चल रहा हूँ



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की दूसरी कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।



चल रहा हूँ

और फिर निस्संग में
इस तप्त या संतप्त मरुथल में
निरन्तर चल रहा,
क्या हुआ इससे कि
सूरज जल या ढल रहा
अनवरत
निस्सीम क्षितिजों की गुफा में
एक ऊर्जा-पुंज सा
साँझ से पहिले
जिसे तुम यूँ कहो कि
मृत्यु से पहिले
छाप अपनी ऊर्ध्व रेखा की
लगा ही जाऊँगा
क्या हुआ इससे कि मैं निस्संग था?
एक अक्षर बीज ऐसा फूँक दूँगा
ऐ तटस्थों!
कि दर्द के हलचल भरे
इन खण्डहरों की
वज्र-ईंटों के कवच पर
वेदना की वल्लरी
निश्चित उगा ही जाऊँगा
साथ दो तो शुक्रिया
अन्यथा
मैं तो निरन्तर चल रहा हूँ।
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संग्रह के ब्यौरे

रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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