मनुहार भाभी (‘मनुहार भाभी’ की नौवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की नौवीं कहानी



मनुहार भाभी  

मनुहार भाभी से कह दिया था, कि आप पर मैं एक अच्छी कहानी लिखूँगा भाभी। मेरी इस बात को जब-जब भाभी मिलतीं, तब-तब याद दिलातीं। पूछतीं, ‘कब लिख रहे हो?’ फिर, एक कदम और आगे बढ़कर, वे नटखट मुस्कान के साथ कहतीं, ‘उस दिन तो कह रहे ये, कि भाभी आप हो तो कविता के लायक, पर चलिए आप भी क्या याद करेंगी, आप पर मैं कम-से-कम एक कहानी जरूर लिख दूँगा।’

भाभी जब भी यह बात याद दिलातीं, तब मुझे अपने वे दिन याद पड़ते थे, जबकि वाकई भाभी कविता के लायक हुआ करती थीं। वैसे गहरे से देखो, तो मनुहार भाभी आज भी कविता के लायक सूरत-शक्ल और मनोलोक रखती हैं। पर समय के साथ-साथ उनके चेहरे पर से कविता कहीं गुम होती लग रही है। अब वे दिनांेदिन सचमुच कहानी के लायक उभर रही हैं। नाक-नक्श, शरीर की गोलाइयाँ, जिस्म के कटाव और सबसे ऊपर, उनकी खनखनाती हँसी। यानी कि भाभी बस भाभी ही हैं। पता नहीं भैया ने उनका नाम ‘मनुहार’ क्यों रख दिया? एक जमाना रहा होगा, जब भैया से भाभी ने तरह-तरह की मनुहारें करवाई होंगी।

ठसका आज भी भाभी का वही है। अगर जिद पर आ जाएँ तो बस फिर सामने भगवान ही क्यों न आ खड़े हों, वे अपनी बात पर टस से मस नहीं होंगी। बेशक ऐसा कभी-कभार ही होता है। दिल उनका खुला और बातचीत में बोलने की अदा कुछ इस तरह की, कि अनजाना आदमी भी कह बैठे, ‘मनुहार भाभी, एक बार और कह दो ना इस बात को।’ चुहल करने में भाभी कभी पीछे नहीं रहीं। पर भैया की लगाम इतनी कसकर खींचे हुए हैं, कि मजाल, कहीं परिंदा भी पर मार जाए। भैया अक्सर लुक-छिपकर एकाध चौका या छक्का इधर-उधर मारने के लिए बल्ला उठाते भर हैं, कि मनुहार भाभी का दिल विशेष तौर से धड़कने लगता है। वे समझ जाती हैं, कि अब ये अपना खेल खेलेंगे। बस शुरु हो जाती हैं। भैया की बेटिंग धरी रह जाती है। इस खेल में बॉलिंग करने वाली का नाम मनुहार भाभी डंके की चोट चिंघाड़ कर बता देती हैं। कभी-कभी, दीवारों को चीरती हुई भाभी की तल्ख आवाज, भैया की बैठक तक आ जाती है-‘हिनहिनाने की कोशिश मत करो। कुरते के रंग से ही जान जाती हूँ, कि आज आप किस कनेर का फूल तोड़ने चले हो।’ और भैया? बस जहाँ के तहाँ हथियार डाल देते हैं।

