श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की तीसरी कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
‘रेत के रिश्ते’
की तीसरी कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
साबित करो
हर दिशा में मावसों की डोलियाँ
हर दिशा में तम
घने तम के तनावों की
ठठाती बदतमीजी।
दूर ही क्या
दूर गहरे दूर से जो
गुनगुनाहट आ रही है
वह अगर तुम समझ लो तो
स्पष्ट ही षडयन्त्र है
निर्लज्ज या निर्द्वन्द्व
उन नंगे कहारों का
जो कि मावस को तुम्हारे आँगनों तक ही नहीं
आराधना-गृह तक बिराजित कर
तुम्हारे गिर्द फिर
खुशियाँ मनाना चाहते हैं।
चूँकि तुम कितने विवश हो
इस अँधेरे में समूची जिन्दगी का
तन्तु-तन्तु तोड़ करके
इस तरह अपमान के परिवेश में
मौत की सड़ती सियाही में सिसकने के लिए!
जो यही है जिन्दगी तो तुम जियो
और जो पौरुष कहीं कुछ शेष हो तो
नोच नंगे कहारों की शिराएँ
और उनके रक्त को छक कर पियो!
याद रक्खो
तम कभी भी द्वार तक यूँ
खुद-ब-खुद आता नहीं है,
क्योंकि तम आकाश का अन्धा सखा है
ठोस धरती से अँधेरे का
कभी नाता नहीं है!
सिर्फ तुम तो
आज यह साबित करो
कि तुम धरा के पुत्र हो
और यह जो है धरित्री माँ तुम्हारी
वह सनातन ठोस है।
-----
संग्रह के ब्यौरे
रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
-----
बहुत ही सुन्दर सृजन पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार ।
ReplyDelete