‘रेत के रिश्ते’ समर्पण कवि का आत्म-कथ्य, अनुक्रमणिका और संग्रह के ब्यौरे

 



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
समर्पण कवि का आत्म-कथ्य, अनुक्रमणिका और संग्रह के ब्यौरे




समर्पण 

पूज्य श्री ‘मन्ना’
को
जिन्हें आप
भवानी भाई
याने कि
पं. भवानी प्रसाद मिश्र के
नाम से जानते हैं।
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कुछ भी
(कवि का आत्म-कथ्य)

अपनी कविताओं के बारे में कुछ भी कहना मेरी पहुँच के बाहर की बात है। जब-जब भी कुछ कहने का मन हुआ है, तब-तब किसी-न-किसी संकोच या किसी-न-किसी संस्कारगत विवशता ने मुझे रोक लिया है। यह क्षण भी मेरे लिये वैसा ही है। फैशन के लिये कुछ भी कहना बहुत बुरी बात है। मुझे बुरा तब और अधिक लगता है, जब मैं किसी अपने से बड़े से यह अपेक्षा करूँ कि वह मेरी कविताओं पर कुछ कहे। आलोचकों का अधिकार मैं सदैव सुरक्षित रखता हूँ। उनका काम और धर्म दोनों ही यहाँ मुझे सुहाते हैं। अस्तु,

कविता एक मनःस्थिति है या कि एक क्षण, यह अब कहने की बात नहीं रही। जो भी कुछ वह है, उसे आप सब जानते हैं। ‘रेत के रिश्ते’ की कविताएँ भी मेरे उन मनोभावों का एक विस्फोट या कि प्रकटन है। जब-जब, जैसा-जैसा मैंने जिया या भोगा या कि देखा और सहा, वह सब इन कविताओं में है। मैं मूलतः एक आत्मविरोधी कवि हैँ, याने अपना ही विरोधी ‘खुद’ हूँ, जिसे आप ‘एण्टी-सेल्फ’ भी कह सकते हैं। अपने विरोधी को मैं अपने ही भीतर जीवित रखता हूँ। वह जिस दिन मर जायेगा, उस दिन मेरा कवि भी मर जायेगा। मैं न खुद मरना चाहता हूँ, न अपने कवि को मरता हुआ देखना चाहता हूँ, बशर्ते कि मुझ में कहीं कोई कवि नाम का जीव हो। हर बार मैंने कहा है कि मैं किसी का आलोचक नहीं हैं, किसी का विरोधी नहीं हूँ। मैं जो भी कुछ हूँ, वह बस मैं ही हूँ। शायद यही मेरी शक्ति भी है। यूँ तो मेरी इन कविताओं के नायक-प्रतिनायक आपके आसपास कहीं-न-कहीं आपको मिल ही जायेंगे, पर यदि पढ़ते-पढ़ते कहीं आप खुद अपने आपको इनमें पा लें, तो फिर वहाँ यह मानियेगा कि आपने मुझे ही वहाँ पाया है। तब फिर वहाँ हम सब एक साथ हैं। किसी पर चोट करना या किसी धार किसी को मारना मेरा अभीष्ट कभी नहीं रहा। मसीहा और उपदेशक मैं हूँ नहीं। अच्छे को उत्तरोत्तर श्रेष्ठतम होना चाहिए, यह मेरा सपना है। उसके लिये कलम को बराबर जागरूक रहना होगा। मैंने यह कोशिश की है। कोई सुने या नहीं सुने, इससे मुझ पर कभी फर्क नहीं आया। मेरा काम था समय पर बोलना और मैंने वह किया। इसका पुरुस्कार मिले या तिरस्कार, मुझे इससे कोई सरोकार नहीं है। इस जगह मैं सहज हूँ।

इस पुस्तक के प्रकाशक भाई ब्रिजनाथ अग्रवाल का मैं आभारी हूँ कि उन्होंने वह सब कर लिया, जो मेरे लिये आवश्यक था। आप चाहें मेरे पाठक हों या श्रोता, आपका ऋण स्वीकार करना मेरा धर्म हो जाता है। मैं उसका पालन कर रहा हूँ। किसी-न-किसी स्तर पर आपसे सम्वाद बनाये रखना मेरी आदत है। मैं जानता हूँ कि आप में से कई को इससे असुविधा होती होगी, पर इस मुकाम पर हम-आप सब विवश हैं।

‘रेत के रिश्ते’ जब बन जाते हैं, तो सारा परिवेश कहीं-न-कहीं फैसला हो जाता है, या यूँ कहिये कि कहीं-न-कहीं कुछ फैसला हुआ या हो गया, इसलिये रेत के रिश्ते बने। मैं हर रिश्ते को उसकी सारी समग्रता के साथ पालता और जीता हूँ।

मैं जैसा भी हूँ, आपके सामने हूँ और आपका हूँ।

नमस्कार।
- बालकवि बैरागी
दीपावली पर्व  1980


अनुक्रमणिका
01. अन्त तक जीवित रखो
02. चल रहा हूँ
03. साबित करो
04. आँसुओं में डूब मरो
05. सनातन कर्म
06. निरीह
07. आश्चर्य
08. प्रमाद
09. बेहतर
10. ठीक-ठीक नाम
11. एक निमन्त्रण हवा में
12. चेतावनी
13. प्रश्न-चिह्न
14. समय के बारे में
15. सच बोलने से बाप नहीं मरता
16. मुबारक हो आपको आपका जन्म-दिन
17. साधक
18. गायत्री-गर्भ
19. प्रातः: संध्या
20. लताड़
21. रेत के रिश्ते
22. क्या करेंगे?
23. तुम भी कुछ करो
24. मत करो तारीफ
25. तू हँस
26. नये सिरे से
27. अँधेरे में गा रहा हूँ
28. कोरा प्रमाद
29. ओ दिनकरों के वंशधर!
30. आत्म-स्वीकृति
31. मर्दों की कविता
32. फिर से मुझे तलाश है
33. आज के दिन
34. नाक की शोक-शैली
35. चौराहे सूने हो सकते हैं
36. भाई देवदार!
37. हर बरस तम से लड़ाई
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संग्रह के ब्यौरे

रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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