जनसम्पर्क (‘मनुहार भाभी’ की चौदहवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की चौदहवीं कहानी




जनसम्पर्क  

राम रखवाला है इस देश का, अगर यही सब चलता रहा तो कहाँ जाकर पूर्णविराम लगेगा। ‘हे भगवान! इसका कोई और ओर-छोर तो लगे!’ ऐसा ही मन्थन चल रहा था विकास बाबू के मानस में। अगर पार्टी के कार्यकर्ता एक ही शहर के जनसम्पर्क का बिल एक लाख से ऊपर रुपयों का लाकर देते हैं तो फिर आगे क्या होगा? चुनावों को अभी चार दिन शेष हैं और इलाके में  तो अभी तीन शहर और जनसम्पर्क के लिए बाकी हैं। यहाँ की छूत वहाँ भी लगेगी और शायद बाप-दादा का मकान नीलामी पर चढ़ाना पड़ जाए। हालात उस मुकाम पर पहुँचे हैं। 

बहुत परेशान थे विकास बाबू। एक तो सारा दिन उनको गली-गली, चौराहा-चौराहा आड़ा-टेढ़ा चला-चलाकर पाँवों का पानी और सीने का पसीना निकाल दिया और रात दस बजे जब वे चुनाव अभियान के अगले चरण की तैयारी कर रहे थे कि जनसम्पर्क का एक ही दिन का केवल आठ घण्टे का बिल साथियों ने एक लाख से ऊपर का परोस दिया। विकास बाबू के हाथों के तोते उड़ गए।

वे मन ही मन सोचने लगे, ‘क्या ये वे ही लोग हैं जिन्होंने कि टिकट मिलने से पहले तरह-तरह के वादे किए थे, समर्पण और निष्ठा की घोषणाएँ की थीं। पार्टी के लिए न जाने कितनी कसमें खाई थीं। यह क्या आलम है कि अब जो भी आ रहा है उसके हाथ में छोटा-बड़ा एक न एक बिल है और इन सारे बिलों को जोड़कर देखा जाए तो बात एक लाख से ऊपर ही पहुँच रही है। अभी तो चुनावों का चरम काल शेष है। दो दिन बाद ही जब पोलिंग एजेण्ट पोलिंग सेण्टरों पर भेजे जाएँगे तब फिर जरूरी तैयारी के साथ दो सौ रुपयों के नोट हर एक बण्डल में रखना और जरूरी है। वे मन ही मन पोलिंग सेण्टरों की संख्या से दो सौ रुपयों का गुणा कर रहे थे। 

बिल लाने वाले लोगों का घेरा कसता भी जा रहा था और बढ़ता भी जा रहा था! अभी तो विकास बाबू सारे दिन की थकान के बाद नहाए भी नहीं थे। भाई लोग दिन भर के जनसम्पर्क का बखान अपनी-अपनी शैली में कर रहे थे आर विपक्ष के उम्मीदवार की  खिल्ली उड़ा रहे थे। रंग-गुलाल में ये लोग भी सराबोर थे और विकास बाबू भी। घर वाले चाय-नाशेता परोसने में लगे थे। टेलीफोन की घण्टियाँ घनघना रही थी।

कार्यकर्ता और लोकल नेता अपने-अपने आकलन पेश कर रहे थे। सट्टा बाजार में विकास बाबू का भाव आज क्या है और विपक्ष का क्या है इसकी विवेचना हो रही थी और पार्टी कितनी सीटें ले आएगी यह सब गणित बैठाया जा रहा था। दोस्तों की नजरें अपने-अपने बिलों पर थीं पर वे आगे का पैंतरा ले रहे थे। कह रहे हैं कि सरकार अपनी ही बनेगी और आखिर इतने बड़े विपक्षी नेता को हराने वाले विकास बाबू को मुख्य मन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल में क्यों कर नहीं लेगा? उसके बाप को भी लेना पढ़ेगा। विकास बाबू सुन सब रहे थे पर समझ कुछ नहीं पा रहे थे। मन हीे मन अपने इष्टदेवता को याद कर रहे थे। बाथरूम में नहाने का पानी ठण्डा हो रहा था और बिल है कि बढ़ते ही जा रहे थे। उनको लगा कि एक चीख मारकर सभी को कमरे से बाहर निकाल दें, पर मतदान निकट आ रहा था। पार्टी की पराजय और विजय का मुद्दा सामने था। काम इन्हीं लोगों से लेना है। 

