श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की पहली कहानी
समर्पण
इन कहानियों में बैठे-बोलते-बतियाते
सभी पात्रों को, जो कि मेरे आस-पास
ही मुझपर नजर रखे देख रहे हैं-
सादर, सस्नेह।
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कृपया! बतिया लें मेरे पात्रों से
‘बिजूका बाबू’ मेरा दूसरा कहानी संग्रह है। आप तक इससे पहले मेरा कहानी संग्रह ‘मनुहार भाभी’ शायद पहुँचा होगा। उन कहानियों पर पाठक संसार का स्नेह-वर्षण मुझे ‘धनी’ बनाता जा रहा है। धनी का तात्पर्य ‘स्नेह-धन’ से ही लें। कृपा होगी।
पाठकों ने पूछा है, सो में बता रहा हूँ कि मेरी कहानियों के सारे पात्र मेरे आस-पास सजीव, सशरीर और साकार हैं। परिवेश तो परिचित है ही। कई कहानियाँ संस्मरणवत हो गई हैं। इस संग्रह में भी एक या दो कहानियाँ संस्मरण श्रेणी की हैं। दो-चार पात्र इन कहानियों के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के बाद मिले और मुझसे लड़े भी। ऐसी कहा-सुनी की परिणति नई प्रेरणा और नई कहानी में हुई। वे मेरे पाठक भी रहे और प्रशंसक भी। एक-दो पात्र अब दुनिया में नहीं हैं, किन्तु उनके परिवारों में इन कहानियों की कतरनें सुरक्षित हैं।
दैनन्दिन दिनचर्या में कुछ लोग, कुछ प्रसंग, कुछ क्षण ऐसे आ जाते हैं कि उन्हें लिखे बिना रहा नहीं जाता। यह वैसा ही स्फुरण है। हाँ, समय- समय पर ये सभी कहानियाँ यत्र-तत्र प्रकाशित जरूर हो चुकी हैं। अप्रकाशित एक भी नहीं।
अपने लिखे को प्रकाशित करने-करवाने में मैं स्वयं के प्रति बहुत आलसी और लापरवाह रहा हूँ। तब भी दो दर्जन से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तकें छप-छपा गईं।
उन पात्रों का मैं ऋणी हूँ जो कि इन कहानियों में सादर बैठे बतिया रहे हैं।
मुझे प्रसन्नता होगी, यदि आप इन पात्रों से पाठकीय संवाद स्थापित कर सकें।
मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
मेरी कलम सतत् और अनवरत है। आपका आशीर्वाद चाहिए।
प्रणाम !!
-बालकवि बैरागी
14 नवम्बर 2001
दीपावली-2058 विक्रमी
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अनुक्रम
01. बिजूका बाबू
02. आस्था सतवन्ती
03. चमचम गली
04. रामकन्या
05. तेल का खेल
06. रतिराम एण्ड संस
07. आसमानी सुलतानी
08. शिखर सम्मान
09. आम की व्यथा
10. ओऽम् शान्ति
11. सदुपयोग
12. अन्तराल
13. जमाईराज
14. पीढ़ियाँ
15. होली
16. दवे साहब का कुत्ता
17. गंगोज
18. अंधा शेर
19. पुल पर एक शाम
20. छात्र
21. विकृत
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बिजूका बाबू
बीस बरसों की अपनी नौकरी में इतने विचलित कभी नहीं थे बिजूका बाबू जितने कि आज। पहले कभी कुछ कड़वा-मीठा होता भी था तो वे संयम से काम ले लेते थे, लेकिन आज तो सारा संयम शायद नंगा होकर नदी नहाने चला गया लग रहा था। नदी भी पानीवाली नहीं, आग की नदी। सुननेवाले चकित थे। आखिर बात क्या हो गई?
