राष्ट्रकवि, स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त ने, कोई सौ बरस पहले, अपनी कृति ‘भारत भारती’ में लिखा था -
‘हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी?
आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी।’
आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी।’
इन पंक्तियों को शुरु से ही भारतीय समाज की दशा-दुर्दशा से जोड़ा जाता रहा। आज भी जोड़ा जाता है। अभी-अभी एक भाष्य यह भी आया है कि गुप्तजी को अपने पाविारिक व्यापार में भयंकर घाटा हो गया था जिससे उपजी दशा को लेकर उन्होंने ये पंक्तियाँ रचीं थीं।
वास्तविकता या तो गुप्तजी जानें या भगवान किन्तु मुझे लगा, गुप्तजी ने ये पंक्तियाँ आज, 27 अप्रेल 2012 को, पूरे देश में मचे हा!हा!!कार और चित्कार को लेकर लिखी होंगी।
क्रिकेट के भगवान, सचिन तेन्दुलकर को, सरकार द्वारा राज्य सभा हेतु मनोनीत किए जाने की खबर आते ही पूरे देश में जो गगनभेदी चित्कार और हा!हा!!कार मचा, वह अनूठा और अभूतपूर्व तो था ही, कुछ सवाल भी खड़े कर गया। हम क्या हैं - दोमुँहे, पाखण्डी? अतिरेकी? आत्म-भ्रमित? अपनी और अपने नायकों की, ‘विवेकवान हो, निर्णय लेने की क्षमता’ के प्रति सन्देही? क्या हैं हम? हमें न तो खुद पर विश्वास रहा, न सचिन के विवेक पर और और न ही सरकार (या कि काँग्रेस) की नीयत पर।
संसद में दागी सदस्यों की दिन-प्रति-दिन बढ़ती संख्या को लेकर हम चिन्ता से दुबले हुए जा रहे हैं। चाहते हैं कि दागी लोग वहाँ नजर न आएँ। कुर्सियों पर भले लोग बैठे मिलें। किन्तु सचिन के मनोनयन पर बुक्का फाड़ कर रो-रो कर अन्ततः हम क्या साबित कर रहे हैं?
इस बात पर विश्वास करते हुए कि इस नामांकन के पीछे निश्चय ही सरकार (या कि काँग्रेस) के इरादे नेक नहीं हैं, या कि वह सचिन का राजनीतिक उपयोग करना चाह रही है या कि अपनी साख और विश्वसनीयता पर छाए घटाटोप से लोगों का ध्यान हटाना चाह रही है, इस बात पर तो खुश हुआ ही जाना चाहिए संसद में एक दागी कम नजर आएगा या कि एक भला आदमी अधिक नजर आएगा। सरकार (या कि काँग्रेस ने), दुराशयता से ही सही, फिलवक्त तो एक अच्छा काम किया ही है। क्या जरूरी है कि सरकार (या काँग्रेस) की मनोकामना पूरी हो ही जाएगी? पाँसा पलट भी तो सकता है?
