'कुछ नहीं होगा निर्मल नरुला का' पोस्ट लिखने के बाद कल से ही अटपटा लग रहा था। अपराध बोध सा लग रहा था। लग रहा था, जाने-अनजाने मैं निर्मल नरुला का न केवल बचाव कर रहा हूँ अपितु उसके लिए समर्थन भी जुटा रहा हूँ। साफ नजर आ रहा है कि गड़बड़ हो रही है तो क्यों नहीं, कुछ हो सकता? मुमकिन है, सामान्य से अधिक मेहनत करनी पड़े किन्तु कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए।
कल दिन भर बेचैनी रही। पुराने कागज-पत्तर टटोलता-पलटता रहा। याद आ रहा था कि ऐसा ही ‘कुछ’ पहले कहीं न कहीं हुआ था जिस पर सजा हुई थी।
आखिरकार मुझे 1976 के कुछ कागजों में, कच्चे स्वरूप में लिखा एक संस्मरण मिला। मैं उछल पड़ा। बस! यह सब लिखते हुए एक कसक साल रही है - इसके नायक का नाम नहीं दे पाऊँगा। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। होते तो उनकी अनुमति लेने का प्रयास करता। पूरा विश्वास है कि वे होते तो पहली ही बार में अनुमति दे देते। किन्तु किसी दिवंगत की अनुपस्थिति में उसे अन्यथा लिए जाने का अपराध करने की अनुमति मन नहीं दे रहा।
घटना मन्दसौर की है। पत्रकारिता में मेरे गुरु (अब स्वर्गीय) श्रीयुत् हेमेन्द्र त्यागी ने यह किस्सा सुनाया था। मन्दसौर में आयोजित एक कवि सम्मेलन में आए एक कवि से मिलने के लिए त्यागीजी गए। ये कवि उद्भट विद्वान् तो थे ही, अद्भुत आशुकवि भी थे। रहन-सहन और व्यवहार सर्वथा असामान्य। इतना और ऐसा कि वे खुद को घामड़ और औघड़ तक कह देते थे। एकदम अक्खड़। किसी को भी, कहीं भी, कुछ भी कह देना उनकी फितरत भी थी। जिसे लाड़ करते, उस पर न्यौछावर हो जाते और जिस को निपटाना होता उसकी इज्जत का फलूदा कर देते। दारु पीते तो रोज, एक ही बैठक पर पूरी बोतल पी जाएँ और न पीने पर आए महीनों/बरसों न पीएँ। अंग्रेजी के ‘अनप्रिडेक्टिबल’ शब्द के वे वास्तविक मानवाकार थे।
अभिवादन के बाद बातें शुरु हुईं तो त्यागीजी ने कहा कि वे उनसे पहले मिल चुके हैं। उन्होंने पूछा - ‘कब?’ त्यागीजी की बताई तारीखें और वर्ष सुनकर वे बोले - ‘आप झूठ बोल रहे हैं। उन दिनों तो मैं जेल में था।’ त्यागीजी सन्न! शिष्टाचारवश बोला गया उनका झूठ न केवल तत्क्षण पकड़ा जाएगा बल्कि उन्हें मुँह पर ही, हाथों-हाथ ही झूठा भी कह दिया जाएगा - यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।
अपनी झेंप मिटाने हेतु त्यागीजी ने फौरन पूछा - ‘आप! और जेल में! भला क्यों?’ तब उन कविराज ने जो किस्सा सुनाया वह कुछ इस तरह था -
‘‘तब मैं कवि के रूप में स्थापित नहीं हुआ था। काम-काज के नाम पर कुछ भी नहीं था। घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। तब रातों-रात धनपति होने की तरकीब सोची।
‘‘जैसे-तैसे कुछ पैसे जुटा कर मैं ने अखबारों विज्ञापन दिया - ‘एक बार हजार रुपये देकर दो वर्षों तक घर बैठे हजार रुपये मासिक प्राप्त कीजिए।’ विज्ञापन ने तहलका मचा दिया। सप्ताह पूरा होने से पहले ही मनी आर्डरों का ढेर लग गया। पैसा समेटे, समेटा नहीं जा रहा था। मैंने रुपये भेजनेवालों के नाम-पतों की व्यवस्थित सूचियाँ बनाईं। जब मनी आर्डर आने की गति धीमी हुई तो मैंने रुपये भेजनेवालों की, शहरवार सूचियाँ बनाईं। एक शहर को केन्द्र बना कर उसके आसपास के इलाके के (एक हजार रुपये भेजनेवाले) लोगों को विज्ञापन के जरिए बुलाया। सबके साक्षात्कार लिए और कहा कि वे योजना के लाभ लेने के पात्र पाए गए हैं और जल्दी ही उन्हें हजार रुपये मासिक मिलना शुरु हो जाएगा।