बाबू बैजनाथ को सारा दफ्तर ‘बिजूका बाबू’ ही कहकर सम्बोधित करता था और वे बोलते भी इसी नाम के सम्बोधन से। और तो और, कोई उनके घर जाकर मिलता तो वहाँ भी इसी नाम से बातचीत होती थी। उनकी पत्नी को जरूर आपत्ति होती थी, लेकिन धीरे-धीरे इस नाम से उनका भी समझौता हो गया था। आए दिन स्कूल-मदरसे में उनका बेटा इस नाम पर जरूर अपने साथियों से हाथापाई कर लेता था, लेकिन बिजूका बाबू का नाम बिजूका बाबू ही रहा। सरकारी फाइलों में रहा होगा बैजनाथ नाम, जनता में तो वे बिजूका बाबू ही थे। यदा-कदा उनके वरिष्ठ अधिकारी भी उन्हें इसी नाम से पुकारते थे।
तकलीफ यह हुई कि आज बिजूका बाबू अपनी जिन्दगी की बाजी हार रहे थे। ताव-ताव में उन्होंने सौ-दो सौ गालियाँ साइंस को दे डालीं। फिर हजार-दो हजार गालियाँ दीं उन्होंने अपने बचपन बिताए गाँव को। गाँव के भी उन लोगों को जिन्होंने उन्हें बिजूका बनाना सिखाया। बिजूका बाबू का बचपन ठेठ देहात में बीता। वे किसान के बेटे नहीं थे, लेकिन किसानों के बीच ही जनमे-पले, खेले-कूदे और बड़े हुए। प्राइमरी और मिडिल तक की उनकी शिक्षा देहात में ही हुई। स्कूल जाते-आते खेतों की मेंड़ों पर खेलते-कूदते वे प्राय; हर खेत में एक-दो बिजूके खडे हुए देखते थे। हरी-भरी फसल को पक्षियोें और छोटे-बड़े पशुओं से बचाने के लिए किसान लोग दो बाँसों को आड़ा-खड़ा बाँधकर फटा-पुराना कुरता पहना देते। आड़े बाँस पर आस्तीनें फैला देते। खड़े बाँस के ऊपरी सिरे पर एक पुरानी फूटी हाँडी टाँग देते। उस पर फटा साफा या पगड़ी बाँधकर खेत में गाड़ देते। रात-दिन रखवाली करने कौन खड़ा रह-सकता है? पशु-पक्षी बिजूके को रखवाला समझकर खेत में नुकसान नहीं कर पाते। आदमी का भ्रम पैदा करता बिजूका मजे से रखवाली करता रहता।
ये वे दिन-थे, जब कच्ची उम्र में ही बैजनाथ ने बिजूका बनाना सीख लिया। उसके बनाए बिजूके कई खेतों में खड़े दिखाई देते थे। खास बात यह थी कि बैजनाथ अपने बनाए बिजूकों का सिंगार बड़ी कारीगरी से करता था। फटे-पुराने चिथड़ों को भी वह अपनी कला से विचित्र परिधानों में बदल देता था। हाँडी पर आँख, कान, नाक बनाता, पगड़ी-साफे पर तुर्रे बाँधता और बिजूके को पूरा आदमी बना देता। जब तक बैजनाथ हाई स्कूल पढ़ने जाता-आता रहा तब तक वह ऐसे बिजूके बनाता रहा। लोग उसे घर का काठ-कबाड़, आँस-बाँस-फाँस दे देते, एकाध गिलास चाय पिलाते और बिजूके बनवाते। उसकी कलात्मकता की तारीफ करते, बिजूके को सजीव बताते और खेत में खड़ा करवाने बैजनाथ को ही ले जाते। जब बिजूका खड़ा कर दिया जाता तो बैजनाथ खुद-उस बिजूके से बात करता। लोग बैजनाथ की इस कला का गुण गाते।
आज वही बैजनाथ अपने उन्हीं गुण-गायकों और बिजूका बनाने की प्रेरणा देनेवाले ग्रामीणों को भला-बुरा कह रहा था। एक-से-एक वजनदार गालियाँ दे रहा था। क्या पुलिस का थानेदार-हवलदार वैसी गाली देगा! बिजूका बाबू सारे रिकॉर्ड तोड़ रहे थे। न बिजूका बनाना सीखता, न ये दिन आते, यह बिजूका बाबू का दर्द था।
