एक फेसबुकिया अनुभव यह भी

फेस बुक के जरिए मिला, यह अनुभव मेरे लिए विचित्र और स्तम्भित कर देनेवाला सर्वथा अनपेक्षित अनुभव है।

मैं ‘बतरसिया’ हूँ। मेरी माँ कहा करती थी कि मैं सूने गाँव में भी सात दिन रह सकता हूँ। फेस बुक के बारे में जितना सुना और जाना था, उससे लगा कि यह तो चौराहे पर जमी गप्प गोष्ठी या अड्डेबाजी जैसा मामला है जिसमें कोई भी, कभी भी आकर शामिल हो सकता है, बातें सुन सकता है, चाहे तो अपनी बात भी कह सकता है, जब तक ‘रस’ आए तब तक मौजूद रह सकता है वर्ना किसी को नमस्कार किए बिना, किसी से अनुमति लिए बिना रवाना हो सकता है। यह (अनुत्तरदायी और खिलन्दड़) व्यवहार मेरी प्रकृति से मेल खाता है - सर्वाधिक अनुकूलता सहित। किन्तु एक बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि यहाँ नित नए लोगों से मेल-मुलाकात होने की सम्भावना बनी रहती है जो मेरे बीमा व्यवसाय के लिए सबसे जरूरी और सर्वाधिक सहायक कारक है।

सो, फेस बुक से जुड़ने में मुझे कोई मानसिक बाधा नहीं रही। उम्र तो आड़े आई ही नहीं। ‘मुलाकात और बात होगी तो ही तो आदमी के बारे में कुछ मालूम हो सकेगा!’ इसी विचार के अधीन मैंने, मुझे मिले प्रायः सारे मैत्री अनुरोधों को तनिक लापरवाही से कबूल कर लिया। हाँ, एक छन्नी यह जरूर लगाई कि जिनके चित्र और पर्याप्त ब्यौरे नहीं थे, उनसे कन्नी काट ली। आज, जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ तो मेरे फेस बुक मित्रों की संख्या 646 है।

हाँ, मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी की एक बात यहाँ भी सावधानी से याद रखी। मई 2007 में जब मैंने ब्लॉग जगत में कदम रखा तो रविजी ने कहा था - ‘सपने में भी याद रखिएगा कि ब्लॉग आपके लिए है। आप ब्लॉग के लिए नहीं हैं। यदि आप ब्लॉग के लिए हो गए तो सच में बैरागी हो जाएँगे।’ रविजी की यह सीख मैं वाकई में सपने में भी याद रखता हूँ और ब्लॉग की ओर तभी देखता हूँ जब मेरी टेबल पर कोई काम लम्बित न हो। फेस बुक के लिए भी मैंने रविजी की यह सीख गाँठ बाँधी हुई है।

लेकिन गलतियाँ हो ही जाती हैं। एक मैत्री अनुरोध पर चित्र तो नहीं था किन्तु ब्यौरा पूरा था। जानकारियों के अनुसार वे सज्जन लेखन और पत्रकारिता से जुड़े हैं। उनके चित्र के स्थान पर हिन्दू धर्म का पवित्र, शक्ति प्रतीक का चित्र लगा हुआ था। मैंने आशावाद का सूत्र थामा और तनिक हिचकिचाहट के साथ, मैत्री अनुरोध स्वीकार कर लिया।

अगले ही दिन, चौबीस घण्टों से भी पहले वे ‘मित्र’ चेट बॉक्स पर प्रकट हो गए। हम दोनों के बीच बातचीत कुछ इस तरह हुई -

वे: नमस्कार सरजी! कैसे हैं?

मैं: नमस्कार। मैं ठीक हूँ। आप कैसे हैं?

वे: हमने आपको अपने दिल में बसा लिया है।

मैं: इतनी जल्दी? अभी तो चौबीस घण्टे भी नहीं हुए!

वे: हम तो ऐसे ही हैं।

मैं: मैं ऐसा नहीं हूँ।

वे: आपसे एक बात पूछूँ सरजी? नाराज तो नहीं होंगे?

मैं: यह तो आपकी बात जानने के बाद ही मालूम हो सकेगा कि नाराज हुआ जाए या नहीं।

वे: तो फिर नहीं पूछता। क्या पता आप नाराज हो ही जाएँ।

मैं: आपकी मर्जी। वैसे, सबको खुश रखने की कोशिश में हम किसी को खुश नहीं रख सकते।

वे: तो फिर पूछ लेता हूँ।

मैं: पूछिए।

वे: आप ‘m2m’ सेक्स में विश्वास करते हैं?

मैं: ‘m2m’ याने?

वे: ‘m2m’ याने मेल टू मेल। आप और मैं।

मैं: मैं प्रकृति के विरुद्ध नहीं जाता और न ही किसी को एसी सलाह देता। यह गलत भी और अपराध भी।

वे: आप तो नाराज हो गए!

मैं: नहीं। मैं नाराज नहीं हूँ। आपने पूछा तो मैंने अपनी बात कह दी।

वे: नहीं। नहीं। आप नाराज हो गए। मैं आपको नाराज नहीं करना चाहता। मैं तो आपको खुश करना चाहता हूँ। आपको खुश देखना चाहता हूँ।

मैं: मैंने कहा ना! मैं नाराज नहीं हूँ।

वे: नहीं। नहीं। आप नाराज हो गए।

मैं: मुझे जो कहना था, कह दिया। आपकी आप जानो।

वे: सॉरी सरजी! मैंने आपका दिल दुखा दिया। आपको नाराज कर दिया। मैं तो आपको खुश करना चाहता था।

मैं: इसी तरीके से?