पूरा देश भयाक्रान्त है - राजनीति सचिन को मटियामेट कर देगी। एक अच्छा भला आदमी, काम से चला जाएगा, दो कौड़ी का भी नहीं रह जाएगा। याने, हमें सचिन की बुद्धि पर, सचिन के विवेक पर, संयमित होकर, अपना भला-बुरा सोचकर निर्णय लेने की उनकी क्षमता पर रंच मात्र और पल भर भी विश्वास नहीं रह गया। अपनी उम्र के चालीसवें बरस में चल रहे, सारी दुनिया घूम चुके (कहिए कि घाट-घाट का पानी पी चुके), दुनिया भर में फैले करोड़ों-अरबों प्रशंसकों के नायक, अपने से बेहतर और दीर्घानुभवी, अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ, असंख्य लोगों के सम्पर्क में आए हुए, बरसों के वैवाहिक जीवन के अनुभवी, एक बच्चे के बाप, अनगिनत कम्पनियों के खरबों रुपयों के ’विपणन भविष्य’ (मार्केटिंग फ्यूचर) को अपने कन्धों पर ढो रहे सचिन की बुद्धि, विवेक और सामान्य समझ पर हमें तिल भर भी भरोसा नहीं रह गया है। हर कोई सचिन को इस तरह सलाह दे रहा है जैसे कि सचिन ने अभी छठी के दूध का स्वाद भी नहीं चखा हो। हर कोई सचिन की रक्षा करने में इस तरह जुट गया है मानो उसने ऐसा नहीं किया तो सचिन तो लुट ही जाएगा।
चलिए, मान लिया कि सचमुच में वैसा ही हो गया जैसी कि शंका की जा रही है - सचिन सरकार (या कि काँग्रेस) के षड़यन्त्र का शिकार हो ही जाएँगे। तो क्या सचिन के करोड़ांे-अरबों प्रशंसक भी, एक मुश्त ऐसे ही शिकार हो जाएँगे? क्या ये तमाम प्रशंसक ‘भेड़ों की रेवड़’ है जिसे, सचिन जैसा चाहेंगे वैसा हाँक लेंगे? यह खुशफहमी काँग्रेस को तो शायद नहीं होगी कि सचिन के तमाम प्रशंसक ‘काँग्रेस के वोट’ बन जाएँगे किन्तु हमें यह भय अवश्य हो गया है। हमें सचिन के प्रशंसकों के, न तो ‘सामूहिक विवेक’ पर विश्वास रह गया है न ही ‘व्यक्तिगत विवेक’ पर। हमने तो अन्तिम रूप से मान लिया है कि सब कुछ शब्दशः वैसा ही होगा जैसा सरकार (या कि काँग्रेस) ने सोचा है।
मुझे नहीं पता कि, ऐसे नामांकन के लिए सम्बन्धित व्यक्ति से सहमति पहले ली जाती है या बाद में। किन्तु स्थिति जो भी हो, हमे सचिन के विवेक पर, उनकी सामान्य समझ पर, निर्णय लेने की क्षमता पर विश्वास करना चाहिए। विश्वास करना चाहिए कि राजनीति के मौजूदा स्वरूप, चरित्र और प्रभाव से सचिन बेखबर नहीं होंगे। और कुछ हो न हो, उन्हें यह पता तो होगा ही वे अनेक कम्पनियों से, विज्ञापनों हेतु अनुबन्धित हैं और राजनीति के नकारात्मक प्रभावों से उनकी करोड़ों की कमाई में तेजी से, अच्छी-खासी कमी आ सकती है।
इस समय तक तो वे किसी पार्टी के सदस्य नहीं बने हैं। सचिन के सिवाय और कोई नहीं जानता कि अगले क्षण क्या होगा। किन्तु यदि सचिन राजनीति में जाने का निर्णय करते हैं, किसी पार्टी का सदस्य बनते हैं तो यह सब करने का अधिकार तो सचिन को है। अपने निर्णय के परिणाम (याने कि ‘कर्म-फल’) उन्हें भोगने-भुगतने पड़ेंगे ही। अपने-अपने स्तर पर हम सब यह कामना ही कर सकते हैं कि वे उनकी नहीं, हमारी मनपसन्द पार्टी से जुड़ें। उनके अन्तिम निर्णय के बाद, अपने-अपने राजनीतिक रुझान के आधार पर हम सचिन के बारे में अपनी राय बनाने के लिए स्वतन्त्र हैं।
इस क्षण तो यह होना चाहिए कि पूरा देश सचिन को शुभ-कामनाएँ दे, हौसला बँधाए। उन्हें आश्वस्त करे कि उनके जैसे साफ-सुथरे, भले आदमी को संसद में देख कर पूरा देश प्रसन्न है। उनसे कहें कि वे निरपेक्ष और निर्भय होकर एक विवेकवान और जिम्मेदार सांसद की भूमिका इस तरह निभाएँ कि धन्धेबाज नेताओं की घिग्घी बँध जाए, उन्हें अपनी भूमिका पर, अपने संसदीय आचारण शर्म आने लगे, वे सब के सब, सचिन के रास्ते पर चलने लगें।
