वे तो सेवा करेंगी ही

यह सब न लिखा जाए तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसमें कुछ भी नया और/या कि अनूठा नहीं है। इसकी सबसे खराब बात यह है कि हमारे स्थापित चरित्र को एक बार फिर रेखांकित करता हुआ, रोचक अन्तर्विरोधों से भरा यह सब सदैव की तरह ही निराशाजनक और नकारात्मक है। इसे प्रस्तुत करने से मुझे बचना चाहिए था।

यह कल ही की बात है। पाँच अप्रेल की। बाहर से आए एक सज्जन से मिलने के लिए मैं एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय पहुँचा। समय रहा होगा दोपहर कोई दो-सवा दो बजे का। मेरेवाले सज्जन अपनी बात समाप्त कर, तीन अध्यापिकाओं से बिदा ले रहे थे। तीनों अध्यापिकाएँ भी जाने की तैयारी में थीं। अचानक ही सात-आठ महिलाएँ मानो प्रकट हुईं। सबकी सब कलफदार सूती साड़ियों में लिपटीं, सजी-सँवरीं। चिलचिलाती गर्मी में भी वे सब ताजा-दम थीं। बिलकुल ‘गार्डन फ्रेश सब्जी’ की तरह ताजा-दम। हम दोनों ने विद्यालय परिसर की दीवारों के पार, उचक कर देखा तो बात समझ में आई। वे वातानुकूलित कारों से आई थीं।

उन्होंने तीनों अध्यापिकाओं से जिस तरह से नमस्कार किया, लग गया कि वे सब, अध्यापिकाओं की पूर्व परिचित हैं। बिना किसी भूमिका के उन्होंने अपनी बात शुरु कर दी। मालूम हुआ कि वे सब एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के सेवा क्लब की स्थानीय इकाई से सम्बध्द हैं। तीस जून को उनके वर्तमान संचालक मण्डल का कार्यकाल पूरा हो रहा है। किन्तु उनके कुछ ‘सेवा प्रकल्पों’ की कुछ गतिविधियाँ (जिन्हें वे ‘टारगेट’ कह रही थीं) बाकी रह गई थीं। वे चाह रही थीं तीनों अध्यापिकाएँ यह ‘टारगेट’ पूरा करने में उनकी मदद कर दें। वे, इसी नौ अप्रेल, सोमवार इस विद्यालय में एक समारोह आयोजित कर, विद्यालय के बच्चों को कुछ ‘उपहार’ भेंट करना चाह रही थीं। सुनकर तीनों अध्यापिकाओं ने आपस में, एक दूसरे की शकलें देखीं और उनमें से दो ने, तीसरी के चेहरे पर सवालिया नजरें गड़ा दीं। यह तीसरी, विद्यालय की प्रधानाध्यापिका थी। प्रधानाध्यापिका ने विनीत भाव से क्षमा माँगते हुए असमर्थता जताई। कहा कि वे चाहकर भी उनकी सहायता नहीं कर पाएँगी क्योंकि आज ही परीक्षाएँ समाप्त हुई हैं और अब तो बच्चे परीक्षा परिणाम सुनानेवाले दिन ही आएँगे। एक ‘सेविका’ ने तनिक अधिकार भाव से कहा - ‘आप कहेंगी तो सब बच्चे आ जाएँगे। आप तो उनके घर पर खबर करा दो।’ प्रधानाध्यापिका ने दृढ़तापूर्वक कहा - ‘क्षमा करें। यह सम्भव नहीं।’ दूसरी ने तनिक अधिक अधिकार भाव से कहा - ‘अरे! वाह! सम्भव कैसे नहीं? आप कहें तो आपको कलेक्टर साहब से कहलवा दें।’ प्रधानाध्यापिका के जवाब ने हम दोनों को चकित किया। किसी शासकीय प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका को इस तरह बात करते हुए मैंने पहली ही बार देखा। बोलीं - ‘जब आप कलेक्टर साहब से कहलवा सकती हैं तो मुझसे सारे बच्चों के पते ले लीजिए और कलेक्टर साहब के कर्मचारी से सब बच्चों के घर पर आदेश भिजवा दीजिए। हम लोगों से तो यह सम्भव नहीं होगा।’ सारी की सारी ‘सेविकाएँ’ कुम्हला गईं। एक ‘सरकारी मास्टरनी’ के ये तेवर! मुझे किसी ‘पर-पीड़क’ की तरह मजा आ गया।

वे सब चलने को हुईं तो प्रधानाध्यापिका ने टोका - ‘एक मिनिट। एक रिक्वेस्ट है आपसे।’ सबके चेहरों पर हिन्दी साहित्य का ‘आशावाद’ जगमगाने लगा। ‘हाँ! हाँ! कहिए।’ प्रमुख सेविका ने उत्साह से कहा। प्रधानाध्यापिका ने कहा - ‘हर साल की तरह इस साल भी आप लोग वृक्षारोपण करने आएँगी। इस बार आएँ तो प्लीज! पौधों के लिए ट्री गार्ड जरूर लेकर आइएगा।’ सुनकर वे सब सन्न रह गईं। वे तो कुछ दूसरी ही बात सुनना चाहती थीं! कुछ पल की खामोशी के बाद प्रमुख सेविका बोली - ‘नहीं। वह तो हमारे लिए पॉसीबल नहीं। उसका बजट नहीं होता हमारे पास। ट्री गार्ड की व्यवस्था तो आपको ही करनी पड़ेगी।’ प्रधनाध्यापिका ने तुर्की-ब-तुर्की प्रति-प्रश्न किया - ‘अरे! वाह! कैसी बात कर रही हैं आप? आपके लिए तो यह चुटकियो का काम है! हमारे स्कूल में तो कुल मिलाकर पाँच ही तो ट्री गार्ड चाहिए! कलेक्टर साहब से किसी भी दानदाता या संस्था को कहलवा कर आप पाँच तो क्या, चाहे जितने ट्री गार्ड अरेंज कर सकती हैं!’ प्रमुख सेविका ने तत्क्षण, बिना विचारे जवाब दिया - ‘कलेक्टर साहब से कहलवाना इतना आसान है क्या?’ सुन कर तीनों ‘सरकारी मास्टरनियाँ’ जोर से हँस पड़ीं। सेविकाओं को फौरन ही अपनी चूक समझ में आ गई। सबकी सब झेंप गईं। उनकी यह ‘दशा’ देख, प्रधानाध्यापिका ने अतिरिक्त दृढ़ता से कहा - ‘तो फिर सॉरी। इस साल आप हमारे स्कूल में वृक्षारोपण करने मत आईएगा।’ सबने चुपचाप सुन लिया और बुझे मन से चली गईं। उधर कारों की आवाज दूर जाने लगी और इधर तीनों ‘सरकारी मास्टरनियाँ’ खिलखिलाने लगीं।