उन्होंने पहले बिल पर दस्तखत देखा, रमेन्द्र बिहारी का हस्ताक्षर था। रात-दिन विकास बाबू की जीप में ठँसा रहने वाला रमेन्द्र इतना बड़ा बिल लाएगा यह उनकी कल्पना के बाहर की बात थी। बिल था बूँदी के और मावे के लड्डूओं का। खीजते हुए उन्होंने पूछा, ‘ये लड्डू कौन से हैं?’ ‘आपको जनसम्पर्क के दौेरान आठ जगहों पर लड्डुओं से तोला गया था। ये वे ही लड्डू हैं।’ और रमेन्द्र के आसपास बैठे दोस्तों ने उन आठों जगहों का रंगारंग वर्णन शुरु कर दिया। क्या तो भीड़ थी, क्या माहौल था! विरोधियों के चेहरों पर कितनी बेनूरी थी!’ ‘पर मैं तो समझ रहा था कि जहाँ-जहाँ आपके उम्मीदवार को लड्डुओं से तौेला गया वे सारे लड्डू उन स्थानों में मतदाताओं ने अपने पैसों से खरीदे होंगे।’ विकास बाबू ने मन खोला।

‘ऐसा कहाँ होता है विकास बाबू! माहौल बनाना पड़ता हैं। यह चुनाव है और पार्टी की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। विरोधी को उत्तर देना जरूरी होता है। उसने अपना तौल चार जगहों पर करवाया। आपका आठ जगह होना हर तरह से जरूरी है गया है।’

चालीस रुपए किलो लड्डू का भाव लगा हुआ था। अस्सी किलो वजन विकास बाबू का। आठ जगह वे तौले गए। हर जगह भारत माता की जय के घनघोर कोलाहल में उन लड्डुओं को आसपास खड़े बच्चों और बूढ़ों ने रस ले-लेकर खाया इस लूट के चश्मदीद गवाह ख़ुद विकास बाबू थे। बन्धु-बान्धव’ एक-एक लड्डू जबरदस्ती विकास बाबू के मुँह में ठूँसते जा रहे थे। स्वाद की तारीफ वे खुद कर चुके थे। मन ही मन हिसाब लगाते हुए विकास बाबू ने सोचा, क्या पता उतने लड्डू खरीदे भी गए या नहीं। दोनों तरफ पलड़ों को पकड़े ये लोग खड़े खींचतान किया करते थे और नारों से कान फाड़ देते थे। अस्सी किलो वाले विकास बाबू दो सेकण्ड में तौलकर भीड़ में धकेल दिए जाते थे। आठों जगहों का नक्षा उनके दिमाग में घूम गया। 

लड्डू के आइटम के ठीक नीचे रकम थी आठ सौ रुपए की। विकास बाबू ने पूछा, ‘यह कौन-सा खर्च है?’ कनपटी को गर्म करता हुआ उत्तर आया, ‘आठों जगह तौल के जो तराजू काँटे लगाए गए थे यह उनकी रकम है।’ ‘तराजू काँटे और बाट के भी पैसे?’ विकास बाबू का हलक सूख गया। सारे कमरे में एक रोमांच उठ आया। आह्लाद में भरे रमेन्द्र ने कहा, ‘बाबूजी! ये सारे काँटे उन्हीं व्यापारियों के यहाँ से लाए गए थे जिनको कि आज तक व्यापार में घाटा नहीं हुआ और दीवाला नहीं निकला। चुनाव का मामला है। हर अपशकुनी चीज को अपने से दूर रखने का पूरा एहतिहात बरता गया है। शुभ के लिए शुभ सरंजाम ही जुटाना जरूरी होता है।’ और भारत माता की जय से कमरा एक बार फिर भर गया। 