हम चाहते तो हैं कि संसद में भले लोग नजर आएँ किन्तु भले लोगों को वहाँ भेजने में हमारी न तो रुचि होती है और न ही कोई भूमिका। होना तो यह चाहिए कि हम भले आदमी को संसद में भेजें और यदि हम ऐसा न कर सकें और दैव योग से ऐसा हो रहा हो तो उस भले आदमी को वहाँ बने रहने में अपनी पूरी ताकत लगाएँ, उसे पूरी मदद करें - वह सारी मदद ताकि वह ‘जरूरतमन्द’ हो कर स्खलित न हो और ‘भला आदमी’ बना रहे।
आज तो हर्षनाद होना चाहिए - ‘जाओ! सचिन! निश्चिन्त होकर जाओ। हम जानते हैं कि इससे तुम्हारा क्रिकेट जीवन अवश्य ही प्रभावित होगा किन्तु तुम देश का भविष्य बनाने की ऐतिहासिक और प्रेरक भूमिका निभाओ। ईश्वर तुम्हें वह सब करने का निमित्त बनाए जिसकी दुहाइयाँ दे-दे कर, नेता लोग हमारे वोटों के दम पर, हमारे कन्धों पर चढ़कर विधायी सदनों में जाते हैं किन्तु करते सुब कछ उल्टा हैं। तुम इन सब धन्धेबाज नेताओं को मजबूर कर दो कि उन सबको तुम जैसा बनना पड़े।’
शुभ-कामनाओं के हर्षनाद के स्थान पर, नकारात्मकता और निराशा लिए यह चित्कार और हा!हाकार तो सचिन को भी अच्छा नहीं लगेगा।
सतही सोच, दोहरे मापदंड के होते हुए किससे क्या उम्मीद की जाये?
ReplyDeleteवैसे, अभी राष्ट्रपति पद के लिए खोजबीन जारी है. सुपर महामहिम सचिन राष्ट्रपति के तगड़े दावेदार हो सकते हैं. देश की जनता उन्हें राष्ट्रपति पद पर देख कर खुश होगी. मेरे विचार में तो वे सर्वसम्मत उम्मीदवार हैं. उन्हें ही राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए, और जितनी जल्दी उतना अच्छा!
ReplyDeleteऔर वे क्रिकेट खेलते रह सकते हैं - क्योंकि उन्हें कोई क्रिकेट से जबरन रिटायर नहीं कर सकता. राष्ट्रपति पद भी नहीं. सोचिए, देश का राष्ट्रपति क्रिकेट खेले - विश्व कप के लिए खेले. विश्व के लिए यह महान उपलब्धि होगी.
ई-मेल से, भुवनेश्वर से प्राप्त, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteअजीब हैं हमारे लोग और उनकी मानसिकता! कांग्रेस सचिन को लाती है तो अपराध करती है? कांग्रेस के पास अच्छे लोग क्यों न हो? जब दूसरे दलों को शहाबुद्दीन, फूलनदेवी, डी. पी. यादव आदि आदि को लाकर चुनाव लड़कर जीतवाने का हक है तो कांग्रेस को सचिन को सदन मैं लेने से परहेज क्यों करना चाहिए? क्या कांग्रेस इनसे पूछकर तय करे कि, किसे लाया जाय और किसे नहीं? बालासाहेब तो कहते थे कि सचिन राजनीति मैं बच्चा है। तो बालासाहेब को तो ख़ुश होना चाहिए कि सचिन ने बचपन मैं ही राजनीति की डिग्री ले ली
और ऐसी संस्था से ली जो अखिल भारतीय स्तर की है और मान्य है।
:)
Deleteराजनीति में हर निर्णय घुमावदार हो जाते हैं।
ReplyDeleteachchhe logon ke chayan men burai kya hai.
ReplyDeleterahi RAJANITI ki to behatar shuruwat hone den.
रोनाल्ड रीगन अमेरिका के पंतप्रधान हो सकते हैं तो तेन्दुळकर प्रधानमंत्री क्यों नहीं?
ReplyDeleteआपने तो 'सतसैया के दोहरे' जैसा वार करके, सारी बहस पर पूर्ण विराम लगा दिया। सबकी बोलती बन्द कर दी।
Deleteअन्तर्मन से आपका आभारी हूँ। आपने मेरे ब्लॉग का, मेरी इस पोस्ट का और मेरा मान बढाया। उपकृत अनुभव कर रहा हूँ। यही कृपा भाव बनाए रखें।
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