श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की पाँचवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
‘रेत के रिश्ते’
की पाँचवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
सनातन कर्म
कितना बदगुमान है अँधेरा
कि
रोज बढ़ा कर अपना घेरा
धौंस देता है मुझे
और डाँट कर पूछता है
‘कहाँ है तेरा सवेरा?’
और मैं कहता हूँ
‘बुलाऊँ सवेरे को?’
तो फिर ये छोटा करके उस घने घेरे को
अपने पिता पश्चिम को पुकारता है
चीखता है सहायता के लिये
मैं पूरब की ओर मुँह भर करता हूँ
कि ये भाग चलता है
और इसकी कायरता पर
सूरज मेरा भाई
दिन भर जलता है
सनातन है अँधेरे से मेरी लड़ाई।
इसमें जो मेरा साथ दे
उसे हार्दिक बधाई ।
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‘रेत के रिश्ते’ की छठवी कविता ‘निरीह’ , सातवीं कविता ‘आश्चर्य’, आठवीं कविता ‘प्रमाद’ और नवमी कविता ‘बेहतर’यहाँ पढ़िए
‘रेत के रिश्ते’ की दसवीं कविता ‘ठीक-ठीक नाम’ यहाँ पढ़िए
संग्रह के ब्यौरे
रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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बहुत-बहुत धन्यवाद। कल का अंक अवश्य देखूँगा। 'चर्चा अंक' में एक साथ कई ब्लॉग देखने को मिल जाते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन सृजन!
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteबैरागी जी की अनुपम कृति को पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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