जब मेरी एक दर्जन से ज्यादा कहानियाँ यहाँ-वहाँ छप गईं और मनुहार भाभी को उनमें कहीं भी अपने व्यक्तित्व का आभास नहीं हुआ, तो बस वे झल्ला पड़ीं। अपने काम-काज में लगा मैं जब उनके यहाँ जाने-आने में देरी करने लगा तो भाभी ने डाकिए का सहारा लिया। अक्सर दो-चार दिन में ही उनका एक न एक खत मिल जाता। पहले-पहले तो वे लिफाफे लिखतीं। दो-चार लिफाफों के बाद वे अन्तर्देशीय पत्र पर उतर आईं, और इन दिनों तो उन्होंने बिल्कुल पोस्टकार्ड लिखने शुरु कर दिए। एकदम खुले। जिसे विदेशी भाषा में कहें कि ‘नेकेड पोस्टकार्ड’ और अपनी बोली में कहें कि ‘नंगे कारट’। कुशलक्षेम के बाद भाभी का यही आग्रह कि ‘इतना छपते-छपाते हो, अपना वादा कब याद करोगे? वचन-भंग के दोषी हो जाओगे, तो नर्क में जाओगे। मैं सब समझती हूँ कि तुम्हारी उस कहानी में कौन चुड़ैल खिलखिला रही थी। उठाओ कलम और इस बार लिखो अपनी मनुहार भाभी पर बढ़िया-सी कहानी।

हालत मेरी यह बनी कि इधर वाले दिनों में ज्यों ही मुझे पोस्टमेन नजर आता, कि मैं बस सिहर-सिहर जाता। हो न हो इस पुलिन्दे में मनुहार भाभी का खत जरूर होगा। मेरा अनुमान शायद ही कभी गलत निकला हो। परेशानी तो मुझे तब होती, जब चिट्ठियाँ देते समय यदा-कदा पोस्टमैन मुस्करा कर कहता, ‘लीजिए सर, आपकी डाक।’ अपराध-बोध से भरा हुआ मेरा मरा मन, मेरे कान में चुपचाप फुसफुसा देता, ‘हो न हो, भाभी का खत इस लफंगे ने पढ़ लिया दिखता है। वर्ना यह इस तरह मुस्कराता क्यों?’ महीने में दस-बारह दिनों का यह सिलसिला हो चला था। कभी मैंने सोचा भी, कि पोस्टमेन से पूछूँ कि ‘भाई! तुम खुले खत पढ़ते क्यों हो?’ पर फिर दूसरा डर लग जाता, कि कहीं यह मना कर दे और कोई ऐसा जवाब दे बैठे, कि रोमांच का रंग ही बदल जाए। इस चक्कर में पोस्टमेन को मैंने दो-एक बार चाय पीने का आग्रह किया। उसने मना कर दिया। गर्मियों को देखते हुए उससे ठण्डे पानी का पूछा। वह टाल गया। किसी त्यौहार पर मिठाई की प्लेट थमाने की गरज से रोका। वह खिसक लिया। जाते-जाते कह गया-‘सर! यह सब हमारी नौकरी के नियमों के खिलाफ है, धन्यवाद।’

आज फिर मनुहार भाभी का वैसा ही खत आया है। मैंने मन-ही-मन अपनी सरस्वती माता को याद किया और दो-एक दिनों के लिए जरूरी कपड़े  सूटकेस में रखे और चल दिया भैया के शहर को। तय कर लिया था कि इस यात्रा में मनुहार भाभी का यह कर्ज उतार कर ही लाटूँगा।

