बरसों बाद पार्टी के दफ्तर के नाम पर उसी बरामदे की झाड़ू फिर से किसी तरह निकलवाई गई थी, जिसमें यदा-कदा नगर के दस-पाँच वे लोग आ बैठते थे जो कि अपने आप को वहाँ का राजनेता मानते थे। केवल मानते ही नहीं थे, चाहते भी थे कि लोग और सरकार का अमला भी उनको राजनेता मानें। सारी चहल-पहल का कारण यही था कि पूरे बाईस बरसों के बाद इनको एक कामयाबी मिली थी कि वे पूरी नगरपालिका का चुनाव करवाने के लिए सरकार से आर्डर पा सके थे। गाँव में चालीस साल के ऐसे भी अधड़ाए युवक खीजते हुए बैठ थे, जिन्होंने लोक सभा और विधानसभा के लिए तो वोट के अधिकार का उपयोग कर लिया था पर नगरपालिका चुनाव में आज तक वोट नहीं दिया था। देते भी कैसे? उनके सामने नगर पालिका चुनाव हुआ ही नहीं। आपसी बातचीत में उनकी यह कुण्ठा कभी-कभी विस्फोटक शब्दों में दिख पड़ती थी और पार्टी की इमेज खराब होती थी।
इतने बरसों में नगरपालिका में सरकार का कोई न कोई ऑफिसर प्रशासक बन कर राजकाज चलाता और नगर के योग्य लोग सारे कुकर्म अपनी आँखों के सामने होते देखने पर लाचार थे। अपने आपको राजनेता मानने वालों के बच्चे इस छोटी-सी भीड़ में ज्यादह मुखर थे। लोग उनको चिढ़ाते भी थे, पर होता क्या? कुछ भी नहीं। जब-जब राजधानी में इसका चर्चा हुआ या शिष्टमण्डल पहुँचे, मन्त्री और मुख्य मन्त्री तो चुनाव की हाँ करते थे, पर नौकरशाही टाँग अड़ा देती और मुँह तक आया निवाला हाथ से निकल जाता था। इस बार तीर निशाने पर लगा और जनता को चुनाव मिल ही गया। पार्टी की आज वाली बैठक में इसी चुनाव पर विचार होना था। जिला दफ्तर से पर्यविक्षक नगर में आ चुके थे और अभी तक दफ्तर कहे जाने वाले इस बरामदे की झाड़ू भी नहीं निकली थी।
कार्यवाही के नाम पर कुछ होना था नहीं। पर्यवेक्षक को जिला कार्यालय ने पूरे अधिकार दे कर भेजा था। नगर का संगठन जिसे भी उचित समझे, उसे वार्डवार उम्मीदवार बना ले। एक ही शर्त थी कि जीतन वाले को ही उम्मीदवार बनाया जाए। चूँकि पूरी दो पीढ़ियाँ जवानी पर खड़ी थीं, इसलिए जिला संगठन ने यह माना था कि यह सारा मामला स्थानीय इकाई पर ही छोड़ दिया जाए। उचित भी यही था। इस फैसले पर नगर में अच्छी ही प्रतिक्रिया थी। संगठन के लोगों को गाँव में अपना-अपना सिक्का जमाने का यह मनचाहा मौका मिला था। फैसला खुद कर लो और अपना राजनीतिक लोहा भी आजमा लो। चाहो तो खुद लड़ लो और चाहो तो बाल-बच्चों को लड़वा लो। पार्टी की शर्त यह भी थी कि हर वार्ड पर आदमी खड़ा किया ही जाएगा। विपक्ष के लिए कोई सीट खाली नहीं छोड़ी जाएगी। यही चहल-पहल आज इस बैठक पर हावी थी, जो जुग बीतने के बाद सरकार ने यह मेरहबानी की थी। सन्तोष इस बात पर था कि चाहे जो जीते, पर इन सरकारी लोगों के जबड़ों में जाने वाला जनधन तो बचे! खाएँगे भी तो जनता के लोग खाएँगे। न जाने कहाँ-कहाँ से सरकार के कारिन्दे आ जाते हैं और न जाने किस-किस तरह से जनता का खून पीते हैं। कुल मिलाकर यही सब टोन था आज की बैठक का।
