढ़-दो साल के छोटे से अरसे में ही बड़े समाज की एक-दो नहीं, बारह बेटियों की सगाइयाँ छूट जाएँ और छूटे भी ऐसे अन्धे मोड़ पर कि वे शादियों को तरस जाएँ तो आखिर समाज और गाँव की प्रतिष्ठा चलेगी कैसे? जहाँ किसी की सयानी और जवान बेटी की सगाई तय होती कि सगुन सेठ के भीतर साँस लेनेवाला खलनायक अपने खेल में लग जाता। वे शकुन के रुपए-नारियल तक कुछ नहीं करते। लड़केवाले के साथ गाँव के मन्दिरों पर जाते, प्रसाद खाते और मुँह मीठा करते। उस घर से अपना हेल-मेल बढ़ाते, उसे विश्वास में लेते। जब लड़केवाला लड़की के लिए पहली ओढ़नी लेकर आता तो सपरिवार मंगल मुहूर्त में शामिल होते। बताशे खाते, साथ-साथ भोजन-परसादी पाते। मेहमानों को साथ में लेकर सारे बाजार में ‘जय गोपाल’ करवाते। उधर तिलक और इधर चढ़ावे की तारीखें खुद तय करवाते। दो-एक जोड़ों के इस तरह शकुन से लेकर लगन तक के मुहूर्त आ गए। पर मौका देखकर सगुन सेठ ने कुछ ऐसे गुमनाम पत्र इधर-उधर लिख-लिखा दिए कि हर रिश्ता शक के दायरे में आ गया। लड़केवाले फनफनाते हुए दो-चार महीनों में ही वापस जा खड़े होते और लड़की के बाप, माँ, भाई, जमाई के सामने न जाने कहाँ-कहाँ की छाप लगे, ऊल-जलूल खत रखकर रिश्ता तोड़ने का ऐलान कर जाते। जब गाँव के एक ही समाज में दो साल के दरमियान एक दर्जन रिश्ते टूट गए और शकुन के नारियल, टीके और चढ़ावे के जेवर तक वापस लिये-दिए हो गए तो बड़े समाज में कुहराम मच गया। अपने-अपने स्तर पर सभी चौकन्ने हुए। और करते-कराते बात इस मुकाम पर आ पहुँची कि यह सारा गुमनाम पत्राचार सगुन सेठ का ही किया हुआ कुकर्म है। लोग न जाने कहाँ-कहाँ से पुरावे प्रमाण लाकर सगुन सेठ के मुँह लग जाते। आए दिन दूकान और मकान के सामने हाथापाई होने की नौबत आ जाती। पर मासूम सगुन सेठ अपने आपको इस हराम से अलग बताकर, सिर झुकाकर समाज के सामने खुद को सजा के लिए पेश कर देते। उनका एक ही तर्क होता-‘मेरा गुनाह साबित कर दो और चाहे जो सजा दे लो।’ कहनेवाले यहाँ तक कहते ‘सगुन सेठ! गुमनाम खत वह लिखता है जिसका बाप गुमनाम हो। तुम्हें अपने बाप का नाम मालूम होता तो यह कमीनापन कभी नहीं करते।’ सगुन सेठ अपना जूता उनके हाथों में सौंपते हुए कहते, ‘पहले साबित कर दो कि खत मैंने लिखा है और फिर बड़े मन्दिर के सामने मुझे खड़ा करके लगाओ सौ जूते। पर याद रखो, मुझ पर झूठा आरोप लगाओगे तो कोरट-कचहरी का रास्ता मैंने भी देखा है। मैं एक-एक को वह रास्ता दिखा दूँगा। मैं सब-कुछ सुन लेता हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं ही गुनाहगार हूँ। आपकी बेटी से मेरा कौन सा बैर-बनाव है? गोत्र और शाखा नहीं अड़ती हो तो रिश्ता लेकर मेरे घर आ जाओ मेरे पास रतिराम जैसा जवान बेटा तैयार है। मुझे भी सगाई तो करनी ही है।’ पर मन तक गहरे टूटा हुआ, गुस्सा खाया, बेटी वाला परिवार होंठ काटता वापस लौट जाता था। जवान बहनों के जवान भाई दाँत पीसते, कलाइयाँ काटते, रोते-बिसूरते वापस हो जाते। सगुन सेठ अपनी गद्दी पर बैठे उन्हें देखते रहते और उनके भीतरवाला खलनायक ठहाके लगाता हँसता रहता। 

गाँव उस बेटी के बाप का इन्तजार करता रहा, जो रतिराम के लिए रिश्ता लेकर सगुन सेठ के यहाँ कभी-न-कभी तो आएगा ही। 

और एक दिन गाँव के बड़े समाज को भनक पड़ गई कि रतिराम का रिश्ता लेकर दूर किसी शहर से एक बेटी के माँ-बाप आए हैं। वे लड़का भी  देखेंगे और घर भी। बड़े समाज ने इस परिवार की बहुत आव-भगत की। यह बिल्ली के दबे-पाँव जैसा दाँव था। सगुन सेठ ने जिन्दगी देखी थी। वे भाँप चुके थे कि वक्त आने पर कोई-न-कोई दाँव होगा जरूर। उन्होंने बेटी के बाप-माँ को इस तरह घेर कर रखा कि कोई दूसरा जाति-बन्धु या महिला-समाज की चुप्पा या बातूनी महिलाएँ उनसे सम्पर्क नहीं कर सके। कभी खुद साथ में बैठे हैं तो कभी रतिराम की माँ और दोनों, नहीं तो रतिराम ही सही, पर उन्हें अकेला बिलकुल नहीं छोड़ा गया। समाज के लोग मौके की तलाश में विफल होकर खीझते रहे। समाज के दसों ही नहीं, कई घरों पर मेहमानों का चाय-पानी, नाश्ता हुआ पर कोई कुछ कह नहीं पाया। तीन-चार दिन आनन्द-मंगल के बीते। रिश्ता पक्का हो गया। रतिराम खुश, सेठानी निहाल। गीत-गार सब हो गया। शकुन का रुपया-नारियल हो गया। सगुन सेठ ने बड़े समाज में मुहूर्त के बड़े बताशे और नारियल बँटवाकर मेहमानों को विदा करने का मुहूर्त निकलवा लिया।