वही हुआ जिसका मुझे अनुमान था। भाभी ने मुझे हाथों-हाथ लिया। भैया बहुत खुश हुए। बच्चे अपने चाचा को सामने पाकर बाग-बाग हो गए। सारा घर एक नई चहल-पहल और धमा-चौकड़ी से भर गया जैसा लगा। भैया ने भुजाओं में भर लिया। उनका भाई एक नवोदित लोकप्रिय कहानीकार जो बन चला था! भाभी ने फब्ती कसी-‘हाय! बाँहें तो मेरे पास भी हैं, पर कसावट शायद आपसे हटकर है, इसलिए सोचती हूँ कि आप इन प्रख्यात कहानीकारजी को छोड़ो, तो मैं भी इन्हें इतने दिनों तक मेरे खतों का जवाब नहीं देने और आज तक अपना वादा पूरा नहीं करने की जरा सी सजा दे दूँ।’ और भाभी की खिलखिलाहट से सारा माहौल भर गया। आसपास से पड़ोसी भी दरवाजे पर आकर खड़े हो गए-वे अपने प्रिय कहानीकार को नई नजर से देख रहे थे। भाभी ने मुझे सादर बैठाया और करीब-करीब अवाक् कर दिया, जब चाय की ट्रे में वे चाय के बदले एक फाउण्टेन पेन, कोरे कागजों को कसे हुए लिखने की दस्ती और टिकट लगा एक लम्बा लिफाफा रखकर, मेरे सामने नटखट अन्दाज में खड़ी हो गईं। मैंने पूछने की कोशिश की-‘भाभी, यह क्या?’ वे पूरी अल्हड़ता के साथ बोलीं, ‘कोरे कागज लिखने के काम आते हैं। कलम से लिखा जाता है। लिफाफे पर उस अखबार का पता लिखना होगा, जिसको कि आप मुझ पर लिखी कहानी पोस्ट करेंगे और डाक टिकट लगा हुआ है ही। लेखक महोदय, आज की रात है और आप हैं। सुबह तक कहानी तैयार हो जानी चाहिए वर्ना.......!’

यह तो भला हो भैया का, जो बीच-बचाव पर आ गए वर्ना भाभी न जाने क्या सजा तजवीज किए बैठी थीं। मैंने यह कहकर पीछा छुड़ाया कि ‘भाभी! मेरी यह यात्रा है ही इस निमित्त। मैं अपनी मनुहार भाभी पर इस बार कहानी लिखे बिना नहीं जाऊँगा।’

भैया से खूब गपशप हुई। बच्चों से खूब चोंचें लड़ीं। और भाभी से न जाने कहाँ-कहाँ का, न जाने क्या-क्या पुराण-पोथा सुना। थका-माँदा था ही। सारी रात जम कर सोया। 

सुबह जब नींद खुली तो आकाश में धुंध थी। भाभी बहुत पहले ही उठ गई होंगी, ऐसा अन्दाज आसानी से लगाया जा सकता था। भैया अपनी बैठक में कुछ डाक निपटा रहे थे। बच्चे सोये हुए थे। शायद भैया की चाय हो चुकी थी। भाभी खिड़की में से बाहर झाँक कर, हल्के से सुरों में कुछ बुदबुदा रही थीं। कुल्ला वगैरह करके मैंने भैया के कमरे में बैठकर चाय पीने का उपक्रम किया। भाभी चाय का प्याला हाथ में लेकर बड़बड़ाती हुई ही भीतर आईं। मैंने कहा ‘राम का नाम लो भाभी! अभी तो सवेरा भी नहीं हुआ और आप हैं कि.....’ और मुझे लगा कि मैंने भाभी की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। झल्लाकर, करीब-करीब खीजते हुए बोलीं, ‘दिन-भर में पता चल जाएगा कि कहाँ साँस ले रहे हो।’ शाम को पधारे थे, और रात को आराम से सो गए अब सारा दिन देखना इस नरक को। लाख बार समझाया था इन महाराज को, कि मत बनाओ यहाँ मकान। पास वाले शहर में बना लेंगे। पर बाप-दादा की जमीन और पुरखों का बखान। मर गई मैं तो। मेरा बस चले तो इस मकान को आज इसी वक्त बेच दूँ। पर कोई मरा इसे लेने की हिम्मत भी तो नहीं करता! किसके पास है आज इतना नम्बर एक का रुपया, जो इस मकान को खरीद ले! और खरीदेगा तो करेगा भी क्या?’