पर्यवेक्षक के सामने बातचीत हुई, तो घूम-फिर कर बात उसी वार्ड नम्बर सात पर आकर ठिठक गई। एक यही वार्ड था जहाँ पार्टी के सामने गम्भीर चुनौती थी। इस वार्ड से किसे लड़ाया जाए? एक तरह से भरी सभा में बीड़ा फिर रहा था। है कोई मर्द, जो वहाँ से पार्टी के लिए वोट ला सके? सवाल आज का नहीं, जब-जब इस नगर में यह चुनाव कल्पना में भी लड़ा गया, तब-तब सात नम्बर वार्ड में विपक्ष का ही पलड़ा भारी रहता आया था। मतदाताओं की मानसिक बुनावट ही कुछ इस किस्म की थी। लाख जोर लगा लो, वहाँ आदमी जब भी जीतेगा, उस पार्टी का ही जीतेगा। इस पार्टी के खुद को तीसमार खाँ कहने वाले भी इस वार्ड से खड़े होने में घबरा रहे थे। रणनीति तय होने पर यह वार्ड संगठन के युवा खून को सौंप दिया गया।
एक काम हल्का हुआ। युवा वर्ग ने अपने अग्रिम पंक्ति से उभरते हुए नेता सोम सुधाकर को दाँव पर लगाने की घोषणा कर दी। नाम तो उनका सोम सुधाकर था पर नगर में वे कहे जाते थे सोम बॉस। जी हाँ, बॉस यानी वही फिल्मों वाले बॉस।
हर उठा-पटक कोे सफलता के सिरे तक पहुँचाने में सोम बॉस का जवाब नहीं था। वे नगर की नस-नस और धमनी-धमनी के माहिर जो थे। विनयशील नम्रता के साथ सोम बॉस ने इस बीड़े को भरे दरबार उठा लिया। जयजयकार हो गई। प्रतिष्ठा का सारा मोर्चा जवानों के हाथ में आ गया। मनोबल का सवाल था। पार्टी एक तरह से पहला मोर्चा जीत चुकी थी। नगर का सारा युवा वर्ग वार्ड नम्बर सात में पिल पड़ेगा। कसर ही क्या रही? वार्ड जीता-जिताया है। पुरानी पीढ़ी ने आश्वस्ति की साँस ली। चलो! लड़के-बच्चे किसी काम के लायक निकल आए। पार्टी का वंश मर नहीं गया है। इस फैसले पर लम्बी, वाहवाही-भरी चर्चा हुई।
पार्टी ने शेष वार्डों के नाम आनन-फानन तय कर लिए। तय करने को वहाँ बचा ही क्या था? लोग अपने-अपने क्षेत्रों में काम करते आ ही रहे थे। उनके नाम भर लिखने थे। लिख लिए। आकलन यह भी कर लिया गया कि विपक्ष का कौन आदमी किस वार्ड में लड़ सकता है। पिक्चर साफ थी। मुख्य टक्कर वार्ड नम्बर सात मेें ही थी। समाचार पक्का था कि इस पार्टी की तरफ से कालू दादा लड़ेंगे। एक तरह से वह वार्ड उनकी बपौती जैसा माना जाता था।
पर्चा दाखिल करने के बाद जब बॉस उस वार्ड में पहुँचे, तो पाया कि वार्ड में उनके प्रति एक उदासी है। कालू दादा के झण्डे घर-घर लगाने का काम शुरू हो चुका था। एकाध बैनर भी बाँध दिया गया था। सदल-बल कालू दादा ने रामा पीर के चबूतरे पर आसन जमाया और वार्ड के विकास का सपना सामने रखा। वार्ड के पचासों लोग जुटे थे। वातावरण में हल्की-सी उत्तेजना फैलती जा रही थी। बॉस ने अपनी पार्टी की रीति-नीति पर कुछ कहने की कोशिश की। किसी ने नहीं सुनी। लोग मजे से बीड़ियाँ फूँकते रहे। बॉस ने कहा कि नगर के इन चुनावों में पार्टी ने अपना घोषणा-पत्र छपने दे दिया है, उसमें इस वार्ड की तरक्की और विकास के लिए इतने सारे काम रखे गए हैं कि बस एक बार हमें विजयी बना कर देखो। लम्बे सालों बाद यह पहला चुनाव है। साथ आए युवा वर्ग ने बॉस की बात को सहारा दिया। लोग बीड़ियाँ पीते रहे। बच्चे चिल्लपों करते रहे। कोई प्रतिक्रिया नहीं। बॉस ने वार्ड के सबसे गम्भीर और बुजुर्ग माने जाने वाले मेहर काका से समर्थन की अपील की। पर लगा कि बात बनी नहीं। आखिर बॉस ने वहाँ इकट्ठे सभी महानुभावों से पूछा, ‘भाई बात आखिर है कौन-सी, जो आप कुछ बोल ही नहीं रहे हैं?’ बॉस का यह वाक्य शायद ठीक ही बैठा। सब एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। बैठक का मोड़ वहाँ तक आ पहुँचा कि शायद ये बोले या वो बोले। कोई न कोई बोलेगा जरूर। बॉस चुपचाप किसी के बोलने का इन्तजार करने लगे। पता तो चले कि जनता आखिर चाहती क्या है? साथ वाले कार्यकर्ता इधर-उधर सूँघ-साँघ करने लगे।
‘कोई बोलो रे बोलो!’ मेहर काका ने ऊँची आवाज में कहा। लोगों ने एक-दूसरे की तरफ देखा।
‘फिर मत कहना कि किसी ने पूछा नहीं। जब लोग पूछने आए हैं, खुद सरकार पूछ रही है तब भी सबके मुँह में मक्खियाँ घुस गई हैं! अपना दुःख-दर्द आज भी नहीं कहोगे तो कब कहोगे? बोलो रे बोलो!’ मेहर काका ने फिर हल्ला मचाया। उस छोटी-सी भीड़ को चीरती हुई कस्तूरी बुआ सामने आई। कहने लगी - ‘इन सबने तो चूड़ियाँ पहन रखी हैं। मैं बताती हूँ इस मुहल्ले का दुःख क्या है। और सामने सारी भीड़ को अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘मैं कह दूँ? फिर मत कहना कि कस्तूरी ने कोई बात छिपाई।’
‘लेना-देना मुझे कुछ नहीं है। बात मुहल्ले की नहीं होती तो कस्तूरी बोलती नहीं। जब मेहर काका चिल्ला-चिल्ला कर पूछ रहे हैं, तो मैं कह देती हूँ। वर्ना हमारा सुख-दुःख हम देख ही रहे थे।’
‘बोलो-बोलो कस्तूरी बुआ। आप बोलो तो सही।’ सोम बॉस ने अपनी ओर से नई पेशकश की।
‘तो सुनो’ कस्तूरी बुआ भाषण देने के अन्दाज में बोली। ‘इस मुहल्ले को न तो गटर चाहिए, न खरंजा। न सफाई चाहिए, न झाडू-बुहारा। हम सब अपना-अपना आँगन बुहार लेते हैं। रोशनी और पीने के पानी का भी रोना-धोना नहीं है। हमारे बाप-दादे भी इसी अँधेरे में जी लिए और हम भी जी रहे हैं। रहा सवाल हमारे बाल-बच्चों का, सो वो इसी अँधेरे के आदी हो गए हैं। पानी के बिना आज तक मुहल्ले में कोई मरा नहीं। नल-टोटी सब धोखा है। जहाँ चलता है, वहाँ चलता है। जहाँ नहीं चलता है वहाँ कोई कारिन्दा-वारिन्दा लगाता-वगाता नहीं है। बोलो ठीक है न? सभी सुन रहे हो न?’
सोम बॉस ने सिर उठा कर देखा कि कस्तूरी बुआ के साथ सारा मुहल्ला बहता चला जा रहा था। मेहर काका के बाद उस वार्ड में कस्तूरी बुआ इतनी बड़ी ताकत है, यह अन्दाज पहली बार सोम बॉस को लगा। मन ही मन उन्होंने गणित बैठा लिया: पुरुषों में मेहर काका और महिलाओं में कस्तूरी बुआ। अगर ये दो गोटियाँ ही फिट बैठ गईं, तो फिर नतीजा अपनी हथेली की तरह साफ है। जीत ही जीत।
‘हाँ, कस्तूरी बुआ! बोलिए-बोलिए आप, मैं अपने घोषणा-पत्र की बात बाद में कर लूँगा। आप जो कहेंगी उसको भी हम घोषणा-पत्र में शामिल कर लेंगे।’
‘ये घोषणा-वोषणा और उत्तर-पत्तर अपने पास रहने दो। यहाँ न किसी पाल्टी की बात करो, न किसी नेता-वेता की।’ कस्तूरी बुआ के पाँव जमते जा रहे थे।
‘मुहल्ले का दुख एक ही है। बोलो भाई कह दूँ?’ कस्तूरी बुआ ने अपने प्रश्न को रेखांकित करने की कोशिश की।
‘मरती क्यों नहीं है? बोल भी दे।’ मेहर काका ने अपने बुढ़ापे का जोर लगाते हुए ललकारा।