हम दोनों की समझ में कुछ नहीं आया। हमारी सवालिया नजरें देख कर प्रधानाध्यापिका ने बताया कि ये कि ये आठ-दस महिलाएँ, गए कुछ बरसों से नियमित रूप से इस विद्यालय परिसर में वृक्षारोपण करती चली आ रही हैं। एक दिन पहले एक मजदूर को भेज कर गड्ढे तैयार करवा देती हैं। अगले दिन, पाँच पौधों, अपनी संस्था के बैनर और फोटोग्राफर के साथ सब आती हैं। दो महिलाएँ, संस्था का बैनर ले कर खड़ी हो जाती हैं। बाकी सब उसके आगे खड़ी होकर, एक के बाद एक, वृक्षारोपण करते हुए अपने फोटू खिंचवाती हैं। सबके फोटू आने चाहिए, इसलिए बैनर पकड़ने का काम ये बारी-बारी से करती हैं। बच्चों को बिस्किट का एक-एक पेकेट देती हैं और चली जाती हैं। अध्यापिकाएँ अपने बच्चों को जोत कर दो-चार महीने, उन पौधों को पानी पिलवाती हैं। पौधे बड़े होते ही हैं कि किसी दिन, आवारा चौपाए उन्हें उदरस्थ कर जाते हैं। यह ‘वार्षिक कार्यक्रम’ कुछ बरसों से ‘स्थायी कार्यक्रम’ बना हुआ है। ट्री गार्ड के लिए, पहले भी दो-एक बार अनुरोध किया था किन्तु किसी ने नहीं सुना। यह सब आखिर कब तक चलाया जाए? सो, इस बार प्रधानाध्यापिका ने फाइल को अन्तिम रूप से निपटा दिया।

किस्सा सुनाकर ‘मुक्ति-मुद्रा’ में चहकते हुए प्रधानाध्यापिका ने कहा - ‘चलिए सर! इस खुशी में चाय हो जाए।’ उन्होंने किसी को मोबाइल लगाया। थोड़ी ही देर में चाय की केतली और प्लास्टिक के गिलास लेकर एक बच्चा आया। हम सबने चाय पी। प्रधानाध्यापिका ने भुगतान किया। मेरे परिचित ने रवानगी की अनुमति माँगते हुए नमस्कार किया। मैंने भी यह शराफत निभाई।

परिचित को स्कूटर पर बैठाकर मैं वहाँ से चला तो सही किन्तु मेरी नजरों में सड़क नहीं, उस अनजान स्कूल भवन की छवि उभर रही थी जहाँ वे सब सेविकाएँ इस साल वृक्षारोपण और ‘सेवा प्रकल्पों’ के अपने टारगेट पूरा करेंगी।

इस साल कौन सा स्कूल उनका टारगेट बनेगा - यह जिज्ञासा मेरे पेट में अभी से मरोड़ें मारने लगी है।

8 comments:

  1. @इस साल कौन सा स्कूल उनका टारगेट बनेगा?

    चाय लाने वाले बच्चे का स्कूल? लेकिन क्या वह स्कूल जाता है?

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  2. दुनिया रंग रंगीली. एक बड़े संस्थान के कालोनी में एक निर्दिष्ट जगह है जहाँ संस्था के मुख्य कार्य पालन अधिकारी द्वारा वर्षों से वृक्षा रोपण होता चला आ रहा है.

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  3. सार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें, आभारी होऊंगा.

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  4. मास्टरनियों का पढाया पाठ कुछ समय तक तो याद ही रखेंगी ये नाम मात्र की 'समाज-सविकाएं'

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  5. पर्याप्त सीख दे दी है, एक ही यात्रा में।

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  6. पर्याप्त सीख दे दी है,

    jai baba banaras...

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  7. मज़ेदार किस्सा और शानदार लेखन

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  8. ई-मेल से प्राप्‍त, श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    विष्णुजी, ये नाटक बरसों से चल रहे हैं! यदि ऐसे सेवा प्रकल्प ठोस आधार पर रहे होते, तो रतलाम 'रत्‍न ललाम' ही हो जाता। कुछ महिलाओं को घर से बाहा निकलने के लिए जमीन चाहिए होती है। इन्हें नौकरी की जरूरत तो है नहीं,घर पर काम काज कुछ है नहीं। तो बस, काटन की साडी और ढेर सारा मँहगा क्रीम चेहरे पर लगाकर, कारो मैं लदकर ये नौटंकियाँ करती रहती हैं।

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