मैं अचकचा कर देखने लगा, कि आखिर बात क्या है। भैया मुस्करा रहे थे। भाभी थीं कि बोले जा रही थीं--“अब देखो, दिन निकला नहीं कि ये गाँव-भर के ट्रेक्टर वाले इसी रास्ते से, अपने खेतों को जाएँगे। सामने ही रखा है यह उस नारायण का ट्रेक्टर। वार-त्योहार ही स्टार्ट होता है। सारा कुनबा धक्का लगाने के लिए जुटेगा। तरह-तरह का हल्ला करेंगे। आते-जाते लोग शामिल हो जाएँगे। ट्रेक्टर बनाने वाली कम्पनी को लाख तरह की माँ-बहन की गालियाँ देंगे और जब तक स्टार्ट नहीं होगा, मेरी जान खाते रहेंगे। जब भी यह लोहे का रावण चालू होगा तो मेरा सारा कमरा डीजल के धुएँ से भर जाएगा। रोज कहती हूँ कि नारायण देवता, इस रावण को अपनी लंका में ले जाकर धक्का-मुक्की करो। पर.......।’ और बाहर के हल्ले में सचमुच मनुहार भाभी का सुर छटपटा कर खो गया। अभी तो ट्रेक्टर स्टार्ट हुआ भी नहीं था।

मैं चाय का घूँट लूँ, तब तक भाभी ने खिड़की की दूसरी ओर इशारा किया। देखा कि वहाँ एक पुरानी खटारा जीप खड़ी है। भाभी कहने लगीं, ‘यह इस रावण की भी माँ है। पड़ोसी राठौर साहब ने इसे मेरी जान लेने के लिए खरीदा है। जिस दिन इसे खरीदा, उस दिन राठौरन बाई आई थी मेरे पास। कहती थी, कहती क्या इतराती थी कि पूरे पैंसठ हजार में खरीदी है। दूसरे ही दिन पता चल गया कि जीप की औकात क्या है। जब ट्रेक्टर स्टार्ट हो जाता है, तो मुहल्ले वाले इस जीप से कुश्ती लड़ते हैं। अंजर-पंजर जगह-जगह से बोलते हैं। डीजल मिलता नहीं है। थोड़ा-बहुत टंकी में पड़ा है। वह धक्कों में यहाँ-वहाँ हो जाता होगा। जिस वक्त ये स्टार्ट हो जाती है धक्का देनेवाले लोग बिलकुल सामने, उस भेरू की होटल पर बैठ जाते हैं। सारे मुहल्ले को नारायण और राठौर साहब चाय पिलाते हैं। स्टार्ट ट्रेक्टर और जीप धुआँ उड़ाते, आधा-पौन घण्टा घर्र-घर्र करते, ठीक खिड़की के माथे पर खड़े रहते हैं। बताओ भैया.....’ और मुझे लगा, कि मनुहार भाभी की बात में कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं थी। सारे घर में डीजल का धुआँ भर ही गया था। बड़ी सुबह भेरू की होटल पर चाय पीने वाले भाई लोग, जिस भाषा में बात कर रहे थे, उसके आदी न तो मेरे कान थे, न इस घर के बाल-बच्चों के संस्कार।