पढ़-लिखकर बैजनाथ ने सरकारी दफ्तर में नौकरी कर-ली। गाँव छूट गया। शहरनुमा जिला मुख्यालय पर तैनाती हो गई। बैजनाथ सीखने की कला में माहिर था। धीरे-धीरे कारकूनी और बाबूगिरी के सारे गुर सीख गया। बड़ों से कैसे पेश आना, छोटों से कैसा व्यवहार करना, वकीलों को कैसे निपटाना, नेताओं को कैसे खुश रखना, देहातियों और सरकारी गलियारों के फँसे पक्षकारों को किस तरह लल देना, मुकदमों की दुर्गत कैसे करना, फैसलों को किस तरह टलवाना और तारीख-पेशियाँ किस तरह बढ़ाते रहना चाहिए। यानी कि साल-दो साल में ही बैजनाथ पारंगत हो गया। उसको समझ में आ गया कि मुकदमा-प्रकरण पर पूर्णविराम लगने का मतलब है - ‘बाबू’ की रोटीे पर पूर्णविराम। प्रकरण जीवित रहेगा तो बाबू जीवित रहेगा। अन्तिम फैसला हो गया तो समझो, बाबूगिरी मर गई। बाबूगिरी को जीवित रखने का आसान तरीका है अपनी कुरसी से गायब-रहना। काम को टालो और सौ-पचास रुपए रोज बना लो। गरज का मारा पक्षकार ढूँढता रहेगा। दफ्तर से गैर-हाजिर रहने के बाद कोई ढूँढ़ ले। अपना ठीया निश्चित रखो। मिलोगे ही नहीं तो क्या खाक ऊपर की कमाई होगी! इसी प्रक्रिया में बैजनाथ, ‘बिजूका बाबू’ बनने की दिशा में चल निकला।
दफ्तर की अवधि में बिलकुल ठीक समय पर बैजनाथ बाबू कार्यालय में पहुँचते, हाजरी रजिस्टर पर दस्तखत करते, कुर्सी-टेबल को चपरासी से झड़वाते, आलमारी की चाबी देते, टेबल पर दो-चार फाइलें रखवाते, कलमोें का स्टैण्ड करीने से रखते, घण्टी बजा कर देखते, फिर कुरसी पर बैठते। किसी-न-किसी बहाने साहब के चेम्बर में जाते। उन्हें शक्ल दिखाते। घर का कुशल-क्षेम और अपने लायक विशेष सेवा पूछते। ‘भीतर किसको भेजूँ सर?’ जैसा सवाल चस्पा करते। दफ्तर के मौसम का हाल बयान करते और ‘आपकीे मेहरबानी का धन्यवाद मेहरबान’ कहकर सिर झुकाए बाहर आ जाते। बाहर आकर अपनी कुरसी पर बैठते। और....बिजूका बनाना शुरू कर देते। घर से लाए झोले को कुरसी पर लटका देते। अलमारी में से अपनी खैनी-तम्बाकू की डिबिया टेबल पर रखते। चूने की डिबिया को आधी खुली रखकर पोजीशन देते। कलमदान में से एक कलम निकालकर उसे खुली छोड़ते। घर से लाए अतिरिक्त चश्मे को खोलकर सामनेवाली फाइल पर रखते। फिर चुपचाप अलमारी में से अपनी एडीशनल जैकेट निकालकर कुरसी के पीछे फैलाकर टाँग देते। सारा दफ्तर कनखियों से देखता था कि बिजूका बन रहा है। फिर बाबू बैजनाथ उठकर कोने में बैठे नितिन वैद्य बाबू की टेबल तक जाते। दफ्तर के फोन से शहर में दो-चार फोन करते। अगर नितिन बाबू रोकते तो वे चेतावनी देते हुए कहते, ‘नितिन बाबू! दफ्तर में काम करना और इसी शहर में टिके रहना मुझसे सीख लो। मैं यहीं अपॉइण्ट हुआ हूँ, यहीं मेरा प्रमोशन हुआ है और यहीं मैं रिटायरमेण्ट भी लूँगा। यह टेलीफोन न मेरा है, न तुम्हारे बाप का है। यह सरकारी है और सरकार का मतलब आप जानो न जानो, मैं जानता हूँ।’
नितिन बाबू आखिर क्या करते? चुप लगा जाते। उनकी चुप्पी तब खीझ में बदल जाती जब बैजनाथ बाबू टेलीफोन के पास पड़ा हुआ पीतल का छोटा ताला, चाबी सहित जेब में रखकर चल पड़ते। चलते-चलते एक झाड़ और पिलाते-‘सरकारी फोन है, ताला-वाला मत लगाया करो। शाम को लगा देना। इस दफ्तर का सीनियर मोस्ट कर्मचारी हूँ। मेरा लिहाज करो। थैंक्यू।’