आगे के बिल विकास बाबू की चीखें निकाल देने के लिए बहुत काफी होते थे। ऐसे ही बिल चावल से तौेल कर उनको गरीबों में बाँटने के, फिर केले से तौलने के, फिर जामफल से तौलने का बिल और फूलों से तौलने के लिए फूल वाले का भारी-भरकम बिल। यह तौल कुल मिलाकर करीब तीस स्थानों पर अलग-अलग हुआ था और इसका सरफाय अलग-अलग बखाना जा रहा था। इस बिल को वे लोग बहुत सस्ता बता रहे थे। फूल बाजार के सारे फूल किस तरह आज के दिन पार्टी वालों ने रिजर्व रखवा कर खरीद लिए और विपक्ष के लिए एक पंखुड़ी भी बाजार में नहीं बचने दी। इस तत्परता को बढ़ा-चढ़ा कहा जा रहा था। विकास बाबू सकते में थे।

उम्मीदवार के नाते विकास बाबू के गले में आज जो फूलहार पड़े उनको विकास बाबू जनता का लाड़-प्यार और भावभीना स्नेह-सत्कार मानकर अपनी जीत का हिसाब मन ही मन लगाते घूमे थे। पर मालाओं और फूल-हारों का बिल उनके हाथ में आया तो उनका सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। उनको अब रात दस बजे के बाद यह पता चल सका कि सारे दिन जो मालाएँ उन्होंने यहाँ-वहाँ जनसम्पर्क में पहनी हैं वे खुद इनके अपने पैसों से खरीदी गई थीं। सारा राज उनके मन देवता ने तब खोला जब वे यह समझ पाए कि उनके आसपास चलनेवाले मित्र, एक बार पहनी माला को साबुत उतारने का आग्रह करके वापस क्यों हथिया लेते थे। अब जाकर बात पल्ले पड़ी कि विकास बाबू ने पूरे शहर में घूम-फिरकर सारा दिन उन्हीं सौ-पचास मालाओं को पहना है। किन्तु बिल, दो हजार फूलमालाओं का विकास बाबू के गले में पड़ चुका था। विकास बाबू ने एक लम्बी साँस खींचकर कोलाहल-भरे आकाश में छोड़ने की कोशिश की। पर साँस तो अटक चुकी थी, छूटती कैसे? 

अब तक विकास बाबू बिलों के चरित्र को पूरी तरह समझ गए थे। उन्होंने अगले बिल को टटोला। यह एक सौ विक्की मोपेडों में भरे गए पेट्रोल का बिल था। पूरे एक हजार लीटर पेट्रोल की कीमत लगी थी। बिल पर इलियास भाई का दस्तखत वे पहिचान पा रहे थे। पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई कि एक ही कि एक ही दिन में विक्की और मोपेड में दस-दस लीटर पेट्रोल कैसे जल गया और इस हिसाब से एक-एक विक्की कितने किलोमीटर चली और एक ही दिन में आखिर इतने किलोमीटर अगर विक्की चलती रही तो फिर कार्यकर्ता जनसम्पर्क कैसे कर पाए? उन्होंने सोचा कि यह पूछा जाए कि विक्की-मोपेड की टंकी में कुल कितने लीटर पेट्रोल आता है। कोई कहता था कि उसके टेंक में दो लीटर से ज्यादा पेट्रोल आ ही नहीं सकता और चलती वह एक लीटर में 60 किलोमीटर तक है। उन्होंने उस भीड़ पर एक नजर मारी। गिनने की कोशिश की कि इनमें से विक्कियाँ किस-किस के पास हैं और यहाँ सौ विक्कियाँ हैं भी या नहीं? पर उनको लगा कि इसका भी कोई न कोई उचित या समुचित जवाब इलियास भाई दे ही देंगे। आखिर सोच-समझकर ही यह बिल बनाया होगा। इलियास भाई बोल ही पड़े, ‘आज सारा दिन इन लोगों ने सड़कों का धुआँ उड़ा दिया। सारे शहर में आप ही की जिन्दाबाद हुई विकास बाबू! क्या नजारा था। जिधर देखो उधर आपके ही झण्डे वाली विक्कियाँ नजर आ रही थीं। शाबाश मेरे शेरों! मार लिया मैदान।’ और फिर जोर का नारा-:विकास बाबू जिन्दाबाद!’