अभी मैंने दो-एक ही घूँट लिए थे। भैया टेबल पर सिर झुकाए शायद कुछ लिखने में लगे थे। वे बिल्कुल चुप थे। पर भाभी कहाँ चुप रहने वाली थीं। फिर शरु हो गई-‘मुझे जरा गहरे से देखो और बताओ, क्या मैं वही मनुहार हूँ जो जब इस घर में आई थी? लोग मुझ पर कविताएँ लिखते थे। जिस मुहल्ले से निकल जाती, वहाँ लोग अपना काम छोड़-छोड़कर मुझे देखने के लिए बाहर निकल आते थे। यह मकान क्या बनाया, मैं तो बस नरक में फँस गई। न वक्त पर नल चलता है न पानी आता है। सारे रास्ते की धूल, पता नहीं किन-किन दराजों में से छन-छनकर बिस्तर तक में आ जाती है। झाड़-झाड़ कर मैं आधी रह गई हूँ। जो रास्ता नगर-पालिका के रिकार्ड में डामर का लिखा हुआ है, उसकी कितनी धूल मेरे बच्चे और मेहमान चाय में पीते हैं। आप खुद इस समय क्या पी रहे हैं? क्या आपको स्वाद में धूल नहीं टीसती?’ और सचमुच मैं चौंक गया। चाय वाकई रोज की तरह नहीं थी। उसका स्वाद कुछ कसैला-सा था जरूर। मेहरबानी थी भाभी की, कि पूछ बैठीं, ‘एक और बढ़िया-सा प्याला बनाने की कोशिश करती हूँ। पहले इसे पी लो।” मैं भैया से बात करने का मन बनाकर चाय को सुलटाता रहा। भाभी दूसरा गरम प्याला हाथ में लिए पाँच-एक मिनट में ही आ गईं। झरने की तरह उनकी व्यथा झर ही रही थी। बोलीं, ‘ज्यों-ज्यों सूरज चढ़ेगा, त्यों-त्यों इस नरक का कष्ट भी बढ़ेगा। थोड़ी देर में सत्संग वालों का लाउड स्पीकर, ठीक सामने वाले बाड़े में, पूरी ताकत से बजेगा। न मैं पूजा-पाठ कर सकती हूँ न राम का नाम ही लेे सकती हूँ। बच्चों का होमवर्क गया भाड़ में। सत्संग जरा-सा थमेगा, कि दक्षिण दिशा के गाँवों से आने वाले स्कूटर, लूना, मोपेड और मोटर साइकलों के भनभनाते भन्नाटेदार दौर शुरू होंगे। दस आएँगे, बीस जाएँगे। आम रास्ता जो ठहरा। किसको रोको और कौन सुने! सारा दिन ये लोग माथा खाते रहते हैं। तीन बजते-बजते मन करता है, एक-आध चाय तसल्ली की पी लें। शाम होने को आई है, पर तभी मक्का के फूले बेचने वाला अपना ठेला लेकर, ठीक दस्वाजे पर खड़ा हो जाएगा। अरे भाई! तेरा पॉप कार्न, तेरे फूले बेचने हों तो शान्ति से बेच। पर सारे मुहल्ले को इकट्ठा करने के लिए अपना टेप रिकॉर्ड तो कलेजाफाड़ आवाज में मत बजा। पर वो भला किसकी सुने! जनता का राज है। सड़क-चौराहे किसी के बाप के तो हैं नहीं। दिन ढले कुछ चैन पड़े तो पड़े। पर तब भी इस छोटे से गाँव में कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ, किसी-न-किसी के घर होता ही रहता है। खुशी मनाने के अपने-अपने ढंग हैं। ना करो तो भी कितनी? सभी से मन का लगाव है, सो न्यौते-बुलावे आते ही रहते हैं। महीने में पाँच-सात दिन आज उसके यहाँ कथा, कल उसके यहाँ जागरण। ये भी हों तो कोई बात नहीं। पर यह सब होता है लाउड स्पीकरों पर। बिना लाउड स्पीकर के न तो पण्डित बोल पाता है न भगवान सुन पाता है। गनीमत है कि कल की रात जरा शान्ति थी और हुसैन का थ्रेशर भी किसी दूसरे मुहल्ले में चल रहा था। पता नहीं आज क्या होगा।’ और इतना बोलते-बोलते मुझे लगा कि मनुहार भाभी की सहजता कुछ लौटने लगी है। वे कुछ हल्की हुईं। मैंने सोचा, कि हो न हो यह भाभी का रोज का रूटीन है। वर्ना भैया कुछ बोलते ही। पर भैया की चुप्पी और भाभी का सतत् बोलते रहना, शायद दिनचर्या का सहज हिस्सा है। मैं चाय पीता रहा।

तभी किचन में से भाभी की आवाज आई-‘सुनिए कहानीकार महोदय! आज का सारा दिन इस काँय-काँय, भाँय-भाँय से आप नजरें चार कर लो और रात को जब मैं भागवत पढ़ने बैढूँ तो मेरे साथ भागवत का एक अध्याय मनोयोग से चुपचाप सुन लो। और उसके बाद चाहे धरती हिले या आकाश फटे, मुझ पर रात भर में कहानी तैयार हो जानी चाहिए, वर्ना......’ और भाभी की आवाज नए सिरे से खाँसी में खो गई। ट्रेक्टर और जीप का धुँआ, शायद रसोईघर में घुसकर, भाभी को परेशान कर बैठा था।