बाहर निकलने से पहले वे अपनी टेबल का एक गहरा निरीक्षण और करते। चपरासी से फुसफुसाकर कुछ कहते और बाहर निकल पड़ते। बाहर जाते ही सीधे चाय की गुमटी पर खड़े होकर पेशी पर आए लोगों को सूँघते। जिन्हें पहचान जाते उन्हें इशारों से कुछ कहते। लोग पीछे-पीछे और बैजनाथ बाबू लहराते घूमते-घूमते कचहरी का फाटक पार कर जाते। जो लोग नहीं मिल पाते, वे दफ्तर में बैजनाथ बाबू की कुरसी तक जाते। सारा आल-जाल देखकर सोचते कि शायद अभी-अभी उठकर यहीं कहीं गए होंगे, बस आते ही होंगे। चश्मा, जैकेट, कलम, खैनी, चूना, फाइलें, कागजात-सभी तो फैले पड़े हैं। चपरासी से पूछते तो वही जवाब मिलता, ‘अभी-अभी गए हैं, आते ही होंगे। शायद कोई चाय पिलाने ले गया होगा।’ बिजूका बाबू आखिर जाते कहाँ थे? वे सीधे कपड़ा बाजार में जाते। बरसों की, ऊपर की कमाई से उन्होंने अपने साले के नाम पर रेडीमेड की बड़ी दूकान खोल ली थी। उस दूकान का निरीक्षण करते, स्टॉक चेक करते, साले से कुछ हिसाब-किताब की बात करते और मुख्य बाजार पार करके छोटे बाजार में अपनी पत्नी द्वारा चलाए जा रहे ब्यूटी पार्लर में घुस जाते। यही वह स्थान था जहाँ वे मुकदमों में फँसे लोगों से लेन-देन करते। पक्षकार वहीं उनसे मिलते। नोट-नकदी जो भी मिलता, उसे बीवी के गल्ले में डालते और वापस दफ्तर पहुँच जाते।
जो भी बड़ा अधिकारी इस दफ्तर में नियुक्त होता, वह दस-पाँच दिनों में ही बिजूका बाबू की कला से परिचित हो जाता, लेकिन राम जाने, पेशी करवाते समय कौन सा मन्तर बिजुका बाबू पढ़ देते कि ऑफिसर भी मुस्कुरा कर अपने दस्तखत करता जाता और फाइलें निपटती जातीं।
लेकिन जब से सीनियर बॉस बनकर ये पाराशर साहब आए हैं तब से बिजूका बाबू का बिजूका बन तो रहा है, लेकिन बात नहीं बन रही है। एक दिन तो गजब ही हो गया, जब पाराशरजी ने चपरासी के सामने ही कह दिया, ‘बिजूका बाबू! मेरी कोशिश होगी कि अब आपको यह बिजूका नहीं बनाना पड़े। शायद आप जानते ही होंगे कि जो किसान अपनी खेती बिजूकों के भरोसे छोड़ देता है, वह अपने खेत तक से हाथ धो बैठता है। फसल तो गधे, घोडे, सुअर, सुग्गे खा ही जाते हैं। जाइए! अपनी सीट पर शाम पाँच बजे तक बने रहिए। बुलाने पर भीतर आ जाइए, वरना हमेशा के लिए बाहर ही रह जाएँगे। साले की दूकान और बीवी का ब्यूटी पार्लर इनकम टैक्सवालों की गिरफ्त में आ गया है। अपने आपको सँभालिए। ओ.के.।’
पसीना-पसीना होते और अघट की आशंका से थरथराते बिजूका बाबू चेम्बर से बाहर निकले। चपरासी पीछे का पीछे। दस-बीस मिनट में ही कुरसी-कुरसी, दराज-दराज और अलमारी-अलमारी बात फैल गई। नितिन वैद्य ही काम आया। बिजूका बाबू को पानी का गिलास थमाते हुए बोला, ‘पी लो बैजनाथ बाबू! चिन्ता मत करो। पाराशर सर इतने कठोर नहीं हैं। घर से कुछ सुनकर आए होंगे तो यहाँ बोल पड़े। चलता है। नौकरी में यह सुना-सुनी नई बात नहीं है। सब ठीक हो जाएगा।’
एक ही घुड़की ने बिजूका बाबू का न जाने क्या-क्या बदल दिया। दो-एक महीने तो लगा कि गाड़ी पटरी पर आ गई, लेकिन पाराशर सर बैजनाथ बाबू से भी बड़े बिजूकेबाज निकले। तान-तुकतान भिड़ाकर अपने दफ्तर के लिए एक कम्प्यूटर ले आए। दफ्तर में छोटा सा समारोह किया। अपने अधिकारियों-कर्मचारियों को कम्प्यूटर का मतलब समझाते हुए भाषण दे बैठे, “मित्रों! यह कम्प्यूटर क्या है? यह एक मशीनी साइण्टिफिक ‘बाबू’ ही है। बाबू लोग क्या करते हैं? फाइलें रखते हैं, कागज सँभालते