और कस्तूरी बुआ ने जो कुछ कहा उसने सोम बॉस और उनके साथियों को झकझोर कर रख दिया।
वह बोली, ‘गए तीन महीनों से पास वाली इमलियों पर एक बदमाश बन्दर अपना काला मुँह लिए, सारे मुहल्ले को सिर पर उठाए हुए है। नींद हराम है हर आने-जानेवाले की। बहन-बेटियों ने उस रास्ते जाना बन्द कर दिया है। सायकल, मोटर सायकल, लूना, विकी जो भी उधर से निकलती है, लपककर वह पिछली सीट पर जा बैठता है। लोग घबड़ा कर गिर-पड़ रहे हैं। जनता ने खेतों पर जाने का रास्ता बदल दिया है। न खेती-बाड़ी की देख-रेख समय पर हो पाती है, न बहिन-बेटियाँ पीने का पानी ला पाती हैं। राजदरबार में इस मुहल्ले वालों ने पचास दरख्वास्तें दे रखी हैं। बहरी सरकार न कुछ सुनती है, न हमारे दुःख का निवारण होता है। जिसको वोट लेना हो और मेम्बरी करनी हो, वो इस बन्दर को पकड़े। फिर चाहे दस बरस तक मुँह नहीं दिखाए। बोलो भाई, ठीक है या और भी कोई समस्या है इस वार्ड की?’ कस्तूरी बुआ ने हाजिर जनता से अपनी बात पर ठप्पा लगवाने के लिहाज से चारों तरफ देखते हुए पूछा।
कई लोग एक साथ बोले, “जो बुआजी ने कहा वह ठीक है। बन्दर पकड़ लेना और अपना चुनाव-चिह्न बता जाना। बस, जय हिन्द।’
युवा शक्ति से भरपूर एक नवयुवक ने कहा, ‘इसमें कौन-सी समस्या है? बॉस कल ही हेड साहब से कह कर उसे गोली से उड़वा देंगे। इस छोटी-सी बात को आप लोग चुनाव से क्यों जोड़ रहे हैं? बात विकास की सामने रखो तो कुछ योजना का लाभ भी इस इलाके को मिल जाएगा।’
बीड़ी को मुँह से हटाते हुए बजरंग दल के खासमखास कार्यकर्ता बाजूबन्द ने ललकारा, ‘खबरदार, जो यह पाप किया। रामजी की सेना का वह सेनानी है। आज तक मुहल्ले वालों ने उसे कंकर भी नहीं मारा है। आप पुलिस से कह कर उसे गोली से उड़वा देंगे और फिर मुहल्ले के वोट भी ले लेंगे? अपनी दुकान कहीं और चलाइए। चलो! लम्बे हो जाओ यहाँ से। आए बेचारे गोली चलवाने वाले।’
सोम बॉस ने उस कार्यकर्ता की ओर से माफी माँगी। निवेदन किया कि बात पूरी कर लें फिर समस्या का निदान करते हैं, ‘हाँ कस्तूरी बुआ! बोलो।’
‘बोलना क्या है? मैं अपनी बात कह चुकी। पहले बन्दर पकड़ा जाएगा फिर मेम्बर चुना जाएगा। क्यों भई? ठीक है कि और भी कुछ......?’
कस्तूरी बुआ का स्वर बढ़ते कोलाहल में खो गया।
सोम बॉस खड़े हुए! खँखार कर गला साफ किया। चारों तरफ भीड़ का तखमीना लेने के लिहाज से देखा। सिर नीचे किया और बोले-‘बहनो और भाइयों! मेहर काका और प्यारी-प्यारी कस्तूरी बुआ!! माताओं और प्यारे बच्चो!! अच्छा हुआ जो कस्तूरी बुआ ने इस वार्ड का दर्द दिल खोल कर रख दिया। पार्टी का घोषणा-पत्र अपनी जगह है। मैं उसे आज ही डालता हूँ होली में। आपसे मेरा निवेदन एक ही हैं। उस पार्टी की ओर से पधारने वाले हैं कालू दादा। हमारे पूज्य और परम आदरणीय। आप एक बार उनसे यह समस्या कह देखें। या तो बन्दर वे पकड़ लें या मैं। जनता को जनार्दन कहा है। वादा यानी वादा। बात पक्की होनी चाहिए। अगर आपकी यह माँग पूरी हो गई, तो फिर जब तक मैं मेम्बर रहूँ, आपको मुझसे पूछताछ करने की जरूरत नहीं है। बोलिए है मंजूर?’
