शोकाकुल (‘मनुहार भाभी’ की पहली कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के 
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की पहली कहानी



 

आज के दिन
(कहानीकार का आत्‍म-कथ्‍य)

कविता मेरा मूल धर्म है। कहानी मेरा आनन्द है। कविता मुझे रस देती है। कहानी मुझे आह्लाद देती है, ऊर्जा देती है।

इसी प्राप्ति की प्रक्रिया में मेरी कुछ कहानियाँ आपके सामने हैं। मेरी कहानियों के सारे पात्र मेरे आसपास हैं। हो न हो ये आपके आसपास भी हो सकते हैं। इनकी ‘कहन’ मेरी है। इस सृजन में भी मैं निरन्तर हूँ। यह मेरा आत्मानन्द है।

‘मनुहार भाभी’ में ऐसी ही कुछ कहानियाँ हैं। उन्हें आप पसन्द करें या नहीं करे, मैं इस बहस में नहीं पड़ूँगा। अपनी-अपनी जिह्वा, अपना-अपना स्वाद।

बहरहाल, इस रूप में ‘कहानी’ के आँगन में यह मेरी पहली उपस्थिति है। शायद आप मेरी इस आवाजाही को उचित समझें।

आप जो पाठकीय सहयोग मुझे दे रहे हैं, उसके

प्रति मैं आपका कृतज्ञ हूँ।

प्रकाशक को धन्यवाद कि उन्होंने कई प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी इस संग्रह को आप तक पहुँचाया।

- बालकवि बैरागी
10 फरवरी 2001


 

अनुक्रमणिका
01. शोकाकुल
02. प्रदर्शन
03. गच्चा
04. सादर अपमानित
05. पाल्टी पोल्टी
06. साँप की राजनीति
07. विकल्प
08. हरिया बाबा
09. मनुहार भाभी
10. बुड्ढी पुलिया 
11. आभारी 
12. मूतिकार
13. घोषणा-पत्र
14. जनसम्पर्क
15. मृत्युभोज
16. आन्दोलनकारी
17. अन्ततः
18. दखल
19. भला आदमी
20. बाइज्जत बरी
21. जीत गया भई जीत गया
22. निकम्मा
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शोकाकुल

सारा वातावरण शोक में डूबा हुआ था। किसी का बोल सुनाई नहीं पड़ता था। यहाँ से वहाँ तक एक गम्भीर किस्म की फुसफुसाहट फैल रही थी। जानते सभी थे कि हर एक किसी न किसी से बात कर रहा है, पर सुनाई किसी को कुछ नहीं पड़ नहीं पड़ रहा था, मानो बोलने का अभिनय किया जा रहा हो। हिलते होंठ भर नजर आते थे। लोग सुनने की कोशिश में कान अपने पड़ोसी के मुँह के पास तक ले जाने का असफल उपक्रम करते और फिर बिना किसी प्रतिक्रिया के अपना सिर वापस हटा लेते।