वे: जिस भी तरीके से आप खुश हो जाएँ।

मैं: मैं तो आपसे बात करने से पहले भी खुश था और अभी भी दुःखी नहीं हूँ। हाँ, आपकी बातों से चकित और स्तम्भित अवश्य हूँ। इससे पहले मुझसे किसी ने ऐसी बातें नहीं कीं।

वे: मतलब आप नाराज हो ही गए।

मैं: अब तो यह आप ही तय कीजिए।

वे: सॉरी सरजी! मैंने आपका दिल दुखा दिया। आगे से ध्यान रखूँगा। मैं तो आपको खुश करना और खुश देखना चाहता था। आप मेरे दिल में बस गए हैं। कभी खुशी की जरूरत पड़े तो बताइएगा।

मैं: आप बेफिक्र रहिएगा। मेरा मन खुशियों से भरा है। गोदाम खाली नहीं है। नमस्कार।

वे: नमस्कार सरजी।

इस सम्वाद को लगभग दस दिन हो गए हैं। मैं जब भी फेस बुक खोलता हूँ, आशंकित रहता हूँ कि कहीं ‘वे’ प्रकट न हो जाएँ। एक विचार आया कि उन्हें मित्र सूची से हटा दूँ। फिर सोचा, कहाँ वे और कहाँ मैं? पता नहीं, कितने कोस दूर हैं वे मुझसे? क्या बिगाड़ लेंगे मेरा? बिगाडेंगे भी कैसे? मैं चाहूँगा तभी तो बिगाड़ सकेंगे!

स्तम्भित कर देनेवाले इस अनुभव के बाद भी एक खुशी तो उन्होंने मुझे दे ही दी - अब तक मुझसे, फिर बात न करके।

13 comments:

  1. ऐसों को शीघ्रतम विदा दें..

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  2. नये रंग-रूप के साथ नई-नई बातें, कायम रहे आपकी खुशी.

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  3. यह वर्चुअल दुनिया का सच है, यहाँ पर व्यक्ति अपनी कुँठा मिटाना चाहता है।

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  4. अप्राकृतिक मानसिकता, कृपया इन्हे तुरंत अपनी मित्रता सूची से हटाए। वार्ता शेयर करने के आपके साहस को नमन।

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  5. Kya kar sakte hain aise logon ka....?

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  6. ha ha ha ..... inko chalta karen .... lekin satarktaa banaye rakhe naye mitro ko jodte samay

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  7. सार्थक पोस्ट, आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की १५० वीं पोस्ट पर पधारें और अब तक मेरी काव्य यात्रा पर अपनी राय दें, आभारी होऊंगा .

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  8. ६४६ मित्र और वे भी भीड़ में से .....
    मैं अचंभित हूँ कि आप भीड़ से और क्या उम्मीद करते थे ...???
    सादर

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    1. इतना ही नहीं, ऐसे-ऐसे भी मित्र जो न तो मित्र हैं और न ही कभी होंगे (और यह बात मैं तो जानता ही हूँ, 'वे' भी जानमे हैं)। आपकी यह बात गॉंठ बॉंध ली कि भीड से उम्‍मीद करना नासमझी है। दरअसल, मैं सबको विवेकवान मान कर चलता हूँ। किन्‍तु यह तो मेरी ही गलती है। 'उन बेचारों' का कोई दोष नहीं।

      आपकी बात से ताकत मिली - इससे भी बदतर अनुभव का समाना करने की। अब तो मैं 'उसकी' भी प्रतीक्षा करूँगा।

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  9. 'फेस' मर्दाना हो या ज़नाना हो,
    'बुक' किया तो निबाहना होगा,
    'तीसरा' ही अगर निकल आया !
    देना खुद को 'उलाहना' होगा !!
    http://aatm-manthan.com

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    1. आपने तो वह कह दिया जिसके बारे में सोचा भी नहीं था। आपने किसी के लिए कुछ कहने को छोडा ही नहीं।

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  10. हा हा हा.. आपने सही कहा - "यह तो चौराहे पर जमी गप्प गोष्ठी या अड्डेबाजी जैसा मामला है जिसमें कोई भी, कभी भी आकर शामिल हो सकता है, बातें सुन सकता है, चाहे तो अपनी बात भी कह सकता है, जब तक ‘रस’ आए तब तक मौजूद रह सकता है वर्ना किसी को नमस्कार किए बिना, किसी से अनुमति लिए बिना रवाना हो सकता है"

    इसमें मैं अपनी एक बात और जोड़ देता हूँ, जब कोई भला सा ना लगे तो उसे ब्लोक करने में भी कोताही ना बरते. और मित्रों कि संख्या उतनी भी ना बढ़ा लें की आप हर किसी के बारे में जान ना सकें! :-)

    आपका प्रोफाईल कई दफे फेसबुक पर देखा हूँ, मगर कभी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेजा.

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    1. आपकी टिप्‍पणी ने आनन्‍द ला दिया। धन्‍यवाद।

      काश! 'फ्रेण्‍ड' बनाने, न बनाने के मामले में मैं आप जैसा हो पाता।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.