और सारे मुहल्ले का हल्ला एक साथ उठा, ‘हाँ, मंजूर है।’
भारत माता की जय के साथ बैठक समाप्त हो गई। लोग रास्ता पकड़ने लगे। मुहल्ले के लोग कस्तूरी बुआ की सूझबूझ पर पुलकित थे।
आग की तरह सारे गाँव में बात फैल गई कि वार्ड नम्बर सात में वोट उसी को मिलेगा जो कि इमलिया बाग की इमलियों पर बैठ गए, तीन महीनों से माँ-बहिनों की इज्जत लेने वाले कलमुँहे बन्दर को जिन्दा पकड़वा कर नगर-निकाला देगा या दिलवा देगा।
सारे गाँव की दिलचस्पी का केन्द्र हो गया वार्ड नम्बर सात। वैसे भी वार्ड में फाइट टफ थी, पर अब दिलचस्प भी हो गई।
छोटे-बड़े अखबारों के प्रतिनिधि यहाँ-वहाँ से कैमरा वाले को लेकर इमलिया बाग के आसपास मँडराने लगे। बन्दर के फोटो लेने और उसकी हरकतों के बॉक्स समाचार बनाने की होड़ लग गई। पार्टियों के घोषणा-पत्र धरे रह गए, बन्दर केन्द्र में आ गया।
कालू दादा और उनकी पार्टी का हायकमान चिन्ता में फँस गया। क्या पता था कि ऐसी फाँस फँस जाएगी। उस कार्यालय में भी विचारार्थ यही मुद्दा मुख्य हो गया। दाँव-पेंच शरु हो गए। कालू दादा की नजर बन्दर के साथ-साथ सोम बॉस की गतिविधियों पर केन्द्रित हो गई। वे कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं। जादू-टोना, टोटका, लटका-झटका कुछ न कुछ तो होगा ही। आखिर इज्जत का सवाल है। कालू दादा जानते थे कि सोम बॉस का मतलब होता क्या है। आदमी अगर अपनीवाली पर आ गया, तो एक बन्दर तो ठीक है, आसपास के बीस-बीस मील तक के बन्दरों को अन्दर करवा देगा। बॉस आखिर बॉस जो है। अपनी आज की सारीे दादागीरी धरी रह जाएगी। इस विचार से वे विचलित हो गए। पार्टी कार्यालय में सन्नाटा छा गया। किसी सयाने ने सलाह दी, ‘यूँ मुँह लटकाने से क्या होता है। रणनीति बनाओ। हर बात की काट राजनीति में मौजूद होती है। पूछताछ करो। पुराने खिलाड़ियों के अनुभवों को टटोलो।’
कालू दादा ने भरोसे के दो-चार लोगों को बॉस के आसपास लगाकर मुकाबला करने की ठानी। उधर बॉस का काम शुरू हुआ। वार्ड नम्बर सात में दुख काटने की बाट जोही जाने लगी। उधर इमलिया बाग की पगडण्डी पर लोगों का आना-जाना कुछ-कुछ शुरु होने के आसार प्रकटे। मलंग का आतंक जरूर था पर लोगों को लगा कि कुछ न कुछ राहत जरूर मिलेगी। आखिर राजनीतिक पाल्टियाँ इस समस्या के हल के लिए आगे आ चुकी हैं।
मित्र लोग चिन्तातुर थे कि आखिर बॉस गए कहाँ हैं? पता चला कि नगर से कोई पौने दो सौ-दो सौ किलो मीटर दूर किसी शहर में बन्दर पकड़नेवाला उनको मिल गया है। हजार, दो हजार रुपया खर्च होगा, पर वह पकड़ लेगा।
और एक दिन लोगों ने देखा कि बॉस ने इमलिया बाग से थोड़ी ही दूरी पर एक पिंजरा लगवा दिया है। दूर से पता ही नहीं चलता है कि यह पिंजरा है कि कोई झोंपड़ी। न जाने किस-किस तरह के अन्दे-फन्दे उसमें फँसाए गए हैं, न जाने क्या-क्या भीतर रखा गया है। पिंजरे की बड़ी सी छत को पेड़ों की हरी पत्तियों से ढँका गया है और दरवाजे पर एक प्रतीक्षा करती कमसिन बन्दरिया को बाँध दिया गया है। लगता था; मानो कोई सुहागन अपने सुहाग की प्रतीक्षा कर रही है। सात दिन बीत गए। बन्दर ने कोई नोटिस नहीं ली । कालू दादा चौकन्ने थे। बॉस चिन्तित। शहर में तरह-तरह के किस्से चल निकले। आज ऐसा हुआ, कल वैसा हुआ। अखबारों के नुमाइन्दे पल-पल के समाचार लेने लगे। बन्दर की हरकतें ज्यादा जोर-शोर से जवान होती चली गईं। इधर बँदरिया किलकारियाँ मारती, उधर इमली की डालियों पर मलंग की खौं- खौं आसमान चीर देती।