हवेली के भीतर परिवार की सबसे जेठी सदस्या के मृत शरीर को परिजन शव-स्नान करवा रहे थे। सारा परिवार कहता ही उन्हें ‘जेठी माँ’ था। भरपूर उम्र लेकर वे आज बड़ी सुबह ही रामशरण हुई थीं। जितना लम्बा उनका जीवन रहा, उतना ही चौड़ा उनका परिवार होता गया। लोग इस घर में उनके आने से लेकर आज तक के समृद्धि-विस्तार की चर्चा तरह-तरह से कर रहे थे। पर लगता था हरकोई बुदबुदा रहा है, बोल कोई नहीं रहा। कभी-कभी, थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल से, करुण हिचकियों का एक थपेड़ा-सा उठता और उस शोकाकुल वातावरण को और अधिक सघनता दे जाता। लोग उधर देखने की कोशिश करते और देखकर, मुँह फेर लेते। शवयात्रा में जाने वालों की भीड़ जेठी माँ और उनके परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही बढ़ती जा रही थी। कारों और स्कूटरों का बहुत बड़ा जमावड़ा सारी सड़क पर हो चला था। वाहन खड़े करने की जगह नहीं बची थी। किसी ने पुलिस को फोन भी कर दिया था और सरकार का छोटा-सा अमला इस शवयात्रा के शुरु होने से पहले गली में भीड़ को नियन्त्रित करने के लिए अपने आप आ जुटा था। जो जहाँ भी था, वहीं से व्यवस्था कर रहा था या फिर उसमें सहायता करने की कोशिश कर रहा था। जेठी माँ के प्रति आदर का एक गम्भीर महिमामय शब्द-संसार, गली में यहाँ से वहाँ तक, आकार लेता लग रहा था। आसपास की खिड़कियों में शवयात्रा पर फूल बरसाने के लिए श्रद्धालु नर-नारी स्थान लेने की कोशिश कर रहे थे। शवयात्रा में होने वाला विलम्ब सभी को सशंकित कर रहा था। कोई-कोई मानता था कि भीतर सम्पत्ति का विवाद चल रहा है तो कोई अनुमान लगा रहा था कि शायद कोई निकट का रिश्तेदार आने वाला है, उसी की प्रतीक्षा हो रही है। एक-एक पल भारी होता जा रहा था, पर शवयात्रा थी कि शुरु होने का नाम ही नहीं ले रही थी। आखिर माजरा क्या हैं, इस जिज्ञासा को लेकर कोई-न-कोई हवेली के भीतर तक जाने की कोशिश करता और निराश होकर वापस लौट आता।

हवेली के बरामदे में अरथी सजी हुई रखी थी। बाहर बैण्ड ने रामधुन बजाना शुरु कर दिया था। लोगों में हलचल थी। शवयात्रा के सहयात्रियों का एक सयाना समूह पूर्व तैयारियों के लिए श्मशान में जा चुका था। वे लोग वहाँ इन्तजार कर रहे थे। बाहर लोगों को खड़े-खड़े आधा घण्टा से अधिक समय हो गया था। भीतर-ही-भीतर, कुछ-न-कुछ घट जरूर रहा है, वर्ना इतना विलम्ब होता ही क्यों?

भीतर परिजनों में जो बहस हो रही थी, वह बहुत चिन्ताजनक थी। तीन बातों में से किसी एक पर फैसला जब तक नहीं होगा, तब तक शव यात्रा शुरु नहीं हो सकती, यह जिद घर के सयाने समझदारों की थी। तीनों बातें विचार के लिए कुछ इस तरह थीं: पहली बात यह थी, कि शव यात्रा का रास्ता बदलो। दूसरी बात यह थी कि अगर रास्ता नहीं बदलना है तो फिर शव को मुखाग्नि देने के लिए, जो पावक-पात्र आगे-आगे चलाया जाता है उसे, परिवार के सदस्य बारी-बारी से उठा लेंगे पर, किसी भी कीमत पर वह थाली निश्चिन्तजी को नहीं दी जाएगी। वे उसे छुएँगे भी नहीं। अगर यह भी सम्भव नहीं हो तो फिर निश्चिन्तजी को हवेली के किसी कमरे में बन्द कर दिया जाए, जब शवयात्रा श्मशान में पहुँच जाए, तब उनको कमरे से बाहर निकालकर अग्निदान में शामिल कर दिया जाए।