मैंने स्नान-ध्यान से खुद को आश्वस्त किया। यहाँ-वहाँ के लोग भैया से मिलने आते-जाते रहे। हल्का-सा नाश्ता किया और दोपहर के भोजन के बाद हम दोनों भाई, जरा देर आराम करने के बाद, एक मित्र के यहाँ चाय पीने चले गए। भैया का मेरे प्रति प्यार और गौरव इस बार कुछ ज्यादह ही मुखर था। वे इस छोटी-सी बस्ती में मुझे जिधर से भी लेकर निकले, उधर ही लोगों ने चाय आदि के लिए हमें रोका। हम लोग इस तरह घूमते-घामते शाम की चाय भी भैया के एक मित्र के यहाँ पीने के बाद यही कोई सात-साढ़े सात बजे घर पहुँचे। भाभी शाम के भोजन की तैयारियों में व्यस्त थीं। हाथ-मुँह धोकर हम लोग कुछ हल्के हुए। मुहल्ला अपेक्षाकृत कुछ शान्त था। भाभी सच ही कहती थीं, सारा दिन घर में रहना वास्तव में एक नरक भोगना था। जनजीवन और कोलाहल का आलम भाभी ने कुछ कम ही बखाना था। दिन में सामने वाली होटल पर मुहल्ले-भर के आपसी झगड़े जिस संस्कृति का सृजन करते रहे, उसके लिए मेरे पास शब्द भी नहीं थे। मैं मन-ही-मन सोच रहा था कि जल्दी ही इस यातना से पीछा छुड़ाकर अपनी दुनिया में लौट जाऊँ।

भाभी ने खाना लगाया। भैया की जिद थी कि बच्चों को खाना खिला दिया जाए, फिर हम तीनों साथ ही खाएँगे। भाभी की आँखों में एक चमक आ गई। उन्होंने बच्चों को पहले खाना खिलाया। उनको उनका होमवर्क करने का निर्देश दिया और हम तीनों की थालियाँ लगाकर, वे भी हमारे साथ ही खाना खाने बैठ गईं। मनुहार भाभी के चेहरे पर इस समय गृहलक्ष्मी वाली रौनक थी। जैसा कि हमेशा हुआ है, खाना आज भी बहुत स्वादिष्ट था। आधा खाना होते-होते भैया ने कहा, ‘मनुहार! तुम्हारे कहानीकार देवर का आना शुभ हुआ। मुबारक हो।’ भाभी तो चौंकीं ही, मैं भी चौंक पड़ा। एक ही पल में मैंने सारे दिन की दिनचर्या को जाँचा-परखा। वैसा तो कुछ भी नहीं था जैसा भैया कह रहे थे। भाभी ने हाथ का कौर मुँह में लेते हुए पूछा, ‘कोई शुभ समाचार?’

‘हाँ।’ भैया बोले।

‘क्या है? बताओ। कंजूसी क्यों करते हो?’ भाभी करीब-करीब चहक-सी रही थीं।

‘कुछ नहीं,’ भैया कहने लगे, ‘अभी शाम को बाजार में वो बापू दादा मिल गए थे।’

‘तो?’ भाभी कुछ अचकचा-सी गईं, ‘क्या बात है? कहते क्यों नहीं?’

‘बात-वात क्या है? वे अपना यह मकान खरीदने को तैयार हैं। कीमत भी मुँह-माँगी।’

और मुझे लगा कि कोई बिजली-सी कड़क गई है। मनुहार भाभी के नथुने फूले हुए थे। माथे पर पसीना झलक आया था। दाल की कटोरी पर भाभी के पंजे की पकड़ सख्त हो चली थी। वे करीब-करीब काँपने-सी लगीं। काँप क्या रही थीं, गुस्से से थरथरा रही थीं। करीब-करीब रोते हुए बोलीं, ‘इसीलिए मुझे साथ खाना खाने बैठाया था? क्यों मेरा अन्न जहर कर रहे हो? एक दिन तो चैन से दो गस्से खा लेने दो। क्या बिगाड़ा है मैंने आपका?’