चुनाव के दिन पास आते जा रहे थे। न बन्दर पकड़ा गया, न वार्ड नम्बर सात में कोई बदलाव आया। जो बन्दर पकड़े उसी को मेम्बरी। एक ही नारा हर बार लगता रहा। मेहर काका और कस्तूरी बुआ को मुहल्ले के मनचले तरह-तरह के ताने देने लगे।
एकाएक कालू दादा को समाचार मिला कि बन्दर पिंजरे में दाखिल हो गया है। पिंजरे का खटका गिर चुका है और बन्दर-बँदरिया की गृहस्थी बसने जा रही है। कालूू दादा ने पता लगाया कि बॉस कहाँ है। मालूम हुआ कि बॉस को पार्टी ने जिला कार्यालय की कुछ सूचनाएँ देने के लिए जिला मुख्यालय भेजा है और तीन बजेवाली बस से बॉस की वापसी सम्भव है। बॉस का मन पिंजरे में ही लगा हुआ था। वे नगर से बाहर जाना ही नहीं चाहते थे पर भेज दिए गए थे।
आव देखा न ताव, कालू दादा ने अपने कार्यकर्ताओं सहित पिंजरे पर कब्जा कर लिया। पिंजरे वाले की जेब में हजार रुपयों के नोट फँसा दिए और कालू दादा ने फौरन ठेले पर पिंजरा बन्दर-बँदरिया सहित रखवाया। नारे शुरू हुए, ‘कालू दादा जिन्दाबाद!’ और जुलूस चल पड़ा वार्ड नम्बर सात की ओर। सबसे आगे ठेला। ठेले से आगे ढोल। पीछे कालू दादा। गले में पाँच-सात मालाएँ। सौ-पचास नर-नारी, कई बच्चे और ‘कालू दादा जिंदाबाद’।
जुलूस आधे रास्ते पहुँचा होगा कि उधर बस स्टैण्ड पर सोम बॉस उतरे। उतरते ही पिंजरे की पूछताछ की। बन्दर का समाचार लिया। उड़ती-उड़ती सूचना मिली कि बन्दर पकड़ लिया गया है। पिंजरे वाला अपना सरफन्दा समेट रहा है। कालू दादा जुलूस सहित बन्दर को लेकर वार्ड में जाने के लिए आधे रास्ते पहुँच चुके हैं।
‘पार्टी की ऐसी-तैसी’। कहते हुए बॉस ने अपने पास खड़े युवा नेताओं को ललकारा, ‘मेहनत मेरी, तिकड़म मैं करूँ और जुलूस उस लफंगे का निकले! चलो। लपको। छीन लो पिंजरा! लगाओ जूते ठेले वाले के! फोड़ दो ढोल! बताओ जनता को असलियत! निकाल दो सारी दादागीरी!’
और एक उत्तेजना-भरा बड़ा-सा जुलूस अपने आप बन गया। सभी जानते थे कि मेहनत किसने की है और फल कौन भोगना चाहता है? कालू दादा महज यश का लुटेरा बन कर जुलूस ला रहे थे।
दोनों जुलूस आमने-सामने टकराए। छीना-झपटी हुई। मार-पीट की नौबत सयानों ने आने नहीं दी। पुलिस दल पहुँच गया। शान्ति भंग होने की आशंका का मामला था।
नारे...जयजयकार...दोनों तरफ भारत माता की जय। चकित बन्दर, विस्मित बँदरिया। उड़ती हुई धूल और चढ़ती हुई आस्तीनें। बॉस ने आखिर पिंजरा छीन ही लिया।
कालू दादा के गले की मालाएँ तोड़ दी गईं।
बॉस का हायकमान झण्डा उठाए सामने से आ पहुँचा।
चुनाव को अभी दो दिन शेष थे।
कहते हैं, सोम बॉस ने वह चुनाव भारी बहुमत से जीत ही नहीं लिया, कालू दादा जमानत तक से हाथ धो बैठे।
पता नहीं घोषणा-पत्रों का क्या हुआ।
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मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
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