चिन्ता के तीनों मुद्दे पल-पल खारिज हो रहे थे। शवयात्रा का रास्ता इसलिए नहीं बदला जा सकता था कि रास्ते पर जेठी माँ की ममता में पले परिवारों ने उनके शव-दर्शन के लिए खुद को द्वार-द्वार, गवाक्ष-गवाक्ष पर तैयार कर रखा था और जेठी माँ का परिवार किसी भी मोल उनको निराश नहीं करना चाहता था। सॉँझ-सवेरे जेठी माँ उसी रास्ते से मंदिर जाती-आतीं, देव-दर्शन करतीं और अपनी गाड़ी रोककर रास्ते भर प्रसाद बाँटतीं। ममता की आशीषें लुटातीं। ममता का आँचल अपने सिर पर डाले वे लोगउनका अन्तिम दर्शन भी नहीं कर सके, यह जेठी माँ की आत्मा की शान्ति में बाधक होगा। रास्ता नहीं बदलेगा। चाहे जो हो जाए। मृत्यु-महोत्सव का यह जुलूस उधर होकर ही गुजरेगा, जिधर से कि जेठी माँ रोज आती-जाती थीं।

रहा सवाल निश्चिन्तजी को पावक-पात्र नहीं देने का, सो यह बहुत कठिन बात थी। जिस दिन जेठी माँ इस घर में बहू बनकर आई थीं, उस दिन यह सारा घर विपन्नता और वीरानी का दरिद्र-महल था। न यह हवेली थी, न यह समृद्धि का साम्राज्य। विवाह के बाद के पूरे दस साल जेठी माँ ने, इस परिवार की नींव भरने में जो संघर्ष किया था, वह जगजाहिर बात थी। एक विराट शून्य को जेठी माँ ने अपने खून-पसीने और पूजा-आराधना के बल पर, जिन परिस्थितियों में भरा था, उससे सभी वाकिफ थे। विपन्नता और दारिद्र्य के दसवें साल में, मात्र दस साल की उम्र का एक बच्चा, अनायास इस घर में न जाने कहाँ से, न जाने किस तरह आ गया। जेठी माँ ने माना था कि यह बच्चा भगवान ने भेजा है। रखा था उसे घरेलू काम-काज के लिहाज से, पर जेठी माँ ने पाया था, कि इस बच्चे का पग-फेरा उनके लिए बहुत ही शुभ सिद्ध हुआ है। ठीक वही दिन था, जबकि भूखों मरते परिवार के प्रमुख, जेठी माँ के पति, पुरुषोत्तम ने हताश और निराश जेठी माँ से शाम को कहा था-‘आज से मैं दूसरी शादी की बात भी नहीं करूँगा। भगवान ने दस साल तक हमारी गोद नहीं भरी है तो कोई बात नहीं। हम किसी का भी बेटा यहाँ-वहाँ से लेकर पाल लेंगे। सुख-दुःख साथ काटेंगे-बॉंटेंगे। आखिर कब तक इस ढूँठ पर कोंपल नहीं आएगी?’ और पुरुषोत्तमलालजी ने दूसरी शादी करने के कुविचार को दिल-दिमाग से ही निकाल दिया था। जेठी माँ ने तब इस बच्चे को पहली बार प्यार और ममता-भरी नजर से देखा था। न रूप न रंग, बेहद काला-कलूटा। सूरत-शकल का तो सवाल ही नहीं था। गन्दा इतना कि पास बैठाना तो ठीक, पर परछाईं भी पड़ जाए तो जी मिचलाने लगे। न जात का पता, न पाँत का पता। नाम पूछा तो बस इतना भर कहा, ‘लोग मुझे काजल कहकर बुलाते हैं। जहाँ जाता हूँ वहाँ लोग नया-नया नाम रख लेते हैं। आप कोई-सा भी नाम रख लो। नाम में क्या रखा है? घर का कचरा-बुहारा करता रहूँगा और.....।’