मैं कभी भैया को देख रहा था, कभी मनुहार भाभी को। सारा दिन में खुद भैया के साथ था। न कोई बापू दादा मिले, न मकान बेचने का कहीं कोई प्रसंग ही चला। पर मुझे कोई बोलने दे तो मैं बोलूँ ना! भाभी मेरी तरफ देखते बोलीं, ‘आपने किसी चिड़िया को घोंसला बनाते हुए कभी देखा है? एक-एक तिनका न जाने कहाँ-कहाँ से वह चुनती है। उसका मरद तो नापा करता है आकाश को। मैंने इस घर को तिनका-तिनका चुनकर बनाया है। आ तो जाए वो बापू दादा मेरा मकान खरीदने! अगर खून नहीं पी लिया तो मेरा नाम मनुहार नहीं। इसकी ईंट-ईंट पर मेरा पसीना अभी तक गीला है। ये बेचने वाले होते कौन हैं मेरे मकान को? बनाऊँ मैं और बेचें ये? अरे खुद बनाओ और बेचो? क्यों मेरी जान लेने पर तुले हो?’

भैया खामोशी से खाना खाते रहे। मैं निवालों को जैसे-तैसे गले से नीचे उतारने की कोशिश करता रहा। भाभी आधा खाना भी शायद ही खा सकी थीं। थाली को प्रणाम करके उन्होंने उसे एक तरफ सरका दिया। वे सिसकती-सिसकती उठीं और बच्चों के कमरे में चली गईं। मुझे लगता था, कि वे मुझसे एकाध चपाती लेने को कहेंगी। साग-सब्जी को पूछेंगी। पर वैसा कुछ नहीं हुआ। भैया ने जरूर कहा कि ‘सब कुछ सामने पड़ा है। भरपेट खा लेना। कोई परोसने वाला तो है नहीं।’

रात-भर मैं तो सो नहीं सका। नींद आने का सवाल ही नहीं था। मुझे पता था कि रात वाला पूरा वाकया गलत ही नहीं, सरासर झूठा था। आधी रात मेरा मन हुआ, कि एक बार भैया को जगाकर पूछूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। बिना किसी बात के इतना बतंगड़ क्यों बना दिया? पर फिर लगा कि यह समय विषम है, अनुकूल नहीं है। चुपचाप सो जाओ। जो कुछ होगा सवेरे देखा जाएगा। जब बिल्कुल ही नींद नहीं आती लगी, तो मैं भाभी की दी हुई दस्ती और कलम लेकर बैठ गया।

सुबह फिर वैसा ही क्रम बना। मैं चाय पीने भैया के कमरे में गया। मनुहार भाभी पहले दिन की ही तरह चाय लेकर आईं। रात में शायद वे भी नहीं सो पाई थीं। नींद की खुमारी उनकी आँखों के पपोटों में भरपूर थी। उन्होंने चाय की ट्रे मेरी ओर बढ़ाई। मैंने चाय का प्याला उठाने से पहले उनकी ट्रे में वह दस्ती रख दी। कई कागज लिखे हुए थे।

भाभी ने केवल कहानी का शीर्षक देखा -‘मनुहार भाभी’। एक उदास-सी मुस्कुराहट के साथ बोलीं, ‘सचमुच?’

‘पहले पढ़ लो, उसके बाद सवाल करना।’

यह भैया की आवाज थी।
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‘मनुहार भाभी’ की आठवीं कहानी ‘हरिया बाबा’ यहाँ पढ़िए।

‘मनुहार भाभी’ की दसवीं कहानी ‘बुड्ढी पुलिया’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032




रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

 

 


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