‘‘साक्षात्कार लेने के मेरे इस कदम से लोगों में मेरे प्रति विश्वास और बढ़ा। मनी आर्डरों की संख्या और गति में थोड़ी बढ़ोतरी हुई।
‘‘जब देखा कि अब पानी ठहर गया है तो मैंने भारत के समाचार पत्र पंजीयक को आवेदन देकर, जुगाड़ लगा कर एक मासिक पत्र का शीर्षक (टाइटिल) हासिल किया। शीर्षक था - ‘हजार रुपये।’
‘‘शीर्षक मिलते ही मैंने जिला दण्डाधिकारी के समक्ष घोषणा-पत्र प्रस्तुत करने सहित तमाम औपचारिकताएँ पूरी कर अखबार छपवाया - ‘हजार रुपये मासिक’ और सूचियों के अनुसार पतों पर डाक से भेज दिया।
पहला अंक मिलते ही हंगामा हो गया। लेकिन अपने यहाँ लोग बोलते ज्यादा और करते कम हैं। इसलिए दो-तीन महीने यूँ ही निकल गए। लोगों के पास ‘हजार रुपये मासिक’ तीसरे महीने भी पहुँच गया।
‘‘लेकिन वो कबीरदासजी कह गए हैं ना - ‘पाप छुपाए न छुपे, छुपे तो मोटा भाग। दाबी-दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग।।’ सो, चौथे महीने चार शहरों में मुझ पर धोखाधड़ी और ठगी के मुकदमे लग गए। मेरी तकदीर अच्छी थी कि ये चारों मुकदमे एक ही जिले में लगे थे। मेरे वकील ने अपनी विद्वत्ता का चरम उपयोग कर वे सारे मुकदमे मेरे गृह नगर की अदालत में स्थानान्तरित करवा लिए।
‘‘मुकदमे चलते रहे और लोगों को घर बैठे ‘हजार रुपए मासिक’ मिलते रहे। मेरे वकील ने मुकदमों को यथा सम्भव लम्बा खींचने का प्रयास किया और बड़ी हद तक कामयाब भी हुआ। किन्तु बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाती। आखिरकार कयामत का दिन आ ही गया।
‘‘जज साहब ने कहा कि शाब्दिक अर्थों के आधार पर मैं बेशक निरपराध हूँ किन्तु हमारा कानून केवल शब्दों पर नहीं चलता। मेरे मामले में शब्द तो मेरा साथ दे रहे थे किन्तु ‘मंशा’ (इण्टेन्शन्स) मेरे विरुद्ध तन कर खड़ी थी। उसी आधार पर जज साहब ने मुझे अठारह महीनों के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। जज साहब ने कहा कि कोई और होता तो वे कम और सादी सजा सुनाते किन्तु मेरा कवि होकर शब्दों का ऐसा आपराधिक दुरुपयोग उन्हें अत्यधिक नागवार गुजरा। सो उन्होंने मुझे ‘सजा बामशक्कत’ सुनाई।
‘‘मैंने इस फैसले को सर झुकाकर कबूल किया। जानता था कि अपील में जाऊँगा तो भी सजा में कोई अन्तर नहीं पड़ना। उल्टे, वकीलों की फीस चुकाने में बड़ी रकम खर्च हो जाएगी। इसलिए बेहतर यही समझा कि बुढ़ापा बिगड़ने से बचा लिया जाए और जवानी में ही सजा काट ली जाए।
‘‘अठारह महीनों के बाद मैं जब जेल से बाहर आया तब तक लोग सब भूल चुके थे। मेरी पत्नी ने समझदारी बरती और रुपया भले ही हराम का था किन्तु खर्च करने और बचाने में समझदारी बरती। मेरी गैरहाजरी में घर बराबर चलता रहा। हाँ, पत्नी को जरूर पग-पग पर अपपानित होना पड़ा। किन्तु उसने उदारता और बड़प्पन बरत कर मुझे क्षमा कर दिया।