जेठी माँ ने माँ-बाप और नाम-गाँव का पता-ठिकाना पूछा, तो लड़का चुप रह गया था। कुछ पता हो तो बताए! पर जब उससे पूछा कि यहाँ किसने भेजा है? तो उसने बिना किसी विराम-विश्राम के कह दिया था-भगवान ने। और जेठी माँ ने इसे भगवान का भेजा हुआ ही मानकर उसमें भगवान को साक्षात् देखा। जबकि गए दस सालों से, ‘दूसरी शादी-दूसरी शादी, ‘सौत-सौत, वंश-बेल और बेटा-बेटा’ का जाप करने वाले कण्ठों में एकदम बदलाव आ गया। जेठी माँ एक दैवी उजास के साथ निश्चिन्त हो गईं। जेठी माँ ने इस बालक से कहा था-“बेटा! इस आँगन में तेरे पाँव पड़ते ही मैं एक चिन्ता से ‘नचीत’ हो गई। तेरा नाम मैं ‘नचीत’ रखती हूँ।” और यह लड़का उस मुहल्ले में ‘नचीत’ नाम से पुकारा जाने लगा। जब भले दिन आते हैं तो हर दिशा उजली हो जाती है। उसी साल जेठी माँ पहली बार गर्भवती हुई और नचीत के घर आने के डेढ़-पौने दो साल में ही जेठी माँ के घर में पालना बँध गया। थाली बज गई। पुरुषोत्तमजी का वंश चल पड़ा। कुछ काम-धन्धा शुरु हुआ और हवा का हर झोंका इस दरिद्रवास में चन्दनवास से आया लगने लगा। सुवास ही सुवास के दिन शुरु हो गए। जब-तब पुरुषोत्तमजी जेठी माँ को सौत लाने का जिक्र करके दुःख दिया करते थे, तभी गली मुहल्ले वाली बहू-भौजाइयों ने कहना शुरु कर दिया था कि इस घर में जिस दिन छोटी सुहागन आएगी, यह अपने आप जेठी हो जाएगी और ‘वाणी विनोद’ में दिया हुआ नाम ‘जेठी’ खुद-ब-खुद चल पड़ा। छोटी तो नहीं आई, पर जेठी माँ अपने-आप

जेठी हो गईं और पहला बेटा होते ही जेठी माँ कहलाने लगीं।

सम्पन्नता और समृद्धि के साथ-साथ घर में सब-कुछ बढ़ता गया। जेठी माँ इस सबको नचीत के नाम लिखने में कभी संकोच नहीं करती थीं। कहा करती थीं, जब से यह इस घर में आया, सब मंगल-ही-मंगल होता जा रहा है। यही कारण था, कि जेठी माँ पेट की आँत से ज्यादह ख्याल नचीत का रखतीं। बड़े बेटे के जन्म से पहले ही बात-बात में जेठी माँ ने एक दिन कहा था, ‘चलो मेरी अरथी के आगे हाँडी उठाने वाला आ गया। भगवान कन्धा देने वाला भी भेजेगा ही।’ और मरने से पहले जेठी माँ ने सारे घर के सामने अपनी कड़क आवाज में कहा था, ‘मुझे मसान ले जाते समय और कुछ करो नहीं करो, पर इतना जरुर करना, कि चिताग्नि वाली थाली नचीत ही उठाए!’ यह एक तरह से जेठी माँ की अन्तिम इच्छाओं में से एक और प्रमुख इच्छा थी। 

बड़े बेटे और नचीत की उम्र में पूरे ग्यारह साल का अन्तर था। नचीत का भी थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना बड़े बेटे के साथ ही हुआ था। तभी उसने पाया कि ‘नचीत’ का मतलब ‘निश्चिन्त’ होता है। धीरे-धीरे यह नाम शुद्ध होता गया और बढ़ते कारोबार के साथ ‘नचीत’ शनैः-शनैः ‘निश्चिन्त’ हो गया।  जेठी माँ को यदा-कदा एक ही मलाल कचोटता रहता कि न जाने किसकी सोहबत-संगत में नचीत ने कलाली पर जाना शुरु कर दिया था। पर जेठी माँ मानती थी कि यह सब संस्कारों का खेल हैं और अपने घर की श्री-समृद्धि के प्रतीक नचीत की हर टेव-कुटेव में भी जेठी माँ ने कुछ-न-कुछ भगवान का किया हुआ भला ही देखा। 