इसके आगे वाले बिल को विकास बाबू ने वैसे ही तह करके पलटा दिया। यह उस गुलाल का बिल था जिसको कि वे सारा दिन खाते और सहते रहे। जो गलियों में उड़ती रही और जमीन-आसमान का रंग बदलती रही। बिल देने वाले से वे खूब परिचित थे। उनका अपना ही आदमी था। अपने व्यापार के लफड़ों को लेकर वह विकास बाबू के लिए राजधानी तक जाने के लिए कारों की व्यवस्था किया करता था। उसने गहरी आत्मीयता से कहा -‘बाबूजी! आज तो बस एक क्विण्टल गुलाल ही उड़ी है, जीत के लिए एक टन गुलाल का आर्डर दे चुका हूँ। चार दिन ही तो बचे हैं। जीत का जुलूस, फिर आपके मन्त्री बनने का जुलूस.....’

वह बोले जा रहा था और विकास बाबू तोले जा रहे थे मन ही मन। भाई ने पूरे साल-भर के लिए गुलाल का गोदाम भर लिया लगता है। गलियों की धूल तक का पैसा विकास बाबू से वसूल किया जा रहा था। वे देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे। चुनाव का मामला नहीं होता तो वे कुछ कहते। पर वे यह मानकर वे चुप लगा गए कि यह वक्त सुनने का है, बोलने का नहीं ।

उनकी पत्नी ने आवाज लगाने की कोशिश की, ‘पानी ठण्डा हो रहा है, नहा लें, फिर दूसरे कमरे में दूसरे गाँव के लोग बैठे हैं। कल वहाँ जनसम्पर्क है। कुछ आराम भी कर लीजिएगा वर्ना थकान से टूट जाएँगे।’ बेचारी को शरीर की चिन्ता खाए जा रही थी। उसे क्या पता था कि विकास बाबू किस थकन से टूटे जा रहे हैं। एक उदास नजर से विकास बाबू ने पत्नी को परे चले जाने का इशारा किया। आया हुआ फोन सुनने के लिए चोंगा उठाया और नजर अगले बिल पर जमा दी। उधर से हेलो की आवाज आती उससे पहले ही कान से लगता-लगता चोंगा नीचे गिर पड़ा। अगला बिल पूरे पचास हजार का था। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। पाँच सौ लोगों के लिए पूरे दिन का मजदूरी का बिल एक सौ रुपया प्रति व्यक्ति के हिसाब से पूरे पचास हजार रुपए चढ़ा हुआ था। अपने समर्पित और निष्ठावान कार्यकर्ताओं और पार्टी तथा विकास बाबू के लिए वक्त आने पर जान लड़ा देने वाले दोस्तों और कार्यकर्ताओं के उस ठसाठस समूह को विकास बाबू ने अपनी कातर दृष्टि से देखा, दयनीय कौन है? विकास बाबू या कि वे सभी लोग? समूह के नेता ने विकास बाबू को समझाया, ‘बाबूजी! इस बेरोजगारी के जमाने में आखिर ये पढ़े-लिखे लोग कम से कम एक दिन का एक सौ रुपया पाने के हकदार तो हैं ही। सारा-सारा दिन आपका झण्डा उठाते हैं, पार्टी के लिए भाटों और चारणों की तरह यहाँ-वहाँ हल्ला करते हैं। वक्त आने पर मैदानों में लड़ते हैं। अपनी इज्जत दाँव पर लगाते हैं। आपको जिताते हैं, पदों पर बैठाते हैं। पाँच साल में यह एक ही दिन आता है जब कि वे लोग भी अपने बाल-बच्चों के लिए कुछ न कुछ रूखा-सूखा जुटा लें।’ ‘यह तो ठीक है पर आखिर ये पाँच सो लोग हैं कहाँ? कौन हैं ये पाँच सौ लोग? मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। उनको बुलवा लीजिए।’ विकास बाबू ने पाँच सौ के नेता से कहा। मुस्कराते हुए नेता ने कहा, ‘चालीस-पचास तो ये आपके सामने ही खड़े हैं। बाकी लोग अपने-अपने मुकामों पर अपने चुनावों की अगली तैयारी के लिए रवाना हो चुके हैं। रात-दिन भाग-दौड़ करते हैं। अब वे गाँवों से पोलिंग के बाद ही आएँगे। पार्टी के लिए मर मिटने वाले लोगों को गिना नहीं जाता विकास बाबू! उनको परखा जाता है। चुनाव आप नहीं वे लोग लड़ रहे हैं। यह उनकी आबरू का चुनाव है। पाँच साल तक उनका गाँवों में बैठना है। आप तो जीतने के बाद पता दर्शन देंगे भी या नहीं।’