हैं, माँगने पर टीप लगाकर पेश करते हैं, फाइल की जिम्मेदारी लेते हैं। यह कम्प्यूटर भी ये सारे काम करेगा। हाँ, यह अपनी कुरसी छोड़कर बाहर चाय पीने नहीं जा सकेगा। आज्ञाकारी इतना होगा कि चाहा गया कागज बटन दबाते ही दे देगा। न कोई गलती, न कोई गुमान। बटन खटखटाते जाओ और कागज लेते जाओ। साफ-सुथरा, शुद्ध ,और प्रामाणिक। इसका किसी से झगड़ा नहीं, लाग-लगाव नहीं, ईर्ष्या-द्वेष नहीं। दूध-का-दूध, पानी-का-पानी इसके पास दिमाग है, दिल नहीं। ऐसा ‘बाबू’ आपके दफ्तर में आ गया है। अब इसे कहाँ बैठाया जाए? मेरी नजर में इसे बैजनाथ बाबूवाली कुरसी-टेबल दे देना ठीक रहेगा। वैसे भी, उस टेबल पर वर्षों से बिजूका ही बनता चला आ रहा है। अब बैजनाथ बाबू के बिजूके की जगह विज्ञान का यह आज्ञाकारी बाबू बैठ जाए तो खुद बैजनाथ बाबू तक को खुशी होगी। आप लोग तालियाँ बजाकर इस नए ‘बाबू’ का स्वागत कीजिए। बधाई।”
और पाराशरजी ने बैजनाथ बाबू को अपने चेम्बर में आने का आदेश दिया। सिर झुकाए बिजूका बाबू पाराशर सर के पीछे-पीछे चेम्बर में गए।
साहब कुरसी पर बैठे, एक फाइल खोली, शान्त-ठण्डी नजर से बैजनाथ बाबू को देखा, एक कागज पर हस्ताक्षर किए। दूसरे वैसे ही कागज पर एक और दस्तखत किए। पहला कागज बैजनाथ बाबू को थमाया, दूसरा आगे किया-‘मिस्टर बैजनाथ! लिखो कि मूल पत्र प्राप्त हुआ। इसे रिसीव करो।’ सिर से पैर तक थरथराते हुए बिजूका बाबू ने मूल पत्र की प्राप्ति पर हस्ताक्षर किया। साहब को प्रणाम किया और निकलने लगे।
पाराशर साहब उतने ही ठण्डे स्वर-में बोले, ‘फिलहाल यह आपका निलम्बन आदेश है। पचासों मामले ऐसे हैं कि आप बरखास्त हो जाएँगे। आपकी सर्विस का लम्बा समय शेष है। आप चाहें तो अनिवार्य सेवानिवृत्ति माँग सकते हैं, इस्तीफा दे सकते हैं। कानून अपना काम करेगा, आप अपना काम करें। बड़े आराम से न्यायालय की शरण लें। सारे रास्ते खुले पड़े हैं। जब तक यह इन्क्वायरी चले तब तक आपका पदांकन जिला मुख्यालय से यही चालीस कि. मी. दूर अनुविभागीय कार्यालय में किया जाता है। अब आप जा सकते हैं। आपके कार्यकाल और आपकी कार्यशैली से इस कार्यालय का सिर नीचा हुआ है। ओ.के.।’
सिर नीचा किए बिजूका बाबू पहले चेम्बर से बाहर निकले, फिर अपनी टेबल को देखा। कम्प्यूटर ऑपरेटर कम्प्यूटर चला रहा, था। दफ्तर के कर्मचारी अपनी-अपनी कुरसियों पर बैठकर फाइलों में सिर गड़ाए काम कर रहे थे। हाँ, नितिन वैद्य उठे। बिजूका बाबू को सहारा देकर दफ्तर के बाहर तक लाए। ढाढस बँधाया। समझाने की कोशिश की। चाय की गुमटी पर आकर बिजूका बाबू अपनी रोजवाली बेंच पर बैठे और बस! दे गाली, दे गाली, दे गाली। कभी साइंस को तोे कभी कम्प्यूटर को। आँसू निरन्तर बह रहे थे। वे कम्प्यूटर निर्माता को भला-बुरा कह रहे थे। नास-पीट रहे थे बिजूका बनाना सिखानेवाले अपने बचपन के देहातियों पर।
वे बेंच से उठे, चले, पर खुद उन्हें पता नहीं था कि वे कहाँ जा रहे थे।
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कहानी संग्रह के ब्यौरे -
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली - 110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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