शादी-विवाह नचीत का न होना था, न हुआ। किसी बात का अता-पता था नहीं। आखिर बेटी देता कौन? नचीत बाबू ने एक खूँटे से बँंधना कभी ठीक भी नहीं समझा। आए दिन उनके बारे में यहाँ-वहाँ से किस्से-कहानियाँ जेठी माँ और परिवार वालों के सामने आती थीं, पर वे सब जिस तरह आती उसी तरह लौट भी जातीं। जेठी माँ कहा करती थीं-‘मन में कोई रच-बस गई हो तो घर में बसा ले। पर यूँ पत्तल-पत्तल का जूठा मत खा नचीत!’ पर नचीतजी हल्के से सुरूर में अपनी काली-कलूटी काया में दी हुई कुदरत की रजत धवल दन्त-पंक्ति के साथ, पान की लाली लिपटी हँसी में, जेठी माँ की इस बात को सहज उड़ा देते और अपने कमरे में चले जाते। पुराना घर छोड़कर जेठी माँ और उनके परिवार ने जब यह हवेली खरीदी तो जेठी माँ ने सबसे पहले निश्चितजी के लिए उसमें कमरा तय किया था। अलग-का-अलग और साथ-का-साथ। जेठी माँ सोच ही नहीं सकती थीं, कि नचीत उनसे अलग हो जाए! 

जेठी माँ का 85 बरस उम्र जिया हुआ मृत शरीर, सुहाग चूनर में लिपटा, अरथी पर रखे जाने की तैयारियाँ चल रही थीं। 90 बरस के पुरुषोत्तमलालजी जैसे-तैसे श्मशान जाने की जिद में खाँस रहे थे। जेठी माँ के बेटे, नाती, पोते और शोकाकुल परिजन बड़ी संख्या में, अरथी के आस-पास अपना-अपना स्थान ले रहे थे। साठ साल के निश्चिन्तजी एक बार कलाली पर होकर आ चुके थे और भीड़ में यहाँ-वहाँ सिसकते फिर रहे थे। वे टुकुर-टुकुर देख रहे थे, कि कब शवयात्रा शुरु हो और कब ‘राम नाम सत्त है’ की आवाज के साथ, वे अपनी जेठी माँ को कन्धा

देने से पहले पावक-पात्र उठाएँ। जेठी माँ की अन्तिम इच्छा का आदर करना वे अपना विशेषाधिकार मानते थे। आखिर जेठी माँ ने अपनी हॉँडी उठाने का काम बार-बार निश्चिन्तजी के जिम्मे ही क्यों रखा? वे जेठी माँ की सम्पत्ति पर अपना अधिकार नहीं मानते थे, पर उसकी ममता और अन्तिम इच्छा पर अपना पूरा हक मानकर, आँसू बहाते बैठे थे। उनके लिए तो जेठी माँ माँ-बाप, बहन-भाई, देवी-देवता सब कुछ थीं।

तीसरी शर्त मानने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। इस घर से गए पचास सालों से जो आदमी इतने गहरे तक जुड़ा हुआ है, उसे आखिर किस बूते पर आप कमरे में बन्द करके शव यात्रा निकाल सकेंगे? कुहराम मच जाएगा। निश्चिन्तजी इस घर को आसमान में पहुँचा देंगे। वो चिल्लपों मचेगी, कि कुछ कहिए मत! जेठी माँ की मिट्टी खराब हो जाएगी। सारे संसार में एक दैवत्व वाली मिट्टी का तमाशा बन जाएगा। रास्ता कुछ दूसरा निकालो।