उस ऊर्जावान नेता का भाषण विकास बाबू की नसें निचोड़ रहा था। वे मन ही मन सोच रहे थे कि समर्पण और निष्ठा का मूल्य आज कितना और कैसा हो गया है। पाँच सौ कार्यकर्ता अगर मेरे पास हैं तो फिर यहाँ संघर्ष ही किस बात का बचा? पर गणित उनके बूते के बाहर का मामला था। सारा खेल आज इस नेता के हाथ में था जो अपने बिल का भुगतान लेने के लिए अपने रामपुरी चाकू को इस जेब से उस जेब में दिखा-दिखाकर रख रहा था। वह सारा दिन विकास बाबू के साथ गली-गली में पैदल चला था। नारों को उछालने में उसका जोश देखने लायक था। भीड़ को नियन्त्रित करता हुआ वह किसी सेनानी से कम नहीं लग रहा था। विकास बाबू को वे सारे दृश्य तरह-तरह से याद आने लगे जबकि फूलहार करने वाले लोगों ने जगह-जगह उस नेता को भी मालाएँ पहनाई थीं। कई जगहों पर तो विकास बाबू से भी पहले उसे माला पहनाना जरूरी लग गया था। 

कमरेे में सन्नाटा था और उस सन्नाटे को कौन तोड़े यह रहस्य गहराता जा रहा था। इस सन्नाटे को तोड़ा भी उसी ने। अपने एक साथी से कहा,  ‘अरे वह अखबार बता विकास बाबू को जिसमें लिखा है कि पार्टी से कितने लाख रुपए इस चुनाव के लिए विकास बाबू को मिला है।’ और उधर से तुड़ा-मुड़ा वह अखबार विकास बाबू के सामने फैलता उससे पहले ही वह फिर बोला, ‘विकास बाबू! पैसा कौन-सा आपकी जेब से जा रहा है? पार्टी ने आपको दिया है। आप इन इन लोगों के बच्चों तक रोटी का एक कौर पहुँचा दो। यह चुनाव है और चुनावों में बिलों को ऑडिटर साहब की तरह जाँचना-परखना आपको शोभा नहीं देता। पानी ठण्डा  हो रहा है और आपको कल के, अगले शहर में जनसम्पर्क करने की तैयारी करनी हैं। शहर की सजावट और झण्डों वगैरह का बिल, बादवाले बिलों में लगा ही हुआ है।’ 

विकास बाबू ने आँख मूँदी। दीवार पर सिर टिकाया। लोगों को लगा कि वे बिलों का टोटल लगा रहे हैं। हाँ! विकास बाबू कुछ बुदबुदा रहे थे। पाँच सौ कार्यकर्ताओं के नेता ने सभी को आदेशात्मक अन्दाज में कहा - ‘जाओ! जाओ!! तुम लोग अपनी तैयारी करो। विकास बाबू को नहाने दो। बिलों का भुगतान लेकर मैं आता हूँ। इस चुनाव को हमें पूरी ताकत से लड़ना है। विकास बाबू की जीत हमारी अपनी जीत होगी। सवाल पार्टी-वार्टी का चलता रहता है। आज हम सभी की इज्जत दाँव पर लगी पड़ी है। जान लड़ा देना और मार खाकर आना मत। विकास बाबू जिन्दाबाद। चलो जाओ।’ कमरा खाली होने लगा। उसने चाकू को उस जेब से इस जेब में रखा। कमर में बँधा रिवाल्वर सामने पड़े फूलमालाओं के छोटे-से ढेर पर रखा और विकास बाबू से कहा, ‘बाबूजी! आप नहा लीजिए। आपका पानी ठण्डा हो रहा है। मैं यहीं इन्तजार कर रहा हूँ।’
विकास बाबू को खड़ा होना ही था। वे चुनाव में जो खड़े हुए थे। सचमुच उनका पानी ठण्डा हो रहा था।
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कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।


 


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