ठीक वक्त पर सेठ-सेठानी और रतिराम ने बस स्टैण्ड जाने के लिए गाँव का एकमात्र ताँगा अपने घर के सामने बुलाया। सगुन सेठ ने पीछे बैठाया

बेटी के बाप-माँ को और रतिराम की माँ को, आगे बैठाया रतिराम को और खुद भी पायदान पर पाँव रखकर चढ़ने ही वाले थे कि पता नहीं किधर

से अनायास रूपचन्द भैयाजी ने आकर मेहमान समधी से ‘जय गोपाल’ किया। भैयाजी रूपचन्दजी के हाथ में चाँदी की तश्तरी थी, जिसमें अक्षत-कुंकुम, नारियल और बताशे रखे हुए। सगुन सेठ पुलकित होकर मुसकराते हुए वापस नीचे खड़े हो गए। देखते-देखते बड़े समाज के पच्चीस-तीस लोग आस-पास खड़े हो गए। घोड़ा हिनहिनाता रहा। ताँगा खड़ा रहा। रूपचन्द भैयाजी ने समधी साहब को आवाज देकर तिलक के लिए एक मिनट नीचे उतरने का आग्रह किया। समधी ताँगे से नीचे उतरे। भैयाजी ने अपने अँगूठे पर कुंकुम लगाकर समधीजी के ललाट पर लम्बा तिलक लगाया। अक्षत लगाएँ। मुँह मीठा कराने के लिए बड़ा बताशा समधीजी के मुँह में करीब-करीब ठूँस दिया और हँसते हुए पूछा, ‘हमारा रतिराम पसन्द आ गया आपको?’

‘हाँ साहब! मेरी बेटी का भाग्य अच्छा है जो मुझे घर और वर दोनों ही भले मिल गए। रिश्ता पक्का हो गया। पर आप अभी तक कहाँ थे?’

    ‘मैं अपने बड़े जमाई साहब के यहाँ किसी जरूरी रस्म में बाहर गाँव गया था। चार-पाँच दिनों में आज ही लौटा हूँ। अभी-अभी पता लगा कि आप पधारे हैं तो मैं आपका मुँह मीठा कराने के लिए सीधा चला आ रहा हूँ। आपको और सगुन सेठ को बधाई। पर जरा मेहरबानी करके मुझे एक बात आप भरे-पूरे चौक पर अपने भगवान को साक्षी करके बता दीजिए।’

‘कौन सी बात, साहब?’ समधीजी ने पूछा।

‘ये जो अपने सगुन सेठ हैं न, बार-बार सभी से यह शिकायत करते चले आ रहे हैं कि मैंने आपको चार-पाँच पत्र ऐसे लिखे हैं कि रतिराम से

रिश्ता करना मत, इसे अपनी बेटी देना मत, क्योंकि रतिराम को मिरगी का दौरा पड़ता है। आपको भगवान की सौगन्ध है। आज आपको साफ-साफ कहना ही होगा-क्या मैंने आपको कोई ऐसा खत लिखा? क्या मैं आपसे कभी मिला भी? मुझे इस सबसे क्या लेना-देना है? पर आज-आपको पहले मेरा न्याय करना होगा। उसके बाद ही ताँगा आगे बढ़ेगा।’ और यों कहकर रूपचन्द भैयाजी ने घोड़े की लगाम पकड़ ली। वे ताँगे के सामने खड़े हो गए। फिर एक हाथ से अपनी पगड़ी उतारकर समधी के सामने पसारते हुए बोले, ‘सेठ साहब! देखिए, ये हमारे गाँव की इज्जत का सवाल हैं। आप, दूर देश-परदेश में रहनेवाले लोग क्या सोचेंगे हमारे गाँव और बड़े समाज के बारे में कि कहीं हम लोग एक-दूसरे के दुश्मन तो नहीं हैं? समाज के सारे पंच आपके आस-पास खड़े हैं। आपको मेरे कण्ठ पर हाथ रखकर खुली-खुली बात करनी होगी। बोल बेटा रतिराम! क्या हममें से किसी ने तुझे कभी मिरगी के दौरे के बाद अपना जूता सुँघाया? भले आदमी! तेरे तो जीवन-मरण का सवाल है। तू ही बता दे कि क्या तुझे मिरगी का दौरा कभी पड़ा?’ और भैयाजी रूपचन्दजी का सुर एक विचित्र से कोलाहल में डूबता चला गया।

रतिराम कहता है कि “घोड़े ने उसी क्षण से हिनहिनाना बन्द कर दिया था। न मुझे मिरगी का दौरा पड़ता है, न कभी पड़ा। पर समाज मुझे अपना जूता तब से आज तक बराबर सुँघा रहा है। बाप-माँ चल बसे। मैं अकेला हूँ, पर कहलाता ‘रतिराम एण्ड संस’ हूँ। दीजिए मुझे बधाई।”

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‘बिजूका बाबू’ की पाँचवी कहानी ‘तेल का खेल’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की सातवी कहानी ‘आसमानी सुलतानी’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
 

 
 

 


 

    


  

 

 

 


    

  

 


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