बाहर लोग विचलित होते जा रहे थे और भीतर वाले निर्णय नहीं ले पा रहे थे। मिट्टी, मिट्टी में मिलने को आतुर थी। बैण्ड पर राम-धुन ऊँची सुनाई पड़ने लगी थी। महिलाओं का कोलाहल बढ़ चला था। पूरे रास्ते में शव-दर्शन के लिए लालायित लोगों की भीड़ अपना संयम खोने लगी थी। आखिर पुरुषोत्तमलालजी ने ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले जैसा आर्डर सुनाया-‘जो होना होगा सो होगा, इसकी मिट्टी खराब मत करो। नचीत को अग्नि की थाली थमाओ और कन्धा दो। बोलो राम-राम......।’ और जेठी माँ की सजी-धजी अरथी अपने परिजनों के कन्धों पर पहुँच गई। पावक-्यात्र की सुतली के सिरे पकड़े, आगे-आगे सिसकियाँ भरते निश्चिन्तजी विलाप करते अपनी माँ को रोते हुए चल रहे थे। सबसे आगे बैण्ड था। शव पर जेठी माँ के वजन से ज्यादह वजन के फूल बताशे पड़े हुए थे। गुलाल का एकाध गुबार उठता। फूल बरसते। ‘राम नाम सत्त है’ का पवित्र घोष रास्ते भर शोक को सघन करता जा रहा था और श्मशान की राह जेठी माँ का रथ अबाध बढ़ चला। परिवार के चौकन्ने सदस्य रोना-धोना भूलकर यही कोशिश कर रहे थे कि जैसे-तैसे अग्नि-पात्र निश्चिन्तजी के हाथ से ले लिया जाए। पर निश्चिन्तजी अपने अधिकार को एक पल के लिए भी छोड़ने को तैयार नहीं थे। वे कभी विलाप करते, कभी क्रन्दन करते, कभी हिचकी लेते, कभी सिसकी भरते आगे-आगे चलते जा रहे थे।

शवयात्रा ने आधा रास्ता भी पार नहीं किया था, कि निश्चिन्तजी की नित नियम वाली मंजिल सामने आ गई। वही कलाली। उन्होंने एक बार पीछे शव यात्रा के जुलूस की ओर देखा। एक धाड़ मारी। माँ-माँ का क्रन्दित, करुण, रुदन-घोष किया और पावक-पात्र सहित वे कलाली में जा घुसे। शवयात्रा में भगदड़ मच गई। जिस बात का डर था वही हुआ। सारा परिवार यहाँ-वहाँ भागा। समझदार-सयानों ने समझाया कि शव को यहीं विश्राम दे दो, कन्धे बदल लो, रुको मत, और देर मत लगाओ। दो-एक सयाने भीतर जाकर चुपचाप पावक -पात्र उठा लाओ और चल पड़ो। पर भीतर जाए कौन?

लोग शव को कन्धों पर उठाए खड़े हैं। राम-नाम का नाद सुनाई पड़ रहा है और भीतर निश्चिन्तजी जेठी माँ के शोकाकुल ठेकेदार से शराब माँग रहे हैं। माँ को मुखाग्नि जब लगनी लग जाएगी। पर आज वे जेठी का पहला श्राद्ध, एक घूँट के साथ यहीं करेंगे। वे थाली छोड़ नहीं रहे थे। कलाली के सामने शवयात्रा ठिठककर खड़ी हो गई थी। ठेकेदार पसोपेश में था और सारा परिवार लज्जा और ग्लानि से मरा जा रहा था।

जीवन में जो कदम कभी इस देहरी पर नहीं पड़े थे, वे उधर मुड़े। पत्नी- शोक में अन्तिम साँसें लेते हुए 90 बरस के पुरुषोत्तमलालजी ने कलाली में प्रवेश किया। थाली उठाई और बाहर आ गए। निश्चिन्तजी ने अपने नियम के दो कुल्हड़ ढाले। बाहर आए, देखा कि शवयात्रा आगे बढ़ चुकी थी। शोकाकुल, सबसे निश्चिन्त होकर निश्चिन्तजी सबसे पीछे सिर झुकाए चले जा रहे थे। बिल्कुल बिना लड़खड़ाए।

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‘मनुहार भाभी’ की दूसरी कहानी ‘प्रदर्शन’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032





रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।


 


  

 


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