‘‘अठारह महीनों के बाद मैं जब जेल से बाहर आया तब तक लोग सब भूल चुके थे। मेरी पत्नी ने समझदारी बरती और रुपया भले ही हराम का था किन्तु खर्च करने और बचाने में समझदारी बरती। मेरी गैरहाजरी में घर बराबर चलता रहा। हाँ, पत्नी को जरूर पग-पग पर अपपानित होना पड़ा। किन्तु उसने उदारता और बड़प्पन बरत कर मुझे क्षमा कर दिया।
‘‘जेल से आते ही मैंने खुद पर ध्यान दिया। जेलर साहब कहा करते थे कि जितनी मेहनत शार्ट-कट में लगाई, उतनी ही मेहनत कविता में लगाता तो मुमकिन है कि इससे अधिक रुपये मिलते और प्रसिद्धी मिलती सो अलग। वह बात मैं नहीं भूला। जेल में रहते हुए भी कविताएँ लिखता रहा और बाहर आने के बाद तो मैं कविता का ही हो कर रह गया।
‘‘आज शब्दों ने मेरे ‘अनर्थ’ को ढँक दिया और सरस्वती की बड़ी बहन बन कर लक्ष्मी मुझ पर बरस रही है। लोग मेरा अतीत भूल गए हैं। मैं भी भूल ही जाता किन्तु त्यागीजी! आपने झूठ बोलकर मुझे वह सब याद दिला दिया।’’
कोई छत्तीस बरस पहले का लिखा यह कच्चा संस्मरण मुझे हौसला दे गया। यदि यह बात अच्छे लोगों तक पहुँचे और वे ‘मंशा’ के आधार पर मामला बढ़ाएँ तो मुझे विश्वास है निर्मल नरुला का ‘कुछ’ ही नहीं ‘काफी कुछ’ हो सकता है।
यह सब लिख कर मैं काफी हलका अनुभव कर रहा हूँ - स्तनपान कर रहे गौ-वत्स के मुँह से झर रहे फेन की तरह हलका।
पिछली पोस्ट में आपने सरकार और संसद के सामने चुनौती खड़ी कर दी थी कि वे इस तरह की धोखाधड़ियों के लिए स्पष्ट कानून बनाएँ। इस पोस्ट में आपने पुलिस और विधिज्ञों के सामने चुनौती प्रस्तुत कर दी है कि वे नरूला को उस की असली जगह दिखाएँ।
ReplyDeleteबहुत प्रेरक पोस्ट है। ऐसी चाल चलकर, पहले सफल होकर, फिर सज़ा पाकर भी इंसान का बदल पाना सम्भव है? एक अपराधी का एक सफल कवि में रूपांतरण तो रोचक लगा ही, मैलाफ़ाइड इंटेंशन का खुलासा होना और भी अच्छा लगा। लेकिन केवल सज़ा? नरूला के केस में सभी लोगों का पैसा भी वापस होना चाहिये और ऐसे अपराध करने वाले नरुला सहित उसे सहारा और प्रचार देने वाले टीवी चैनलों, अभिनेताओं आदि सभी पर कार्यवाही होनी चाहिये। मुझे पूरा यक़ीन है कि अतीत में दीवाला पिटे बताये जा रहे उसके धन्धों में भी सरकारी बैंकों को राजनीतिक प्रभाव से चूना लगाये जाने की भरपूर सम्भावना है। उस पक्ष की भी फिर से जाँच होनी चाहिये।
ReplyDeleteयह तो बड़ा ही रोचक प्रसंग है। यही तो संभवतः हमारा कष्ट है, अन्ततः बुद्धि का व्यवसाय धन के लिये ही हो जाता है।
ReplyDeleteआज का भजन
ReplyDeleteअब और तू 'निर्मल' को 'न'-'रुला',
तुझ पर भी होवेगी 'कृपा',
जो बीत गया सो बीत गया,
मत शोर मचा, मत शोर मचा.
बीता कल तो था 'हज़ारी' का,
'बाबा' है ये तो 'करोड़ी' का,
एक बेग 'ब्लेक' ज़रा ले आ,
जितना चाहे उसमे भरजा.
कर चुके 'सरस्वती' की वंदना,
'लक्ष्मी' संग 'उल्लू' पर चढ़ जा.
इस 'दूध' में 'फेन' नहीं है ज़रा,
आजा, मुख पर 'मक्खन' मालजा !
'कागज़' पत्तर तू फाड़ दे सब,
'इन्साफ' में लगती देर बहुत,
अब क्या 'उपमा' दे, कबीर भगत ?
'रूई' भी हुई 'अग्नि-रोधक' !
http://aatm-manthan.com
आपने तो मेरी, मेरे ब्लॉग की और मेरी इस पोस्ट की इज्जत बढा दी हाशमीजी। आपका अहसानमन्द हूँ। जी भर आया मेरा।
Deleteमालजा = मलजा
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